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'जेएनयू में जो हो रहा है वह भारत को सदियों पीछे ले जाने के 'मनुवादी प्रोजेक्ट' का हिस्सा है!'

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सैकड़ों छात्रों ने फीस वृद्धि और ड्रेस कोड के विरोध में सोमवार को विरोध प्रदर्शन किया। इसके बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जेएनयू के कई पूर्व छात्रों ने अपनी राय रखी।
JNU Protest

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सैकड़ों छात्रों ने फीस वृद्धि और ड्रेस कोड के विरोध में सोमवार को विरोध प्रदर्शन किया। छात्रों ने बताया कि यह प्रदर्शन छात्रावास के मैनुअल के विरोध के अलावा पार्थसारथी रॉक्स में प्रवेश पर प्रशासन की पाबंदी तथा छात्र संघ के कार्यालय को बंद करने के प्रयास के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों का ही हिस्सा है। इसके बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जेएनयू के कई पूर्व छात्रों ने अपनी राय रखी।

जेएनयू के पूर्व छात्र और वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक पर लिखा है कि अपने देस-समाज में सब लोग पहले कहां पढ़ते-लिखते थे! पढ़ने-लिखने की उन्हें न इजाजत थी और न हैसियत! सिर्फ राजे-महराजे, बड़े जमींदार, द्विज और अन्य कुलीन परिवार के लोग ही पढ़ने जाते थे! अपने मौजूदा हिन्दुत्ववादी शासक जिस प्राचीन भारत पर बहुत गर्व करते हैं, उसका बड़ा हिस्सा ऐसा ही था! शिक्षा का अधिकार सीमित था।

मध्य काल में भी वह सिलसिला काफ़ी हद तक जारी रहा! ब्रिटिश काल में सिलसिला टूटता नजर आया और आजादी के बाद शिक्षा का यह क्षेत्र चंद लोगों के एकाधिकार से मुक्त हुआ! अवर्ण, गैर-कुलीन और सबाल्टर्न हिस्सों से पढ़ने वालों की संख्या हर साल बढ़ती गई! आजादी के बाद के शासकीय प्रयासों के अलावा ज्योति बा फुले, पेरियार और डॉ आंबेडकर की शिक्षाओं और आह्वानों का भी जबरदस्त असर पड़ा!!

इससे मनुवादी और हिन्दुत्ववादी मान-मूल्यों को गंभीर चुनौती मिलने लगी! समाज में समता, सुसंगत लोकतंत्र और सौहार्द्र की आवाजें उठने लगीं! शिक्षा ने सदियों से दबे-कुचले लोगों की दुनिया ही बदल दी! वे अपनी दुनिया को और अच्छी बनाने के लिए आगे बढ़ने लगे! यह बात 'कुछ खास लोगों' को भला कैसे अच्छी लगती?
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अपने मुल्क में आज ऐसे ही 'खास लोगों' के पास सत्ता है, जो भारत को पुराने जमाने वाला 'हिन्दुस्थान' बनाना चाहते हैं, जहां पढ़ना-लिखना, खासकर उच्च शिक्षा 'कुछ ही लोगों' तक सीमित रहे! जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में इस वक्त जो कुछ हो रहा है, वह भारत को 'हिन्दुस्थान' बनाकर सदियों पीछे ले जाने के 'मनुवादी प्रोजेक्ट' का हिस्सा है! आगे बहुत कुछ होना बाक़ी है!

कुछ ऐसा ही बीबीसी हिंदी सहित देश के कई मीडिया घरानों में पत्रकार रह चुके जे सुशील ने भी फेसबुक पर लिखा है। उन्होंने लिखा चूंकि मन दुखी है इसलिए लिख रहा हूं। ये कोई नहीं लिखेगा इसलिए लिख रहा हूं।

जेएनयू में जब हम लोग आए तो हॉस्टल की समस्या थी। हम जैसे कई लोगों के पास बाहर रहने को पैसे नहीं थे। वहां एक बिल्डिंग थी जहां बस पास बनता था. छात्र यूनियन ने प्रशासन से बात की और उस बिल्डिंग के बड़े वाले कमरे में दस बिस्तर लगा दिए गए एकदम डॉरमेट्री टाइप। एक टॉयलेट था।

उसमें हम दस लोग रहते थे। एक लड़का था जिसके पिताजी उसको ठीक पैसे भेजते थे। बाकी सभी लोग मेस के खाने के अलावा बाहर चाय पीने के लिए भी पैसों का हिसाब रखते थे। मेरी हालत तो जो थी वो थी ही।

मैं सुबह नाश्ते में पेट भर लेता और लंच में भी। शाम की चाय दोस्तों से पीता था। हम लोग सेना में नहीं थे कि दिन भर मेहनत करें और रात में सो जाएं। रात में दस लोग अपने अपने बिस्तर पर बैठ कर पढ़ते थे। कुछ लोग लाइब्रेरी चले जाते थे....

लाइट जला कर पढ़ नहीं सकते थे। कुछ लोग सोना चाहते थे। कुल जमा किसी के पिताजी टीचर थे। किसी के किसान। मेरे पिताजी मजदूर। किसी के पिताजी पुलिस में कांस्टेबल थे।

मोटा मोटा यही था सबका बैकग्राऊंड। ये एक सैंपल है अपना देखा हुआ। कौन छात्र दस लोगों के साथ एक कमरे में रहना चाहता है जहां एक बिस्तर पर जीवन हो। कैसे पढ सकता है लेकिन हम जानते थे कि हमारे पास दूसरा और कोई विकल्प नहीं है। हम बाहर नहीं रह सकते थे। मुनिरका में किराया कम से कम दो हज़ार था एक कमरे का औऱ दो से अधिक लोग नहीं रह सकते थे....समझिए कि ये दस बच्चों में से कोई ये अफोर्ड नहीं कर सकता था।
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मोटा मोटी यही हाल था जेएनयू का। हम में से कई लोग ऐसे थे जिनके घरों में जेएनयू के मेस जितना पौष्टिक खाना नहीं मिलता था।  हमने ऐसे पढ़ाई की है और इसलिए हम जेएनयू से प्यार करते हैं।

जो लोग आज जेएनयू को गरिया रहे हैं वो जान लें कि आप अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं। आप अपने बच्चों को एक ऐसे कुचक्र की तरफ धकेल रहे हैं जिससे आप उन्हें कभी नहीं निकाल पाएंगे...थोड़ी टेढ़ी बात है...इसलिए धीरे धीरे पढ़िए और समझिए।

हो क्या रहा है। हो ये रहा है कि सरकार शिक्षा से अपने हाथ खींच रही है और कह रही है कि जो पैसा देगा वो पढ़ेगा। ये एक किस्म का अमरीकी मॉडल है। लेकिन क्या अमरीकी मॉडल भारत में कामयाब होगा। उस पर बाद में बात करेंगे।  

पहले ये जानिए कि भारत में पिछले आठ साल में अमरीकी मॉडल से तीन चार विश्वविद्यालय खुले हैं। अशोका यूनिवर्सिटी, जिंदल यूनिवर्सिटी और ग्रेटर नोएडा में शिव नादर।

ये मत पूछिए कि ये लोग कौन हैं। ये सब उद्योगपति हैं जिनके लिए शिक्षा पैसे कमाने का ज़रिया है। क्या शिक्षा को पैसे कमाने का ज़रिए होना चाहिए ये एक अलग नैतिक बहस है।  

अब इन तीनों यूनिवर्सिटियों में ग्रैजुएशन की फीस देखिए। मोटा मोटा आपको बताता हूं कि यहां चार साल का ग्रैजुएशन है जहां हर साल की फीस चार लाख रुपये हैं। जी हां चार लाख एक साल में यानी कि कुल सोलह लाख रुपये।

इसके बाद गारंटी नहीं है कि आपको कोई नौकरी मिलेगी या नहीं लेकिन लोग कर रहे हैं। करने के बाद क्या हो रहा है। किसी छोटी मोटी नौकरी में हैं या जिनके पास पैसा है वो विदेश जा रहे हैं।

धीरे धीरे यही मॉडल हर यूनिवर्सिटी में लागू हो जाएगा। समझिए दस से बीस साल मैक्सिमम। तब सोचिए कि आपके जो बच्चे आज छोटे हैं वो कैसे ग्रैजुएशन कर पाएंगे।

वो लोन लेंगे और पढ़ाई करेंगे। पढ़ते ही किसी जगह नौकरी करने में लग जाएंगे ताकि लोन चुकाते रहें। ये लोन चुकने में कई साल लगते हैं. यही अमरीकी मॉडल है। और इसे ही भारत में लागू किया जा रहा है।  

फैसला आपका है।  क्या करना है आप देखिए।

मनमोहन सिंह के समय ढेर सारी केंद्रीय यूनिवर्सिटियां खुली थीं...ताकि ज्यादा से ज्यादा युवाओं को बेहतर शिक्षा मिले। अब सबको बैकडोर से प्राइवेटाइज़ किया जा रहा है।

आप पर है जो चुनना है चुनिए। क्योंकि ये आपके भविष्य का नहीं। आपके बच्चों के भविष्य का सवाल है। चलते चलते बता दूं कि अमरीका में प्राइमरी से लेकर बारहवीं तक की शिक्षा मुफ्त है। अच्छी क्वालिटी की। ग्रैजुएशन में फीस लगती है करीब एक लाख डॉलर प्लस रहना खाना अलग।

पीएचडी में आराम है। फीस नहीं लगती अच्छी यूनिवर्सिटी में और स्कालरशिप मिलती है लेकिन सीटें बहुत कम। यहां कमेंट करने से अच्छा है सोचिए खुद कि हो क्या रहा है शिक्षा के क्षेत्र में भारत में।

इसी तरह जेएनयू के पूर्व छात्र तारा शंकर लिखते हैं कि एक यूनिवर्सिटी का वार्षिक बजट ही कितना होता है! सरकार सिर्फ़ अपने फ़ालतू के प्रचार बंद कर दे पूरे देश की सभी यूनिवर्सिटी का खर्च निकल आये! सरकार द्वारा फण्ड नहीं होने का लॉजिक जितना बेतुका है, उससे कहीं ज़्यादा बेतुके वो लोग हैं जिन्हें सस्ती शिक्षा पर टैक्सपेयर की गाढ़ी कमाई याद आती है।
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क्या आपको मालूम है कि यूजीसी जो देश की सभी यूनिवर्सिटी को ग्रांट देती है, उसके ख़र्च के लिये केंद्र सरकार ने कुल कितना वार्षिक बजट दिया इस साल? मात्र 4600 करोड़! वो भी पिछले साल से घटा दिया! क्या आप जानते हैं कि सरकार ने पिछले 5 साल में कितने करोड़ सिर्फ़ विज्ञापन पर ख़र्च किये? 5700 करोड़।

और हर साल कॉरपोरेट के सवा लाख करोड़ के लोन माफ़ अलग से! इसलिए सस्ती शिक्षा की बात करते ही फण्ड का रोना रोने वाले और टैक्स पेयर की गाढ़ी कमाई पर आँसू बहाने वाली सरकार और उसके भक्तों पर तरस आता है।

जेएएनयू के हिंदी विभाग के शोधार्थी अजय कुमार यादव ने फेसबुक पर लिखा है कि जेएनयू में बेहिसाब फीस वृद्धि के खिलाफ चल रही लड़ाई प्लासी युद्ध (Battle of plassey) के समान है। अगर ये लड़ाई हारे तो जेएनयू पर कम्पनी राज का कब्जा हो जाएगा। तब यहां गरीब छात्रों से मनमानी लगान और फीस वसूली जाएगी।

यहां के हास्टलों में स्वतंत्रता छीनने वाला रौलट एक्ट लगेगा। ड्रेस कोड के नाम पर विक्टोरियन मोरलिटी को बढ़ावा दिया जाएगा। अंग्रेज तो कम से कम गोलमेज सम्मेलन में बात करने के लिए भारतीयों को आमन्त्रित भी करते थे, लेकिन जेएनयू के वीसी पंद्रह दिनों के विरोध प्रदर्शन के बावजूद छात्रों से मिलने के तैयार नहीं हो रहे। इसलिए छात्रों के पास करो या मरो के अलावा कुछ नहीं बचता।

इसी तरह स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने ट्विटर पर लिखा है, 'साल 1981 से 83 के बीच मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस वजह से पढ़ सका क्योंकि इस समय 250 रुपए प्रति महीने वजीफा मिलता था। इसमें यूनिवर्सिटी फी, मेस फी, हॉस्टल फी सब शामिल था। अगर इतने पैसे की सरकारी मदद नहीं मिलती तो हम जैसों को पढाई पूरी करने में बहुत सारी परेशानियां आती।'

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