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ये हमारी चॉइस नहीं है कि हमें एक्टिविस्ट बनना है : राजवीर कौर

''ये हमारी चॉइस नहीं है कि हमें एक्टिविस्ट बनना है, लेकिन अगर आपको जीना है, तो हर ग़लत के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा।'' यह कहना है नौदीप की बहन  राजवीर कौर का। नाज़मा ख़ान ने न्यूज़क्लिक के लिए उनसे मुलाकात और बात की। 
नौदीप कौर अपने परिवार के साथ
नौदीप कौर अपने परिवार के साथ

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है

सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है

जुगनुओं की लौ में पढ़ना

मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

पंजाब के कवि/ शायर पाश ने जब इस कविता को लिखा था तो क्या वही महसूस किया होगा जो आज मैं इस कविता को पढ़ते हुए महसूस कर रही हूं? क्या उन्होंने समाज को आईना दिखाने के लिए अपनी क़लम को मेहनतकश मज़दूरों की आवाज़ बनाने की कोशिश करती नौदीप के संघर्ष की स्याही में डुबाया था? जब जेल में उसे सेक्सुअली असॉल्ट किया जा रहा था तो क्या पाश के अल्फ़ाज़ वहीं बिलख रहे थे? जब बेबस नौदीप अपनी मुट्ठियों को भीचें ये सोच रही होगी कि ये वक़्त भी गुज़र जाएगा तो क्या पाश की कविता भी सोच रही होगी कि मैं वक़्त से पहले लिख दी गई थी क्या? या फिर मज़दूरों और मज़लूमों का वक़्त कभी नहीं बदलता, सियासत करने वाले बदल जाते हैं लेकिन समाज का ये वर्ग शायद आज भी कार्ल मार्क्स की किताबों में अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष की थ्योरी को समझने की जुगत में लगा है?

नौदीप को ‘उठाए’ हुए 22 दिन से ज़्यादा हो चुके थे और मैं उसकी बहन की तलाश में सिंघु बॉर्डर पर भटक रही थी लेकिन उस दिन तक मुझे नौदीप की खोज ख़बर लेने वाला कोई नहीं दिखा और जो यहां मिले भी वो भी उसके बारे में खुलकर बात करने के मूड में नहीं थे। ऐसा लग रहा था कि किसानों और मज़दूरों के रिश्ते को कनेक्ट करने वाला कोई लिंक यहां मिस हो रहा था। सिंघु बॉर्डर के पेट्रोलपंप पर मुझे नौदीप की बड़ी बहन राजवीर कौर की एक दोस्त मिली। कुछ मिन्नतें करने के बाद उन्होंने मेरी बात राजवीर कौर से करवा दी, राजवीर को जब पता चला कि मैं जर्नलिस्ट हूं तो उन्होंने बड़ी उम्मीद के साथ मुझे अपनी बहन के केस से जुड़ी तमाम अपडेट बताए और आगे भी बताने का वादा किया। ये बात तीन फरवरी के आस-पास की थी मैं लगातार नौदीप के केस को फ़ोलो कर रही थी जिस तरह सिंघु बॉर्डर पर लोग किसान और मज़दूरों के रिश्ते के बीच की बारीक़ धागे को समझ रहे थे मैं भी उसी तार को जोड़ने में लगी थी लेकिन तभी अमेरिका की उपराष्ट्रपति की नीस (Niece) मीना हैरीस ने नौदीप के साथ हो रही नाइंसाफ़ी के लिए आवाज़ उठाई और मामला इंटरनल से इंटरनेशनल हो गया।

15 दिन बाद मैं फिर सिंघु बॉर्डर पहुंची और नौदीप की बड़ी बहन राजवीर से मुलाक़ात की। एक 25-26 साल की लड़की बैठी हुई थी लेकिन फिर भी उसके कंधों पर बैग टंगा था। ऐसा लग रहा था कि अपनी छोटी बहन के केस की ज़िम्मेदारी उठाने वाली इस लड़की के लिए कंधों पर पड़े बोझ का कोई मायने नहीं था।

राजवीर कौर

राजवीर से बातचीत कर मैं समझ गई जिस परिवार से ये लड़की आती है वहां उसे अच्छे कपड़े, महंगे शौक की हसरत की बजाए ग़रीब दलितों को इंसान समझाने और समझाने की ज़िद के साथ बड़ा किया गया है। इस लड़की ने ज़िन्दगी के स्कूल में तजुर्बे के सिलेबस के वो नोट्स तैयार कर रखे थे जो एक ग़रीब दलित लड़की को सिर ऊंचा करके चलने का हौसला देते हैं। तमाम सवालों के जवाब में एक जवाब ऐसा था जिसने नौदीप के संघर्ष को मेरे सामने वनलाइन में उतारा दिया था।

राजवीर ने एक क़िस्सा सुनाया कि उनके गांव में एक दलित बच्ची के रेप के मामले में उनकी मम्मी ने बड़ी भूमिका निभाई और आरोपियों को सलाखों के पीछे तक पहुंचा दिया था। लेकिन आज जब नौदीप को पुलिस उठा ले गई तो ऐसे लोग भी थे जो उनके परिवार को ही कठघरे में खड़ा करते हुए कह रहे थे कि ''इनका तो परिवार ही ऐसा है, इनका तो काम ही यही है'' बात करते-करते राजवीर की सांस कुछ ऐसी बदली कि मैं समझ गई कि उनका गला भरा आया है लेकिन उन्होंने गले की हरारत को आवाज़ पर भारी नहीं पड़ने दिया और बात को पूरा करते हुए कहने लगीं कि ''मेरी मम्मी ने हमें यही सिखाया है कि सम्मान के साथ जीना है तो पीछे नहीं हटना है, ये हमारी चॉइस नहीं है कि हमें एक्टिविस्ट बनना है, लेकिन अगर आपको जीना है, और सम्मान वाली ज़िन्दगी चाहिए तो हर ग़लत बात के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा।''

शायद इसी सीख ने नौदीप को मज़दूरों की आवाज़ बनने की हिम्मत दी होगी वर्ना ग़रीब, मज़दूर और दलित तो सिर्फ़ हैशटैग में सिमट कर रह गए हैं।

#DalitLivesMatter को ट्रेंड करवाना और उन्हें अपने ही तरह का इंसान समझने में सदियों का अंतर है। महात्मा गांधी के गुजरात से योगी जी के उत्तर प्रदेश तक दलितों पर अत्याचार की ख़बर अब आम हो चली है। मैं 2017 का वो दिन नहीं भूल सकती जब ऊना के दलित लड़कों को गौकशी के शक में सरेआम बेरहमी से पीटा जा रहा था। गाय के नाम पर इंसानों के साथ हैवानियत का वीडियो टीवी स्क्रीन पर लूप बनाकर खूब खेला जा रहा था। किसी की बेबसी और लाचारी को TRP में कनवर्ट करने का जादू न्यूज़रूम के रूटीन में शामिल है। और फिर हमने एक नया शब्द सीखा 'मॉब लिंचिंग' जिसके शिकार कभी अखलाक हुए तो कभी पहलू। जैसे-जैसे लिस्ट लंबी होती गई हमने 'मॉब लिंचिंग' में मारे जाने वालों को लेकर अपनी याददाश्त के सेक्शन को सिमेट लिया और वाट्सऐप यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेकर उस क्लास में पढ़ाई शुरू कर दी जो 'मॉब लिंचिंग' के भी फ़ायदे गिनाने का हुनर रखती है।

कास्ट, रिलीजन और जेंडर के आधार पर बढ़ते अपराध और इन सबमें पुलिस-प्रशासन की भूमिका क्या होनी चाहिए लेकिन क्या है ये एक अहम सवाल है फिर वो दलित एक्टविस्ट नौदीप के मामले में हो या फिर दिशा रवि। मैंने राजवीर से पूछा ''कहीं ऐसा तो नहीं कि नौदीप को सज़ा इसलिए मिली क्योंकी एक लड़की जो दलित है और ग़लत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का दम रखते है वो अच्छी नहीं लगती'' ?  क्योंकि मौजूदा वक़्त तो हमें फ़ैज़ की इस नज़्म जैसा दिखता है-

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले 

मेरे सवाल से इत्तेफ़ाक रखते हुए राजवीर कौर ने उस सवाल में एक और बात को जोड़ दिया और कहने लगी  कि ''हां वो लड़की उस वक़्त और भी बुरी लगती है जब वो स्टेट के ख़िलाफ़ बोलती है''। उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह नौदीप से मिलने हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष पहुंची और मुलाक़ात के बाद उन्होंने मीडिया में बयान दिया कि वो नौदीप से मिली और उसका हालचाल लिया और जिस तरह की भी मदद की ज़रूरत होगी नौदीप को दी जाएगी जबकि राजवीर ने मुझे बताया कि हरियाणा महिला आयोग की उस अध्यक्ष ने नौदीप से सीधा पूछा था कि ''तुम महिला हो या फिर मज़दूर हो तो किसानों वाले प्रोटेस्ट में क्या लेने गई थी''? राजवीर आगे कहती हैं कि एक तो लोगों ने ये इमेज बना ली है कि खेती या फिर ज़मीन के मसले में महिलाएं क्यों आ रही हैं? जबकि उन्हें ये नहीं पता कि महिलाएं भी किसान हैं। वो आगे कहती हैं कि ''जब महिलाएं किसानी कर सकती हैं तो वो प्रोटेस्ट में हिस्सा क्यों नहीं ले सकती''?

आंदोलन में शामिल महिला किसान

मज़दूरों के लिए आवाज़ उठाने वाली लड़की जब किसान आंदोलन में पहुंचती है तो किसे और क्यों डर लग रहा है? हालात ये थे कि जिस आंदोलन से उसे उठाया गया था वहां भी एक अजीब ख़ामोशी थी। वो तो भला हो मीना हैरिस के उस ट्वीट का जिसकी बदौलत देश में ही नहीं विदेश तक इस लड़की के बारे में पता चला और उसकी रिहाई की लड़ाई कुछ तेज़ हुई लेकिन जब मैंने राजवीर से पूछा की क्या आपको लगता है कि अगर वो ट्वीट नहीं किया गया होता तो क्या आपकी बहन की रिहाई की राह इतनी आसान होती?

बहुत ही मायूसी के साथ उन्होंने जवाब दिया कि ''मीना हैरीस ने जब ट्वीट किया उसके बाद हमारे देश की मीडिया को पता चलता है कि किसी को फेक चार्ज के तहत अंदर किया हुआ है, ये निराशा की स्थिति है हमारे देश में जब दूसरे देश के उपराष्ट्रपति का रिश्तेदार ट्वीट करता है तब हमें चीज़ें महसूस होती हैं तो ये कोई ख़ुशी वाली बात नहीं है" वो एक सांस में अपनी बात को ख़त्म कर लेने की जल्दबाज़ी में कहती हैं कि नौदीप ने उन्हें बताया कि उनके साथ जेल में कई लड़कियां ऐसी हैं जिनके पास कोई वकील ही नहीं है, वो दिशा रवि का ज़िक्र करती हैं और बताती हैं कि शिव कुमार को 16 जनवरी को गिरफ़्तार किया गया था और 18 फ़रवरी तक उसके पास कोई वकील नहीं था, जिन्हें हिरासत या गिरफ़्तार किया गया है उनके परिवार वालों को मिलने नहीं दिया जा रहा है।

बातचीत के दौरान राजवीर ने जैसे मुझे अपनी बहन के केस की क़ानूनी पेचीदगी समझाई तो मैंने उनसे सवाल किया कि क्या ये जानकारी आपकी बहन की रिहाई तक ही है या फिर आप इतनी अच्छी जानकारी का इस्तेमाल अपनी बहन की तरह ही जेल में बंद लोगों के लिए भी इस्तेमाल करने वाली हैं? इस सवाल के जवाब में राजवीर ने कहा कि ''मैं नौदीप के लिए इसलिए नहीं लड़ रही क्योंकि वो मेरी छोटी बहन है बल्कि मैं उसका साथ इसलिए दे रही हूं क्योंकि वो सही के साथ खड़ी है और वो अपनी लड़ाई नहीं लड़ रही बल्कि वो दूसरों के हक के लिए खड़ी हुई है।''

राजवीर के मुताबिक़ उनकी बहन नौदीप या फिर मनदीप पुनिया जैसे लोगों को सोशल मीडिया की वजह से भले ही बेल मिल जाए लेकिन ये बेल ख़ुशी नहीं देती बल्कि ये सवाल खड़े करती है कि अगर ऐसे लोगों का कोई गुनाह नहीं था तो उन्हें जेल में क्यों रखा गया? वो कहती हैं बात सिर्फ़ इन जैसे लोगों की नहीं बल्कि उन तमाम लोगों की है जिन्हें बग़ैर किसी गुनाह के बस यूं ही फंसा कर जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। राजवीर आगे कहती हैं कि कहा जाता है कि डेमोक्रेसी है, सच में जनता का राज होना चाहिए लेकिन इतने किसान, आंदोलन के तहत यहां बैठे हैं लेकिन सच में अगर जनता का राज होता तो हालात ऐसे नहीं होते, देश में आंदोलनों को कुचला जा रहा है।

एक दौर था जब सरकारों के निशाने पर राजनीति से जुड़े लोग ही होते थे लेकिन आज तो राह चलता इंसान भी अगर सरकार या उसकी ग़लत नीति पर सवाल उठा दें तो अपने और अपने परिवार के लिए मुश्किल मोल ले लेता है। कुछ ऐसा ही सवाल मैंने राजवीर से पूछा कि ''क्या आपको लगता है कि ये सरकार अब राजनेताओं को नहीं बल्कि उस पीढ़ी को टारगेट कर रही है जो सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले आंदोलन का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे हैं''? राजवीर कहती हैं कि ''ये सरकार डरी हुई है वर्ना जिस देश में चुनाव लड़े जा रहे हैं, रैलियों का आयोजन किया जा रहा है वहां यूनिवर्सिटिज़ को ना खोलने का क्या मतलब है? वो आगे कहती हैं कि अगर आज देश की यूनिवर्सिटी खुली होती तो इन आंदोलनों का स्वरूप कुछ और ही होता, मैंने राजवीर कौर को बीच में ही टोकते हुए कहा कि ''ये बात तो ग़लत है कि आप लोग अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर आंदोलन में शामिल हो रहे हैं मां-बाप आप लोगों को स्कूल-कॉलेज पढ़ने के लिए भेजते हैं, आप पढ़ाई करो ना ये आंदोलन में क्यों शामिल हो रहे हो''? तो इस बात को वो कुछ यूं समझाती हैं कि ''मान लीजिए अगर कोई एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रहा है और रिसर्च कर रहा है कि कैसे खेती के माध्यम से किसानों को फ़ायदा पहुंचाया जा सके और देश को आगे बढ़ाया जाए तो इस वक़्त उसे कहां होना चाहिए आंदोलन में या फिर लाइब्रेरी में? वो कहती हैं कि एजुकेशन का तो मतलब ही ये होना चाहिए की वो सोसाइटी का मार्गदर्शन करते हुए उसे आगे लेकर जाए, अगर डॉक्टर लोगों की सेवा नहीं करता, शिक्षक समाज को बेहतर बनाने में योगदान नहीं देता तो पूरे एजुकेशन सिस्टम को बदलने का वक़्त आ गया है। 

गोदी मीडिया देखते हुए भले ही हम और आप ये कह सकते हैं कि ये बच्चे बिगड़ गए हैं। पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में वक़्त बर्बाद कर रहे हैं लेकिन यक़ीन मानिए ये Millennial आपके और हमारे वक़्त से कहीं आगे की सोचते हैं। क्योंकि हम और आप शायद कई बार अपने लिए भी आवाज़ नहीं उठा पाते लेकिन ये लोग सीना ठोककर कहते हैं कि- ''अगर किसानों के हक़ में आवाज़ उठाना देशद्रोह है तो हम जेल में ही ठीक हैं।''

(नाज़मा ख़ान एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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