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जयपाल सिंह मुंडा: आदिवासी समाज की राजनीति और विचारधारा की प्राणवायु

मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे जन-बुद्धिजीवी और राष्ट्रीय राजनेता हैं जिन्होंने भारतीय और आदिवासी अस्मिता, हक-हुकूक पर अंग्रेजों के साथ-साथ गैर-आदिवासियों के हमलों से बचाने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से लेकर संविधान सभा तक और झारखण्ड के जंगलों से लेकर लोकसभा तक संघर्ष किया और उसकी रक्षा की।
Jaipal Singh Munda

"मैं सिन्धु घाटी सभ्यता का वंशज हूँ, उसका इतिहास बताता हैं कि आप में से अधिकांश लोग, जो यहाँ बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिये हैं जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी जमीन छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा। इसीलिए यहाँ जो संकल्प प्रस्ताव पेश किया गया हैं वह आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखाने जा रहा हैं। आप सभी आदिवासियों को लोकतंत्र सिखा नहीं सकते हैं बल्कि आपको ही उनसे लोकतंत्र सीखना हैं। आदिवासी इस दुनिया के सबसे लोकतान्त्रिक लोग हैं... आर्यों की फ़ौज लोकतंत्र को ख़त्म करने पर तुली है।" मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा (संविधान सभा, 19 दिसंबर 1946)

दुनिया जब सत्ता, संसाधनों और दूसरे ग्रहों पर कब्जे की दौड़ में शामिल हैं ऐसे में आदिवासी समाज आज भी प्राकृतिक अधिकारों और संसाधनों की रक्षा के दायित्व से मुकरा नहीं हैं। पर्यावरण, भाषा, कला, साहित्य, संगीत, जमीन, नदी, पहाड़, झरना, इतिहास, सामाजिक समरसता, बंधुत्व, सामूहिकता, पुरखों की विरासत और इंसानी पहचान के स्तर पर उन्होंने उसे बचाने के लिए मोर्चा खोला हुआ है। अपनी जान दे कर भी उसकी रक्षा के लिए लड़ रहा है।  

मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे जन-बुद्धिजीवी और राष्ट्रीय राजनेता हैं जिन्होंने भारतीय और आदिवासी अस्मिता, हक-हुकूक पर अंग्रेजो के साथ-साथ गैर-आदिवासियों के हमलों से बचाने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से लेकर संविधान सभा तक, झारखण्ड के जंगलों से लेकर लोकसभा तक संघर्ष किया और उसकी रक्षा की। लिहाजा वर्तमान में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी समाज की राजनीति और विचारधारा की प्राणवायु हैं।

वर्तमान में झारखंड के खूँटी जिले के टकरा पाहन टोली में 3 जनवरी 1903 को आदिवासी अमरु पाहन और राधामुनी के घर जन्मे "प्रमोद पाहन" सेंट पाल स्कूल में पढ़ाई के बाद 1918 में स्कूल प्रिंसिपल "केनन कासग्रेव" के साथ इंग्लेंड चले गये और सेंट जॉन कॉलेज, ऑक्सफ़ोर्ड से मेट्रिक और फिर अर्थशास्त्र में अपनी एमए की डिग्री पूरी की। स्कूल में नाम दर्ज होने के साथ ही प्रमोद पाहन "जयपाल सिंह" बन गये। ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में जयपाल सिंह सिर्फ विद्यार्थी ही नही थे बल्कि इसके आलावा एशियन, कलर्ड और झारखंड के आदिवासी भी थे।

इसी समय आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेज) की परीक्षा में साक्षात्कार में सर्वोत्तम अंको के साथ पास की लेकिन 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में आयोजित हॉकी ओलंपिक्स खेलों में भारतीय टीम की कप्तानी के चलते आईसीएस की ट्रेनिंग नहीं कर सके और आईसीएस की नौकरी की जगह अपने देश के लिए खेलने को वरीयता दी और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और अपने देश की कप्तानी की और स्वर्ण पदक दिलाया।

अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा और गुंडाधुर के नेतृत्व में हुए आन्दोलन के बाद आदिवासियों के मध्य बढ़ते असंतोष और बिरसायत के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1908 में छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित किया।

आजादी के समय भारतीय राजनीति के केंद्र में मुख्यतया दो बातें थीं- धर्म और सत्ता संसाधनों हिस्सेदारी का सवाल। गांधी-नेहरु, मोहम्मद अली जिन्ना और डॉ. आंबेडकर अपने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे थे। ऐसे में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी समाज के हक–हुकुक के लिए सविधान सभा की बैठकों से लेकर आदिवासियों के मध्य बैठको तक संघर्ष कर रहे थे। 

अंग्रेजों की कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार 1946 में संविधान सभा की 389 में से 296 सीटों पर एक लाख की जनसंख्या के अनुपात में मुस्लिम, सिख और साधारण प्रतिनिधि चयनित हुए। इनमें 208 कांग्रेस, 73 मुस्लिम लीग और 15 अन्य दलों- निर्दलीय शामिल थे। लेकिन सभा में आदिवासी, दलित और पिछड़ों की संख्या कुल मिलकर कर 33 थी और महिला प्रतिनिधि 12 थीं। इनके मामलों में जनसंख्या के अनुपात को नजरंदाज किया गया। संविधान सभा में कुल 7 आदिवासी- आदिवासी महासभा से जयपाल सिंह मुंडा, बोनिफास लकड़ा को चुना गया। कांग्रेस के बैनर तले चाईबासा से देवेन्द्र नाथ सामंत चुने गये। रेव जे जे एम निकोलस रॉय, रूप नाथ ब्रम्हा (असम) कांग्रेस के टिकट पर उत्तर पूर्व से, फूलभान शाह छत्तीसगढ़, माँयंग नोकचा नागालेंड सदस्य चुने गये जबकि जनसंख्या के अनुपात से इनकी संख्या 30 होनी चाहिए थी।

संविधान सभा के सदस्य के रूप में अपने पहले ही भाषण में स्पष्ट किया कि "मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए यहाँ खड़ा हुआ हूँ जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकबर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, किरिमिनल ट्राइब्स और न जाने क्या-क्या कहा जाता हैं पर मुझे अपने जंगली (आदिवासी) होने पर गर्व हैं...। आदिवासी भारत की आज़ादी की लड़ाई में हिरावल दस्ता रहे हैं"- जयपाल सिंह (19 दिसंबर 1946)

संविधान सभा की बैठक में जवाहर लाल नेहरु की ओर से पेश उद्देश्य प्रस्ताव का समर्थन करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा- "एक जंगली और एक आदिवासी होने के नाते संकल्प की जटिलताओं में हमारी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं हैं लेकिन हमारे समुदाय का कॉमन सेन्स कहता हैं कि हर किसी ने आजादी के लिए संघर्ष की राह पर एक-साथ मार्च किया हैं मैं सभा को कहना चाहूँगा की अगर कोई इस देश में सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ हैं तो वो हमारे (आदिवासी) लोग हैं पिछले हजार सालों से उपेक्षा हुई हैं और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार हुआ है।”

जयपाल सिंह मुंडा को प्रांतीय संविधान समिति की एक उप-समिति "असम को छोड़कर पूर्णत वर्जित और आंशिक वर्जित जनजातीय क्षेत्र" (ए वी ठक्कर अध्यक्ष) का सदस्य बनाया गया। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में आदिवासी शब्द की जगह अनुसूचित जनजाति शब्द के प्रयोग की वकालात की। जिसका जयपाल सिंह मुंडा ने तीव्र विरोध किया क्योंकि मरांग गोमके "आदिवासी" के अतिरिक्त किसी भी दूसरे शब्द के इस्तेमाल किये जाने के खिलाफ थे।

लोकतंत्र पर अपना मत प्रकट करते हुए जयपाल सिंह (संविधान सभा 24 अगस्त 1949)" क्या भारत के गैर आदिवासी समाज जो शताब्दियों से वर्ण व्यवस्था के अधीन रहे हैं ईमानदारी से कह सकते हैं की उनका दृष्टिकोण लोकतंत्रात्मक था? इस प्रकार के दृष्टिकोण को विकसित होने में  समय लगता हैं। आदिवासी समाज में सब सामान हैं चाहे धनी हो या निर्धन"।

संविधान सभा में मौलिक अधिकारों पर चर्चा के दौरान आदिवासियों के जमीन पर अधिकार को मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 13) में शामिल किये जाने की मांग (30 अप्रैल 1948) को मजबूती से उठाया गया ताकि भविष्य में आदिवासियों की बेदखली और शोषण को रोका जा सके।

"...वे (आदिवासी) भारत की प्रतिष्ट और शक्ति को किसी प्रकार से कम न होने देंगे। देश के विभाजन के लिए वे उत्तरदायी नही हैं उनका अधिकार सारे देश पर हैं... इस देश के हित को और उज्ज्वल भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं की भारत का प्रत्येक वर्ग सहयोग-परिश्रम करे। इसके लिए आवश्यक है पिछड़े वर्ग समुन्नत हों। पिछड़े हुए लोगों को स्थानों का रक्षण (आरक्षण) बहुत आवश्यक है चाहे वे आदिवासी हो या अनुसूचित जाति, जैन हो या मुसलमान। यदि आप स्वीकार करते हैं कि उन्हें (पिछड़ों) ऊँचा उठाने के लिए कुछ प्रयास करने की और पलड़े को एक और झुकाने की आवश्यकता हैं तो अलगाव का सवाल ही नहीं उठता। इसीलिए आदिवासियों की तरफ से रक्षण (आरक्षण) के सिद्धांत को स्वीकार करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता। मुझे खेद हैं की यह केवल 10 वर्षो के लिए हैं क्योंकि मुझे विश्वास हैं की इस दौरान भारत जन्नत नहीं बन जायेगा, न इतने कम वक्त में पढ़ जायेगा और न राजनैतिक तौर पर सचेत हो पायेगा। जरूरत इस बात की हैं की पिछड़ों को अपने पैरो पर खड़ा होने दिया जाए ताकि राष्ट्र निर्माण में समुचित योगदान दे सके... पिछड़े वर्ग की आर्थिक स्थिति सुधारने की जरूरत हैं। इसके बाद अपनी शिक्षा का खुद इंतजाम कर लेंगे"- (संविधान सभा 24 अगस्त 1949)

राजनीति में जयपाल :-

जयपाल सिंह मुंडा ने 20 जनवरी 1939 को राँची में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा की बैठक में महासभा की सदस्यता ग्रहण की और अध्यक्ष बनाए गये। जयपाल सिंह मुंडा की अध्यक्षता में मई 1939 में जिला परिषद के चुनावों में आदिवासी महासभा ने रांची की 16/25 और सिंहभूम की 22/25 सीटो पर शानदार जीत दर्ज की। अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के बढ़ते प्रभाव को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने 1940 में अपना वार्षिक अधिवेशन "रामगढ़" में आयोजित किया। इसी समय  आदिवासी महासभा ने रामगढ़ में ही कांग्रेस से बड़ी एक सभा का आयोजन किया जिसे कांग्रेस से नाराज सुभाष चन्द्र बोस और जयपाल सिंह मुंडा ने संबोधित किया। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय आदिवासी महासभा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सभाए आयोजित कीं, परिणाम स्वरूप आदिवासी महासभा के नेताओं को जेल भेज दिया गया।

जयपाल सिंह मुंडा और आदिवासी महासभा के संयुक्त प्रयास को कुचलने के लिए कांग्रेस ने दो ब्राह्मणों- राजेंद्र प्रसाद (अध्यक्ष) और अमृत लाला विट्ठलदास ठक्कर बापा (उपाध्यक्ष) के नेतृत्व में "आदिम जाति सेवक मंडल" का गठन 8 जून 1946 को किया ताकि आदिवासियों के मध्य कांग्रेस की पकड़ बनाई जा सके। कांग्रेस से अलग हो कर ठेकाले उरांव ने "सनातन आदिवासी महासभा" का गठन किया। दोनों संस्थानों ने आदिवासियों के ब्राह्मणीकरण को अपना लक्ष्य बनाया।

वहीं जयपाल सिंह मुंडा ने दूसरी तरफ 1948 में आदिवासी लेबर फेडरेशन की स्थापना और 1 जनवरी 1950 को अखिल भारतीय आदिवासी महासभा को "झारखण्ड पार्टी" में परिवर्तित कर दिया। झारखंड पार्टी ने 1952 के आम चुनावों में 32 विधायक, 4 संसद, 1957 में 34 विधायक, 5 सांसद, 1962 में 22 विधायक और 5 सांसद चुने गए। तीसरे आम चुनावो के बाद 1963 को झारखंड पार्टी का इस शर्त- "झारखंड राज्य का कांग्रेस गठन करेगी" पर विलय कर दिया गया।

जयपाल सिंह मुंडा को बिहार का उपमुख्यमंत्री, पंचायत एव सामुदायिक विकास मंत्री बनाया गया लेकिन मतभेदों के चलते मात्र एक महीने बाद ही को इस्तीफा दे दिया। 1967 में एक बार फिर संसद सदस्य चुने गये।

"कांग्रेस ने धोखा दिया और झारखण्ड पार्टी का विलय सबसे बड़ी भूल थी मैं झारखंड पार्टी में लौटूंगा और अलग झारखंड राज्य के लिए आन्दोलन चलाऊंगा" लेकिन इस वक्तव्य के एक हफ्ते बाद जयपाल सिंह मुंडा 20 मार्च 1970 को दिल्ली स्थित आवास पर संदिग्ध अवस्था में मृत पाए गए।  

(लेखक श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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