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जनता कर्फ़्यू - ‘चेतना का अपहरण’ की बरसी

22 मार्च- यह एक विनम्र अपील का राजाज्ञा में तब्दील होने का दिन भी था। जनता का उस भीड़ में तब्दील होने का दिन जिसने खुद को अपने ऊपर यह तोहमतें लेने के लिए तैयार कर लिया था कि कोरोना फैलने के लिए वह और केवल वह ही जिम्मेदार होगी।
Janta Curfew
तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार: भास्कर

बीते साल आज ही के दिन देश की 130 करोड़ से ज़्यादा आबादी ने कोरोना के खिलाफ एक राष्ट्रीय अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। 22 मार्च को एक अपील पर खुद के ऊपर कर्फ़्यू थोप लिया गया जिसे लोकप्रिय शब्दावली देश के प्रधानमंत्री ने ‘जनता कर्फ़्यू’ कहा।

इस परिघटना से अगर सामूहिक विवेक का प्रदर्शन हुआ तो यह उपलब्धि रही लेकिन इसे जनता कर्फ़्यू कहा ही इसलिए गया था ताकि कोई प्रधानमंत्री की अपील का पालन न भी करे तो इससे उन्हें यह छूट मिल जाये कि ‘यह, तो जी जनता का कर्फ़्यू था, जो उसने उसने खुद अपने ऊपर लगाया था।’ जनता स्वतंत्र थी कि वो इसका पालन न भी करती। यह स्वैच्छिक था जैसे आधार कार्ड बनवाना आज भी स्वैच्छिक है भले ही उसके बिना आप बतौर नागरिक निराधार हो जाएँ।

उत्सव की भांति मनाए गए इस दिन पर जनता को खुद अपने ऊपर अनुशासन थोपना था। मान लीजिये जनता के एक हिस्से ने इसे नहीं भी माना तो इससे प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आती। लेकिन यदि जनता ने उनके कहे पर कान दे दिये और उनकी अपील को शिरोधार्य कर लिया और यह अभियान सफल हो गया तो इससे उन्हें जनता की ‘चेतना का अपहरण’ करने का बा-ज़ाब्ता लाइसेन्स मिल सकता था। यही हुआ भी।

22 मार्च को इस लिए भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि उस दिन ‘जनता ने जनार्दन’ होने की अर्हता को एक व्यक्ति के सामने सरेंडर कर दिया था। आज के बाद से वह एक भीड़ में तब्दील हो चुकी थी जिसने खुद को अपने ऊपर यह तोहमतें लेने के लिए तैयार कर लिया था कि कोरोना फैलने के लिए वह और केवल वह ही जिम्मेदार होगी। अगर वह बाहर निकलेगी तो यह उसकी गलती होगी। अगर उसने राजकाज में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न की तो वह दंड की भागी होगी। आज के बाद से देश में तमाम मौलिक अधिकारों को आग-पलीता दिखा दिया गया था और देश की जनता को नियंत्रित करने के लिए दो कानून प्रभावी हो गए थे। एक कानून महामारी कानून था और दूसरा राष्ट्रीय आपदा नियंत्रण कानून था। इन दोनों क़ानूनों के प्रभाव में आने के बाद जनता की हैसियत महज़ उन करोड़ों कीड़े-मकोड़ों की तरह बना दी गयी थी जिन पर उसकी इच्छाओं के विरुद्ध शासन किया जा सकता था।

22 मार्च को हुए जनता कर्फ़्यू ने 25 मार्च को थोपे गए अविवेकी लॉकडाउन के नींव के पत्थर की तरह काम किया। इस लिहाज से 22 मार्च के दिन जनता को आने वाले दिनों की तकलीफ़ों को भुगतने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किए जाने की रिहर्सल कराई गयी। इसे उत्सवी रूप दिया गया ताकि सामूहिकता की ताक़त के बल पर आने वाले भयावह दिनों के लिए सुरक्षा का आभासी ही सही एक आलंबन जनता के पास रहे कि हम साथ-साथ हैं। सब एक साथ एक ही नियति के शिकार हैं। 

अगर ऐसा जनता की सहमति के बिना हुआ होता तो विद्रोह हुआ होता। लेकिन देश की जनता ने इसकी नौबत नहीं आने दी बल्कि इस तरह के उत्सवों की आलोचना करने वालों को चिह्नित ही किया गया और उन्हें राजाज्ञा के खिलाफ जाने और नाफरमानी का दोषी माना गया। इसकी सामाजिक निगरानी का जिम्मा खुद जनता ने उठा लिया। निगहबानी का यह मॉडल लंबे समय तक इतिहास में दर्ज़ रहेगा जिसमें जनता ने जनता की निगरानी की। यह एक विनम्र अपील का राजाज्ञा में तब्दील होने का दिन भी था।

जनता के तमाम अधिकारों पर बलात नियंत्रण के बाद राज-व्यवस्था ने वह सब कुछ कर डाला जो जीवंत लोकतन्त्र में कतई संभव न था। इस बीच अगर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की फेहरिस्त देखें तो आप पाएंगे कि महामारी से निपटने के कदमों की तुलना में महामारी के बहाने अपने मनोरथ सम्पन्न करने के कार्यों और कदमों की सूची कहीं ज़्यादा लंबी है।

कोरोना एक गंभीर बीमारी है या नहीं यह कोरोना खुद कभी न कभी जनता की अदालत में आकर बताएगा लेकिन बीते एक साल में इसके इर्द-गिर्द और इसके बहाने रचे गए तमाम वाग्जाल का पर्दाफाश होता रहा है। जनता को हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि क्योंकि इस वाग्जाल बुने जाने में उसकी मूक सहमति थी। सरकार को तो खैर क्यों ही शर्मिंदा होना था? उसे तो पहले से ही पता था कि वो क्या कर रही है।

जो वाकई इस तरह की कृत्रिम राष्ट्रीय एकता के पीछे देश में आए ‘स्वास्थ्य आपातकाल’ या ‘हेल्थ इमरजेंसी’  की भयावहता को देख समझ रहे थे उन्हें यह कदम इसलिए भी वक़्त की ज़रूरत लग रहे थे क्योंकि कोरोना के सामुदायिक संक्रामण को किसी तरह ‘ठहराव की स्थिति’ में रखा जाना बहुत ज़रूरी था और इसके लिए लोगों के बीच आपसी भौतिक संपर्क को न्यूनतम किए जाने की सख्त ज़रूरत थी।

लेकिन यह इसलिए भी ज़रूरी था ताकि इस अर्जित समय का सदुपयोग युद्ध स्तर पर चिकित्सा सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए किया जाये। हालांकि इसे लेकर बहुत ठोस और फौरी परिणाम सामने नहीं आए बल्कि 25 मार्च को 4 घंटे की अवधि में थोपे गए देशव्यापी लॉक डाउन ने परिस्थितियों को और गंभीर बना दिया। पहले 21 दिन फिर 19 दिन और फिर टुकड़े-टुकड़े में लॉकडाउन चलता रहा लेकिन इस समय का सही इस्तेमाल नहीं हुआ और यही कारण रहा कि कोरोना का संक्रमण अंतत: गांवों तक पहुँच गया।

हाल ही में प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों के साथ कोरोना के प्रभावों और दूसरी लहर के मद्देनजर जो बैठक की उसमें इस बात को लगभग स्वीकार ही किया गया कि छोटे शहरों और कस्बों में इसका प्रसार हो चुका है इसलिए गांवों में इसके प्रसार को रोकने के लिए मुस्तैदी से काम करने की ज़रूरत है।

याद करें, तो आज के दिन ताली-थाली, बर्तन-भांड़े और शंख-नगाड़े बजाने का दिन था। लोगों ने बढ़-चढ़कर इसमें नियत समय पर हिस्सा लिया। लेकिन एक गलतफहमी जो चली आ रही है कि ये सब उद्यम कोरोना को भगाने के लिए थे, नहीं आज इसे फिर से दुरुस्त किए जाने का वक़्त है। प्रधानमंत्री ने यह अपील की थी कि ‘हमें सामूहिक एकता का प्रदर्शन करना है और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों के सम्मान में ताली-थाली आदि बजाना है क्योंकि वह हमारे लिए बहुत बड़े जोखिम उठाने वाले हैं।’

प्रधानमंत्री की पार्टी के आईटी सेल ने इसे वैज्ञानिक नज़रिया बना कर पेश किया और तमाम ऐसे कुतर्क गढ़े कि ‘इतने डिस्बिल की आवाज़ से कोरोना का कीटाणु मर जाता है’, ‘इतनी देर तक थाली पीटने से इतनी ध्वनि तरंगे पैदा होती हैं कि उससे कोरोना के कानों में बहुत तेज़ कंपन हो जाता है और वह कान पर हुए आघात से मर जाता है’ आदि आदि।

प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय एकता के इज़हार और उसके मुजाहिरे को वैज्ञानिक आधार देकर आईटी सेल ने लगे हाथों यह प्रयोग भी कर डाला कि देश की जनता का विज्ञान से कितना कुछ लेना देना है? इस प्रयोग से यह साबित हुआ कि विज्ञान भी भारतवर्ष में इक्कीसवीं सदी में टोटकों और अंधविश्वास का ही एक रूप है।

ये और बात है कि जैसे जनता कर्फ़्यू से प्रधानमंत्री के मूल मन्तव्य को उन्हीं की आईटी सेल ने दूसरा ही रूप दे डाला उसी प्रकार सरकार और प्रधानमंत्री ने भी चिकित्सा क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पेशेवरों, जिन्हें कोरोना वॉरियर्स कहा गया, उन्हीं की मौतों के आंकड़ों से मुंह फेर लिया। अभी भी सरकार के पास डॉक्टर्स व अन्य स्टाफ की मौतों के सुव्यवस्थित आंकड़े नहीं हैं।

एक साल पहले आज ही के बाद से ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ को भौतिक स्वरूप देने के लिए जनता ने अपने अधिकारों और चेतना का त्याग कर दिया था। अगर ‘नयी वैश्विक व्यवस्था’ के लिए चेतना और जनता होने की अर्हता त्याग करने की ज़रूरत है तो देश की जनता यहाँ पूरी दुनिया में अग्रणी भूमिका निभाएगी यह एतबार कम न था। आखिर तो भारत विश्व गुरू की भूमिका में भी है ही। देश की जनता को इस बात का एहसास इतना तगड़ा है कि उसके लिए अपने रहबर के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार बैठी थी। एक मौका मिला उसमें पूरी तत्परता व तन्मयता से रहबर का साथ दिया।

पूरी दुनिया ने देखा और अपनी उस धारणा को मजबूत किया कि देश को अपनी प्राच्य (ओरिएंटल) विद्याओं व छवि से अभी इतना प्यार है कि विज्ञान जैसी सार्वभौमिक चेतना इस छवि का कुछ न बिगाड़ पायी। आज भी यह भूखंड साँप-सपेरों और हाथ की सफाई दिखाने वालों से मंत्रमुग्ध है और इसे ऐसे ही रहनुमा चला सकते हैं जिनका खुद भी इस विज्ञान नामक सार्वभौमिक चेतना से कोई सरोकार नहीं है। अब तक यह देश द्वंद्व में जी रहा था जहां राजाज्ञाएं न्यूनतम रूप में ही सही तर्कसम्मत हुआ करती थी लेकिन सदियों बाद देश को वह रहनुमा नसीब हुआ है जो प्राचीनता के वैभव की कपोल-कल्पित और मनगढ़ंत कहानियों के सहारे देश को विश्व गुरू बनाने पर आमादा है। बहरहाल।

ठीक एक साल पहले आज ही के रोज़ खाये-अघाए शहराती लोगों ने राशन पानी जमा करना शुरू कर दिया क्योंकि तमाम अंधविश्वासों के बावजूद उन्हें अपने रहनुमा के सनकी होने पर कोई अविश्वास नहीं था। ताली-थाली पीटने के साथ-साथ उन्हें यह भनक लग चुकी थी कि यह राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के लिए जनता की मानसिक तैयारी का जायजा भी था और स्वीकृति का भी उद्यम था। इसलिए जनता ने आने वाले दिनों के लिए घर में सुरक्षित और सुखी रहने के लिए ज़रूरी संसाधन जुटाना शुरू कर दिया था। जिन्हें सुरक्षा का कोई ठोस आश्वासन व आधार शहरों में नहीं था उन्हें हालांकि इसकी भनक भी नहीं थी कि यह एक दिन का मामला नहीं है बल्कि देश की यह नियति होने जाने जा रही है, वो एक दो दिन के इंतज़ार के बाद समान जुटाने की जगह मय माल-असबाब सड़कों पर निकलना शुरू कर दिये थे। उनके हिस्से तोहमतें ही आना थीं, तिरस्कार आना था और एक बेचारगी जिसे लेकर वो पैदा हुए थे।

उन दृश्यों की पूर्वपीठिका के तौर पर आज के दिन का स्मरण किया जाना चाहिए जो आने वाले दो महीनों के लिए सड़कों पर मंजरे-आम हुए। इतिहास में इसे सबसे बड़ा ‘अन्तर्देशीय पलायन’ कहा गया। दुनिया की गति को इतना तेज़ कर कर दिया गया कि लोग कल हुई घटना को आज भूल जाएँ और यह तेज़ी दिखाने के तमाम संसाधन सरकार और उसके निज़ाम के साथ थे। इसका असर इतना तीक्ष्ण और व्यापक हुआ कि जनता, जनता तो खैर स्वेच्छा से नहीं रह पायी लेकिन उसे मनुष्य होने की न्यूनतम इज़्ज़त भी न बख़्शी जा सकी।

यह मानवता के खिलाफ जनता द्वारा एक नेता की अपील से पैदा हुआ इतिहास का सबसे क्रूर मज़ाक था और अपराध तो यह था ही। जनता की भावनाओं या उसकी आज्ञाकारिता का दोहन करना और उसे अलंकार की तरह शोभायमान बताना अगर एक निज़ाम की चाह थी तो जनता ने उसे निराश नहीं किया। खैर। आज एक साल बाद इस ‘जनता कर्फ़्यू’ की प्रहसन नुमा त्रासदी को और भी तरीकों से याद किया जाना चाहिए लेकिन कम से कम इसे ‘राष्ट्रीय चेतना अपहरण दिवस’ के तौर पर नामित तो ज़रूर किया जाना चाहिए।

(लेखक पिछले डेढ़ दशकों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणियाँ लिखते हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।)  

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