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झारखंड दिवस: ‘अबुवा दिसुम अबुवा राइज’ का नारा हुआ बुलंद, स्थानीयता नीति विधेयक के जरिये हेमंत ने बढ़त बनाई

झारखंड राज्य गठन के पश्चात से प्रदेश की स्थानीयता निर्धारित करने का सवाल काफी संवेदनशील और तीखे विवाद का मुद्दा रहा है। जिसे “वोट और कुर्सी की मजबूरी” के तहत लगातार टाला अथवा उलझाया गया।
hemant soren

झारखंड प्रदेश में 15 नवम्बर हमेशा की भांति एक बार फिर धरती आबा बिरसा मुंडा के जन्मदिवस के साथ साथ राज्य गठन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसमें हमेशा की भांति लगनेवाला सबसे चर्चित नारा ‘अबुवा दिसुम अबुवा राइज’ इस बार कुछ ज्यादा ही जोश और विश्वास के साथ लग रहा है। क्योंकि इस बार प्रदेश के आदिवासी-मूलवासी समुदायों की- ‘1932 के खतियान आधारित स्थानीयता नीति’ लागू करने की चिर लंबित मांग को हेमंत सोरेन सरकार ने आखिरकार पूरा कर दिया है।

राज्य गठन दिवस से चार दिन पूर्व ही 11 नवम्बर को हेमंत सोरेन सरकार द्वारा उक्त सवाल को लेकर बुलाये गए विधानसभा विशेष सत्र में झारखंड मूलवासियों की मांग के अनुरूप राज्य में खतियान आधारित स्थानीयता को नियोजन नीति से जोड़ने का विधेयक पारित कर दिया गया। इसके अनुसार झारखंड में 1932 या उसके पहले की खतियानी पहचान वाले झारखंड निवासी को ही राज्य में तृतीय और चतुर्थ वर्ग की सरकारी नौकरी मिल सकेगी। जिसके तहत झारखंड में स्थानीय वही माना जाएगा जिसका नाम या उनके पूर्वजों का नाम 1932 या इसके पहले हुए ज़मीन के सर्वेक्षण खतियान में दर्ज होगा। इस स्थानीयता के दायरे में आनेवालों का जल, जंगल, ज़मीन व प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण अधिकार मान जायेगा। नदियों-झीलों-तालाब इत्यादि के मछली पालन में पूर्ण हिस्सेदारी होगी। भूमिहीन व जिन मूलवासियों के पास खतियान नहीं होने के मामले में स्थानीय होने की पहचान स्थानीय ग्राम सभा, उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्परा के आधार पर की जाएगी।

झारखंड सरकार द्वारा सदन से पारित कराये गए इस नए विधेयक के अनुसार- परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक व अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए अधिनियम 2022 तय किया गया। बाद में सदन की कार्यवाही के दौरान भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह के दिए सुझाव के अनुरूप ये प्रावधान भी जोड़ लिया गया कि- जो स्थानीय होंगे वे ही तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के पात्र होंगे।

सदन ने इस विधेयक के साथ साथ राज्य के सभी मूलवासी ओबीसी/एसटी/एससी के आरक्षण में भी बढ़ोत्तरी का संशोधन विधेयक भी पारित किया। दोनों ही विधेयकों में जोड़ा गया है कि केंद्र सरकार इसे संविधान की 9 वीं सूची में शामिल करे।

उक्त दोनों विधेयकों को जल्द ही प्रदेश के राज्यपाल के पास भेजा जाएगा। उन्हीं के द्वारा इसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाना है। जहाँ से स्वीकृति मिलने के पश्चात् वह केंद्र सरकार इसे संविधान की 9 वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संसद में प्रस्तुत करेगी। वहाँ से स्वीकृत होंने के पश्चात यह राज्य में विधायी नियम के बतौर लागू हो जायेगा।

झारखंड विधानसभा के विशेष सत्र में मुख्यमंत्री द्वारा प्रस्तुत किये गए विधेयक का सरकार के सभी घटक दलों के विधायकों ने एकमत से मेज थपथपाकर पुरजोर समर्थन किया। जबकि भाकपा माले विधायक ने एक संशोधन देते हुए अपन समर्थन दिया जिसे सत्ता पक्ष ने फ़ौरन मान लिया।

वहीं विपक्षी दल भाजपा व आजसू के विधायकों ने सीधे विरोध करने की बजाय कई संसोधन प्रस्ताव देकर रोकने की चेष्टा की लेकिन वे सिरे से खारिज कर दिये गए। इसकी प्रतिक्रिया में विपक्ष ने भी कुपित होकर कह डाला कि- विशेष सत्र बुलाकर बिल पेश करना, सरकार का “राजनितिक एजेंडा” है और स्पीकर ने पक्षपात किया है।

हालांकि 11 नवम्बर को आहूत होनेवाला झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र हेमंत सोरेन सरकार द्वारा पूर्वघोषित था। इसीलिए इस विशेष सत्र पर पूरे प्रदेश के लोगों की नज़रें टिकी हुईं थीं। स्वाभाविक ही था कि ‘नयी स्थानीयता/नियोजन नीति’ के पारित होने की खबर फ़ौरन पुरे प्रदेश में प्रसारित हो गयी। जगह जगह ढोल- नगाड़े बजाकर और पटाखे फोड़कर खुशियाँ मनाते हुए सरकार के फैसले का भरपूर स्वागत करने का सिलसिला सा लग गया।

खुद हेमंत सोरेन ने अपने आवास परिसर में जुटे पार्टी नेता-कार्यकर्त्ताओं के भारी जुटान के समक्ष पटखा फोड़कर अपनी ख़ुशी जाहिर की। अपने संबोधन में भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि- सीबीआई-ईडी से नहीं डराएँ, जेल में रहकर भी सूपड़ा साफ़ कर देंगे। पिछले दिनों सीबीआई छापेमारी में गयी एक गाड़ी में भाजपा का स्टीकर सटे होने की वायरल हुई घटना की ओर इशारा करते हुए कहा कि- केन्द्रीय एजेंसियां इनके रिश्तेदार बन गयी हैं। इनके लोगों को करोड़ों रुपयों के साथ पकड़ते हैं और घर छोड़कर आतीं हैं। दूसरे के पास एक चावल का दाना भी नहीं मिलने पर भी उन्हें जेल में डाल देतीं हैं।

प्रदेश के सभी वाम दल- सीपीएम, सीपीआई,मासस व भाकपा माले ने सरकार के इस फैसले का स्वागत करते हुए ‘ऐतिहासिक क़दम’ बताया। वहीं सोशल मीडिया मंच की चर्चाओं में पक्ष-विपक्ष का तीखा घमासान सा मचा हुआ है।

गौर तलब है कि झारखंड राज्य गठन के पश्चात से प्रदेश की स्थानीयता निर्धारित करने का सवाल काफी संवेदनशील और तीखे विवाद का मुद्दा रहा है। जिसे “वोट और कुर्सी की मजबूरी” के तहत लगातार टाला अथवा उलझाया गया। हालाँकि रघुवर दास की सरकार ने भी स्थानीयता का मामला परिभाषित कर नीति घोषित की थी। जिसका प्रदेश के आदिवासी और मूलवासी समुदायों द्वारा व्यापक स्तर पर कड़ा विरोध हुआ था। तथापि वह नीति सरकार ने लागू कर दी थी। बाद में हेमंत सोरेन सरकार ने उसे निरस्त घोषित कर दिया था।

कई जानकारों के अनुसार- एक नज़र से किसी लोकतान्त्रिक राज्य के लिए “एक क्षेत्रीय संकीर्णता भरा” फैसला लग सकता है लेकिन किसी को भी यह कभी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि झारखंड इस देश का ऐसा विशिष्ट क्षेत्र रहा है जहाँ के आदिवासी- मूलवासी समुदाय के लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत काल से ही अपने जीवन, जल, जंगल, ज़मीन व प्राकृतिक संपदाओं पर अधिकार के सवाल के साथ साथ अपनी विशिष्ट संस्कृति और परम्परा की रक्षा के लिए अनगिनत बहादुराना संघर्ष किये हैं। इतना ही नहीं झारखंड अलग राज्य गठन की मांग को लेकर चले सात दशक से भी अधिक के लम्बे संघर्ष के मुद्दे में ‘आत्मनिर्णय और स्वायत्तता का अधिकार’ की माँग सबसे केंदीय पहलू रहा है। दूसरे, आज भी इस प्रदेश के कई इलाके संविधान की पांचवी अनुसूची के क्षेत्र घोषित और आरक्षित हैं।

सनद रहे कि उक्त मूल भावना को ही अभिव्यक्त करनेवाला ‘अबुवा दिसुम, अबुवा राइज’ (अपना देस,अपना राज) का नारा इस प्रदेश से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में बसे झारखंड के आदिवासी और मूलवासी समुदाय के लोगों के लिए आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। सन 2000 के 15 नवम्बर को झारखंड को एक अलग राज्य का वैधानिक दर्जा तो मिल गया लेकिन जिन सवालों और सपनों को लेकर यहाँ अलग राज्य गठन की लम्बी लड़ाई लड़ी गयी, वे सभी राज्य गठन के बाद भी जस के तस अधर में लटके हुए हैं। यहाँ के आदिवासी-मूलवासियों की स्थिति ऐसी बद से बदतर हाल में पहुँच चुकी है कि कईयों का यह खुला आरोप रहा है कि वे अपने देस में ही “परदेसी” बना दिए गए हैं।

बहरहाल उक्त पूरे प्रकरण को लेकर तीखा राजनितिक और सामाजिक विवाद इस क़दर छिड़ गया है कि इसका कोई सर्वसम्मत समाधान का सामने आना फिलहाल तो आनेवाले समय के हाथों में है। लेकिन फिर भी इतना तो कहना न्यायोचित ही होगा कि एक क्षेत्र की स्वायतता को नष्ट-भ्रष्ट करना किसी भी लोकतांत्रिक कहलानेवाली शासन व्यवस्था के लिए सही नहीं है। जिसपर ध्यान दिलाते हुए सोशल मीडिया पोस्ट में सवाल उठाया गया है कि- किस संवैधानिक प्रावधानों के तहत पिछले महीने कर्नाटक की भाजपा सरकार ने अपने राज्य में आरक्षण बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव संविधान की 9 वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा। लेकिन आज जब उसी भाजपा की झारखंड इकाई ने 12 नवम्बर को हेमंत सोरेन सरकार द्वारा प्रदेश की ‘नयी स्थानीयता नीति और आरक्षण में बढ़ोत्तरी का विधेयक’ सदन से पास करके संविधान की 9 वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव भेजे जाने को राजनितिक साजिश करार दिया है, तो वह कितना न्याय सांगत कहा जाएगा ?

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