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जवाहरलाल नेहरू : सेक्युलरिज़्म के दूत और सच्चे राष्ट्रवादी

आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ भारत के नवनिर्माण, लोकतंत्र को स्थापित करने और सांप्रदायिक सौहार्द को मज़बूत बनाने में पंडित जी ने जो भूमिका निभाई उसके लिए भारत हमेशा उनका क़र्ज़दार रहेगा।
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फ़ोटो साभार: ट्विटर

महात्मा गांधी के सच्चे वारिस, आदर्श राष्ट्रप्रेमी, अदभुत वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, इतिहासकार, स्वपनदृष्टा और आधुनिक भारत के निर्माता के ख़िताब से नवाज़े जाने का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को जाए तो नि:संदेह वे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ही हैं। आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ भारत के नवनिर्माण, लोकतंत्र को स्थापित करने और सांप्रदायिक सौहार्द को मज़बूत बनाने में पंडित जी ने जो भूमिका निभाई उसके लिए भारत हमेशा उनका क़र्ज़दार रहेगा।

पंडित जी को राजनीति, अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरु से विरासत में मिली थी लेकिन उनके असली राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने बाद में जवाहर लाल को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया। भारतीय आज़ादी की लड़ाई की एक बड़ी और अहम घटना माने जाने वाले सन 1919 के जलियांवाला बाग़ कांड के बाद से पंडित जी ने भारतीय राजनीति को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी। उस समय वे जलियांवाला कांड के कारणों की जांच के लिए बनाई गई कांग्रेस कमेटी के सदस्यों मोतीलाल नेहरू, देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गांधी के सहायक के रूप में नियुक्त किये गए।

कांग्रेस के इतिहास में अध्यक्षता सीधे पिता से पुत्र को मिलने की विरल घटना भी जवाहरलाल जी के संदर्भ में ही देखने को मिलती है जब 1929 में लाहौर में रावी के तट पर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरु की जगह गांधी जी ने जवाहरलाल नेहरु को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला किया था। इसी अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में जवाहरलाल जी ने भारत को आज़ाद कराने का संकल्प लिया और उसके लिए तारीख भी तय कर दी 26 जनवरी।

मगर पंडित जी के राजनीतिक जीवन से भी ज़्यादा जिस चीज़ ने मुझे प्रभावित किया वह उनकी इतिहास दृष्टि है।

'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' यानी भारत की खोज और 'ग्लिम्पसेस ऑफ़ द वर्ल्ड हिस्ट्री' यानी विश्व इतिहास की झलक उनकी ऐसी अदभुत किताबें हैं जो स्कूली छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए। जेल में रहते हुए बिना किसी संदर्भ के और इतिहास लेखन की विधिवत ट्रेनिंग लिए बिना उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जो पत्र लिखे और जिसने बाद में एक विशाल ग्रंथ का रुप लिया वह पंडित जी की अदभुत कृति है। दुनिया के पांच हज़ार साल के इतिहास को जिस सलीक़े से पंडित जी ने लिपिबद्ध किया है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती और इतिहासकारों ने इसे एच जी वेल्स की 'आउटलाईन ऑफ़ द वर्ल्ड हिस्ट्री' के समकक्ष का दर्जा दिया है।

इसी किताब में पंडित जी ने लिखा है कि महमूद ग़ज़नवी ने सोमनाथ पर हमला किसी इस्लामी विचारधारा से नहीं किया था बल्कि वह विशुद्ध रुप से लुटेरा था और उसकी फ़ौज का सेनापति एक हिंदू तिलक था। फिर इसी महमूद ग़ज़नवी ने जब मध्य एशिया के मुस्लिम देशों को लूटा तो उसकी सेना में असंख्य हिंदू थे।

पंडित जी को 'आधुनिक भारत का निर्माता' कहा जाता है और शायद इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद आर्थिक रुप से ख़स्ताहाल और विभाजित हुए भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था लेकिन पंडित जी ने अपनी दूरदृष्टि और समझ से जो पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं उसके नतीजे वर्षों बाद मिले।

मुझे याद है कि 1980 के दशक में जब भारत में अयोध्या का मुद्दा गरम था और रामजन्भूमि के लिए आंदोलन चल रहा था तो दिल्ली में एक वरिष्ठ पत्रकार केवल वर्मा ने मुझसे मज़ाक में एक टिप्पणी करते हुए कहा था, "पचास के दशक में जब हम लोग पत्रकारिता में आए थे तो भारत का नवनिर्माण हो रहा था और उसके नए-नए मंदिर बन रहे थे जैसे भाखड़ा नांगल बांध, रिहंद बांध, भिलाई, राऊरकेला, बोकारो इस्पात कारख़ाना आदि और हम उनके निर्माण और आधारशिला रखने की ख़बरों को रिपोर्ट किया करते और तुम्हें अयोध्या जैसे मुद्दे रिपोर्ट करने पड़ रहे हैं कितने बदक़िस्मत हो तुम लोग।"

हो सकता है कुछ लोग केवल वर्मा की इस टिप्पणी से सहमत न हों लेकिन भारत को विकासशील देशों की श्रेणी में खड़ा करने का जो काम पंडित जी ने किया उससे कौन असहमत हो सकता है। मेरी नज़र में पंडित जी का दूसरा बड़ा काम भारत में लोकतंत्र को खड़ा करना था जिसकी जड़ें अब काफ़ी मज़बूत हो चुकी हैं और जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। इसीलिए आज भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। सन् 1952 में पंडित जी के नेतृत्व में देश के पहले आम चुनाव में स्वस्थ लोकतंत्र की जो नींव रखी गई थी वह आज तक जारी है।

अपनी ज़िंदगी के दो अन्य आम चुनाव 1957 और 1962 में अपनी पूरी शक्ति लगाकर उन्होंने इसे न सिर्फ़ और मज़बूत बनाया बल्कि अपने विपक्ष को भी पूरा सम्मान दिया। जवाहरलाल जी ने अपनी पार्टी के सदस्यों के विरोध के बावजूद 1963 में अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष की ओर से लाए गए पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंज़ूर किया और उसमें भाग लिया। जितना समय पंडित जी संसद की बहसों में दिया करते थे और बैठकर विपक्षी सदस्यों की बात सुनते थे उस रिकॉर्ड को अभी तक कोई दूसरा प्रधानमंत्री नहीं तोड़ पाया है बल्कि अब तो प्रधानमंत्री के संसद की बहसों में भाग लेने की परंपरा निरंतर कम होती जा रही है।

पंडित जी प्रेस की आज़ादी के भी बड़े भारी पक्षधर थे और कहा करते थे कि लोकतंत्र में प्रेस चाहे जितना ग़ैर-ज़िम्मेदार हो जाए मैं उसपर अंकुश लगाए जाने का समर्थन नहीं कर सकता। शायद इसकी एक वजह यह भी थी कि वे एक दौर में ख़ुद पत्रकार थे और प्रेस की आज़ादी का महत्व समझते थे। इसके अलावा भारत को सही ढंग से समझने और अंतराष्ट्रीय मामलों की जो पकड़ पंडित जी की थी वह आज तक भारत के किसी दूसरे नेता की नहीं हो पाई है।

अपने प्रधानमंत्री काल में विदेश विभाग हमेशा उनके पास रहा और इसी दौरान उन्होने मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी जो शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले तक काफ़ी प्रभावी रहा।

देश आज़ाद हो जाने के बाद से ही नेहरू जी ने अरब देशों के साथ रिश्ते मज़बूत करने शुरू कर दिए। 1956 में स्वेज़ नहर संकट के दौरान पंडित जी अरब देशों के साथ मज़बूती से खड़े नज़र आये। इसी दौरान उन्होंने सऊदी अरब की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान सऊदी अरब के शासक शाह सऊद ने नेहरू को 'रसूल-अस-सलाम' कह कर पुकारा जिसका अरबी में अर्थ होता है 'शांति का संदेश वाहक'। लेकिन अरबी में इसे पैग़म्बर मोहम्मद के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नेहरू के लिए ये शब्द इस्तेमाल करने के लिए पाकिस्तान में शाह सऊद की काफ़ी आलोचना हुई लेकिन उसी समय पाकिस्तान के जाने माने शायर रईस अमरोहवी ने नेहरू की शान में एक क़सीदा लिखा जिसे कराची से छपने वाले जंग अख़बार ने प्रकाशित भी किया।

'जप रहे हैं माला एक हिंदू की अरब, ब्राहमनज़ादे में शाने दिलबरी ऐसी तो हो!

हिकमते पंडित जवाहरलाल नेहरू की कसम, मर मिटे इस्लाम जिस पर काफ़िरी ऐसी तो हो।

जवाहरलाल नेहरू के लिए सेक्युलरिज़्म और सांप्रदायिक सौहार्द उनके मज़हब और यक़ीन का हिस्सा थे जिसपर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के उस त्यौहार "फूल वालों की सैर" को दोबारा शुरू करवाया जो अंग्रेज़ों ने बंद करवा दिया था।

मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री ने नेहरू की मौत पर दो नज़्में लिखीं थीं एक का उन्वान था 'रहबर की मौत' और दूसरी थी 'संदल ओ गुलाब की राख' उन्होंने नेहरू को मुल्क़ की इज़्ज़त और आबरू का रखवाला बताया।

'वो वतन की आबरू, एहले वतन का इफ़्तिख़ार, महफ़िले इंसान में इंसानियत का ताजदार'

सरदार जाफ़री लिखते हैं,

'सुना है जिस की चिता से ये खाक़ आई है, वो फ़सले ए गुल का पयम्बर था, अहदे नौ का रसूल'

मगर यह भी सच है की अपने आख़िरी वक़्त में पंडित जी को कुछ नाकामियों का भी मुंह देखना पड़ा। उन्होंने 'हिंदी चीनी भाई-भाई' का नारा दिया। लेकिन 1962 में चीन के हमले से पंडित जी भी बहुत दुःखी हुए और कुछ लोगों का तो ये भी मानना है कि उनकी मौत का कारण ये सदमा ही था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं और बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के साथ 14 साल काम किया है। ये लेखक के निजी विचार हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :

Remembering Jawaharlal Nehru, Secularist and True Nationalist

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