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जनपक्ष: दिल्ली की क्या बात करें, अभी तो मुज़फ़्फ़रनगर का इंसाफ़ बाक़ी है!

नफ़रत के इस दौर में प्रेम-भाईचारे की कहानियां दिलासा तो देती हैं, लेकिन असल में शांति स्थापित करने के लिए ज़रूरी है इंसाफ़।
Muzaffarnagar riots
फाइल फोटो, साभार : economic times

हम सब शांति के पक्षधर हैं। लेकिन कैसे होगी शांति?

नफ़रत के इस दौर में प्रेम-भाईचारे की कहानियां दिलासा तो देती हैं, लेकिन असल में शांति स्थापित करने के लिए ज़रूरी है इंसाफ़।

इंसाफ़ के बिना शांति का कोई मतलब नहीं होता। और इंसाफ़ के लिए ज़रूरी है जल्द से जल्द दोषियों को उनके किए की सज़ा दिलाना।

तो क्या दिल्ली में बेमौत मार दिए गए और उजाड़ दिए गए लोगों को इंसाफ़ मिलेगा? दावे तो बहुत किए जाते हैं लेकिन ये विडंबना ही है कि अभी पहले हुई हिंसा या दंगे में इंसाफ़ मिल नहीं पाता और दूसरा हमला या नरसंहार हो जाता है। यही हो रहा है साल-दर-साल। सन् 1984 के नरसंहार से लेकर 1992 बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक। गुजरात 2002 से लेकर अब दिल्ली 2020 तक। मॉबलिंचिंग अलग से जोड़ लीजिए।

इंसाफ़ को जांचने के लिए अगर मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों को ही कसौटी पर रखें तो काफ़ी कुछ समझ में आ सकता है।

उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में अगस्त, 2013 में भयंकर दंगें हुए। दिल्ली की तरह इसे भी सुनियोजित हमला कहा जाए तो ग़लत न होगा। इस हिंसा में कुल 62 लोग मारे गए और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए। करोड़ों की संपत्ति स्वाह हुई और 40 हजार से ज़्यादा लोग बेघर हुए। जो आज तक भी ठीक से दोबारा न बस पाए हैं।

उस दौरान यूपी में समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए की मनमोहन सरकार।

इस हिंसा में भी फर्जी वीडियो, झूठी ख़बरों, ग़लत धारणाओं और नेताओें के उकसावे का ही रोल रहा। उस दौरान भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे।

जैसे दिल्ली में अभी जाफराबाद के लोगों का सीएए के विरोध में सड़क पर आने को हिंसा की वजह बताया गया, वैसे ही मुज़फ़्फ़रनगर जिले के जानसठ कोतवाली क्षेत्र के कवाल गांव में दो ममेरे भाइयों की हत्या को इसकी वजह बताया गया। कहा जाता है कि एक छेड़खानी की घटना के बाद दो ममेरे भाइयों गौरव और सचिन की हत्या के बाद जाट और मुस्लिमों के बीच ये दंगा भड़का। इसी के साथ ये भी कहा गया कि बाइक और साइकिल की टक्कर के बाद हुए झगड़े को बड़ा रूप दे दिया गया। बहरहाल इस मामले में गौरव और सचिन के साथ एक मुस्लिम युवक शाहनवाज़ की भी मौत हुई थी।

इसके बाद इस मामले में राजनीति शुरू हो गई। दोनों पक्षों ने अपनी अपनी महापंचायत बुलाई, जिसके बाद बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू हो गई। दंगे के दौरान यहां सेना बुला ली गई थी और करीब 20 दिनों तक कर्फ्यू रहा था।

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि घटना के बाद मृतक गौरव के पिता रविंद्र सिंह की ओर से मारे गए शाहनवाज समेत जानसठ कोतवाली में कवाल के मुजस्सिम, मुजम्मिल, फुरकान, जहांगीर, नदीम, अफजाल व इकबाल यानी कुल आठ लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कराया था।

मृत शाहनवाज के पिता सलीम ने भी मृतक सचिन और गौरव के अलावा पांच परिजनों के खिलाफ जानसठ कोतवाली में एफआईआर दर्ज कराई थी। लेकिन एसआईसी (स्पेशल इन्वेस्टिगेशन) सेल जांच के बाद शाहनवाज हत्याकांड में एफआर लगा दी गई थी। जबकि गौरव और सचिन की हत्या में पिछले साल फरवरी, 2019 में स्थानीय अदालत ने सभी सातों जीवित अभियुक्तों को उम्र कैद की सज़ा सुना दी थी।

लेकिन अन्य 62 हत्याओं का क्या? इसमें हिन्दू (20) और मुसलमान (42) दोनों शामिल हैं। उस दौरान बलात्कार की पीड़िताओं का क्या? बेघर हुए 40 हज़ार लोगों का क्या? जिनमें लगभग सभी मुसलमान हैं। इन सबको अभी भी इंसाफ़ का इंतज़ार है।

Muzaffarnagar riots

2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद विस्थापित लोगों का शिविर। (फाइल फोटो, साभार : रॉयटर्स)

जुलाई, 2019 में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के 20 और मामलों को वापस लेने की अनुमति दी। इसके साथ मुज़फ़्फ़रनगर दंगे मामले में कुल वापस लिए गए मामलों की संख्या 74 हो गई। सरकार द्वारा जिन मामलों को वापस लेने की अनुमति दी गई है, वे पुलिस व जनता की तरफ से दर्ज किए गए थे।

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की योगी सरकार 2017 में बनी और 2018 से मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के मामलों को वापस लेने की प्रक्रिया में है। 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले 8 मार्च तक सात आदेशों में 48 मामलों को वापस लेने की अनुमति दी गई।

हालांकि 74 मामलों को बंद करने की उत्तर प्रदेश सरकार की मांग के बावजूद उसे अदालत से मामले को वापस लेने की अनुमति नहीं मिली।

इसे पढ़ें मुजफ्फरनगर दंगा और कुछ गंभीर सवाल

2019 में ही इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने मुज़फ़्फ़रनगर हिंसा मामले में बड़ा खुलासा किया था। अख़बार ने बताया कि 41 में से 40 मामलों में आरोपी बरी हो गए। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में पुलिस ने अहम गवाहों के बयान दर्ज नहीं किए और हत्या में इस्तेमाल हथियारों को कोर्ट में पेश नहीं किया।

तो यह है हक़ीक़त मुज़फ़्फ़रनगर हिंसा और उसमें हुए न्याय की।

इतना ही नहीं इस दंगे के मुख्य आरोपी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता संगीत सोम न सिर्फ सरधना से 2017 में फिर विधायक बने बल्कि उनके खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस लेने की कवायद चल रही है। संगीत सोम पर मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के दौरान आधा दर्जन से अधिक मुकदमें दर्ज किए गए थे। केंद्र सरकार ने उन्हें पहले जेड और बाद में वाई श्रेणी की सुरक्षा दी। उन्हें विभिन्न हिन्दुत्ववादी संगठनों की ओर से 'हिन्दू हृदय सम्राट', 'महाठाकुर' और 'संघर्षवीर' जैसी उपाधियां दी गईं।

दूसरे आरोपी थाना भवन से विधायक सुरेश राणा को योगी सरकार में पिछले दिनों प्रमोशन देकर कैबिनेट मंत्री बनाया गया है।

इसी मामले के एक और आरोपी संजीव बालयान 2014 में मुज़फ़्फ़रनगर से सांसद बनकर केंद्र में मंत्री रहे। और 2019 के चुनाव में भी जीतकर मंत्री बने।

इसे पढ़ें मुज़फ़्फ़रनगर दंगेकेंद्रीय मंत्री संजीव बालयान अदालत में पेश हुए

इन सबका रुतबा और दबदबा घटने की बजाय बढ़ता ही चला गया। यानी दंगे के आरोपों ने इनका कोई नुकसान नहीं किया, अलबत्ता ये और मजबूत होते गए और केंद्र और राज्य सरकार ने इन्हें इनाम से नवाजा।

यही सब गुजरात-2002 में हुआ और दिल्ली में भी यही कहानी दोहराई जा रही है। नफ़रत फैलाने और हत्या के लिए उकसाने के आरोपी चाहे वो चुनाव के दौरान खुद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह हों या अनुराग ठाकुर। या फिर सांसद प्रवेश वर्मा हों या विधायक पद के प्रत्याशी कपिल मिश्रा। सभी अपनी जगह बने हुए हैं। कपिल मिश्रा को बाकायदा इनाम के तौर पर वाई प्लस (Y+) कैटेगरी की सुरक्षा भी मिल गई।

इतने बड़ी हिंसा के लिए यहां पुलिस और गोदी मीडिया की नज़र में सिर्फ़ दो ही आरोपी हैं, शाहरुख और ताहिर हुसैन। दोनों की ही गिरफ़्तार कर लिया गया है।

अब कोई कैसे यक़ीन करे कि दिल्ली हिंसा में जल्द या कभी न्याय हो पाएगा। जो लोग उजड़ गए वे कैसे और कब बस पाएंगे। यही वजह है कि नफ़रत की आंधी में भी एक-दूसरे पनाह देने और जान बचाने की कहानियां इंसानियत में भरोसा तो जगाती हैं, लेकिन इंसाफ़ के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है।

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