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झारखंड : राज्य सरकार बनाम राज्यपाल विवाद हुआ तेज़

प्रदेश सरकार द्वारा प्रेषित राज्य-हित से जुड़े कई महत्वपूर्ण फ़ैसलों को राज्यपाल के पास भेजने के उपरांत उन्होंने अस्वीकार कर उसे बैरंग लौटा दिया।
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पीटीआई के हवाले से ताज़ा खबर है कि झारखंड प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने केंद्र सरकार के कथित आदिवासी विरोधी रुख़ पर निशाना साधते हुए लोगों से आगामी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने का आग्रह किया है। अपने गृह विधान सभा क्षेत्र बरहेट (साहेबगंज) में 24 नवम्बर को अपनी सरकार द्वारा संचालित महत्वकांक्षी योजना “आपकी योजना, आपकी सरकार, आपके द्वार” के तीसरे चरण की शुरुआत करते हुए जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने यह अपील की।

वहीँ एक अन्य ख़बर में दो दिन पूर्व ही अपनी ही पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ आदिवासी नेता और विधायक लोबिन हेम्ब्रम द्वारा मीडिया के जरिये उनसे पूछे गए सवालों ने उन्हें भी विवाद के घेरे में लिया है। लोबिन हेम्ब्रम ने “झारखंड जनजातीय सलाहकार समिति” (ट्राइबल एडवाइजरी काउन्सिल, TAC) की बैठक में लिए अहम् फैसलों (प्रस्तावित) के संदर्भ में कई तीखे सवाल पूछे हैं। TAC की उक्त बैठक के प्रस्तावित फैसलों को लेकर प्रदेश के आदिवासी समुदायों के अंदर भी समर्थन-विरोध की काफी क्रिया-प्रतिक्रियायें चल रही हैं।

सनद रहे कि इसी माह के गत 16 नवम्बर को रांची में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अध्यक्षता में TAC की विशेष बैठक हुई। जिसमें कई अहम् फैसले (प्रस्ताव) लिए जाने के साथ साथ एक आम सहमति यह भी बनी कि- अब झारखंड में “आदिवासी ज़मीन” कि खरीद-बिक्री अथवा हस्तारंतरण मामले में पूर्व से निर्देशित “थाना क्षेत्र की सीमा बाध्यता” को हटा दिया जाय। जिससे अब 1950 के ज़िला व थाना क्षेत्र के आधार पर सीएनटी ज़मीनों की खरीद-बिक्री इत्यादि की जा सकेगी। अर्थात सीएनटी के अंतर्गत 26 जनवरी 1950 के समय राज्य के अंदर जो भी ज़िले और थाने थे उन्हीं को वर्तमान का ज़िला और थाना मानते हुए आदिवासी ज़मीनों की खरीद-बिक्री को सरकारी मान्यता रहेगी। जो अभी तक कानूनन प्रतिबंधित है। इस संदर्भ में राज्य सरकार आगे विधि-सम्मत कारवाई करेगी।

झामुमो नेता और विधायक लोबिन हेम्ब्रम जी अपनी सरकार के इस फैसले से कितने क्षुब्ध व नाराज़ हैं यह उनके दिए बयान में ही दीखता है। जिसमें वे सीधे मुख्यमंत्री से पूछ रहें हैं कि- जब राज्यपाल द्वारा TAC की हालत फुटबॉल जैसी बना दी गयी है, तब आनन फानन में उसकी बैठक बुलाकर आदिवासियों की ज़मीन से जुड़े मामले पर फैसला लेने की ज़ल्दबाज़ी क्यों की गयी। आदिवासी समुदायों के लिए सबसे संवेदनशील माने जानेवाले सीएनटी एक्ट में संशोधन करके, आदिवासी ज़मीनों की खरीद-बिक्री पर लगे प्रतिबन्ध को ढीला किये जाने से आम-गरीब आदिवासियों का कौन सा भला होगा। झारखंड राज्य गठन के 23 वर्षों में भाजपा नेता रघुवर दास को छोड़ बाकी सभी मुख्यमंत्री आदिवासी ही बने लेकिन आदिवासी-मूलवासियों को आज तक क्या उपलब्धि हासिल हुई? उलटे रोज़ी-रोज़गार की तलाश में आज पहले से भी ज़्यादा की संख्या में यहां का पलायन बढ़ा है। अंग्रेजों के समय से आदिवासी समाज के लिए घोषित अधिसूचित-क्षेत्र के नियम-प्रावधानों का आज कितना पालन हो रहा है? “स्मार्ट विलेज” बनाने की घोषणा करने वाले हेमंत सोरेन किस मुंह से आज “स्मार्ट सिटी” बनाने की बात कह रहें हैं। उस स्मार्ट सीटी में कौन रहेंगे- धनिक-कॉर्पोरेट वर्ग के लोग या कि यहां के आदिवासी-मूलवासी?

चर्चित आदिवासी एक्टिविस्‍ट लक्षी नारायण सिंह मुंडा ने भी सवाल उठाया है कि- जनजातीय सलाहकार परिषद् की बैठक में जिस हिम्मत और हौसला से आदिवासियों की ज़मीन खरीद-बिक्री को लेकर थाना-क्षेत्र की बाध्यता समाप्त करने का प्रस्ताव लिया गया उसी हिम्मत और हौसला से आदिवासी ज़मीनों की जारी लूट-खसोट को रोकने, अवैध दखल करनेवालों, जबरन ज़मीन क़ब्ज़ा करनेवालों, आदिवासी ज़मीन के राजस्व रिकार्ड में छेड़छाड़-फर्जीवाड़ा में शामिल अधिकारियों-कर्मचारियों के ख़िलाफ़ विशेष प्रावधान बनाकर सज़ा देने का फ़ैसला क्यों नहीं लिया गया? TAC आदिवासी समुदाय में उभर रहे नवधनिक-सम्पन्न वर्ग को ही खुश करने में क्यों लगा हुआ है जबकि यही नवधनाढ्य आदिवासी वर्ग के अधिकांश लोग, अपने ही समुदाय के गरीब-कमज़ोर और अशिक्षित लोगों की ज़मीनें ठगने-लूटने-हड़पने व जबरन क़ब्ज़ा करने में लगे हुए हैं। जो दूसरी ओर, गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासियों की ज़मीन लूट पर भी पूरी तरह से चुप्पी भी साधे हुए हैं। जिसका साफ़ मतलब यही है कि- तुम भी लूटो, हम भी लूटेंगे!

उधर, TAC के प्रस्तावित फैसले का समर्थन कर रहे आदिवासी प्रतिनिधियों का सबसे बड़ा तर्क है कि- सीएनटी एक्ट के पुराने नियम की बाध्यताओं के कारण ही आज तक व्यापक आदिवासी अपनी ज़मीनों का कोई सदुपयोग ही नहीं कर पा रहे हैं। जिससे उनके वर्तमान समय का सारा विकास ठप्प पड़ा हुआ है। हेमंत सरकार के इस फैसले से अब प्रदेश के आदिवासियों को भी अपनी ज़मीनों से सीधा फायदा मिलने अवसर खुलेंगे।

खींच-तान भरी उक्त बहसों से परे सबसे अहम् मामला यह भी है कि लम्बे समय से प्रदेश की मौजूदा “जनजातीय सलाहकार परिषद्” को लेकर राजभवन और राज्य सरकार में जारी टकराव लगातार तीखा होता जा रहा है। प्रदेश सरकार द्वारा प्रेषित राज्य-हित से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसलों को राज्यपाल के पास भेजने के उपरांत उन्होंने ने अस्वीकार कर उसे बैरंग लौटा दिया।में TAC के गठन व संचालन को लेकर भी ऐसा ही टकराव चल रहा है। सत्तारूढ़ हेमंत सोरेन सरकार का आरोप है कि राज्यपाल “दल विशेष” के इशारों-निर्देशों से संचालित हो रहें हैं। जिससे राज्य का सतत विकास बाधित हो रहा है और यहां के लोग अपेक्षित विकास से वंचित रह जा रहें हैं।

TAC के गठन-संचालन को लेकर टकराव चरम पर उस समय पहुंच गया जब 2021 में हेमंत सरकार ने राज्यपाल महोदय द्वारा TAC गठन हेतु राज्य सरकार द्वारा भेजी गयी किसी अनुशंसा पर सकारात्मक संज्ञान लेने की बजाय लगातार टालमटोल की नीति अपनाई जाती रही। जिससे आजिज़ आकर आखिरकार राज्य सरकार ने कैबिनेट मीटिंग बुलाकर TAC गठन के लिए नयी नियमावली बनाने का निर्णय ले लिया। 7 जून 2021 को इस निर्णय को गजट नोटिफिकेशन के तहत जारी कर राज्यपाल महोदय के पास अनुमोदन के लिए भेज दिया। जिसमें सबसे विवादास्पद पहलू था कि TAC के गठन-संचालन की हर प्रक्रिया से राज्यपाल को बाहर कर सारा अधिकार मुख्यमंत्री को दे दिया गया था। राज्य सरकार द्वारा प्रेषित उक्त नयी नियमावली पर तीखी प्रतिक्रिया के साथ राज्यपाल ने उसे तत्काल नामंज़ूर कर वापस भेज दिया। अपनी टिपण्णी में राज्यपाल ने लिखित रूप से राज्य सरकार पर आरोप लगाया कि- नयी नियमावली संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत और राज्यपाल के अधिकारों का अतिक्रमण है। 4 फ़रवरी’22 को पुनः राज्यपाल ने विस्तृत आदेश पारित कर TAC की नयी नियमावली में राज्यपाल द्वारा कोई भी परामर्श नहीं लिए जाने का प्रावधान दुर्भाग्यपूर्ण और संविधान की मूल भावना के विपरीत बताया। बाद में यह भी ख़बर आई कि राज्यपाल ने देश के सोलिस्टर जनरल और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों से झारखंड सरकार के विरुद्ध “विधि सम्मत क़दम” उठाने के सन्दर्भ में विशेष रूप से बात की है। साथ ही केंद्र की सरकार और संबंधित मंत्रालय में अपनी शिकायत पहुंचाई है। जिसे लेकर क्या कुछ तय हुआ है, औपचारिक रूप से अभी सामने नहीं है। लेकिन उन दिनों मीडिया में यह बात सुर्ख़ियों में रही कि झारखंड सरकार के ख़िलाफ़ राज्यपाल महोदय कोई बड़ा क़दम उठाने जा रहें हैं।

चर्चा है कि हेमंत सोरेन सरकार द्वारा TAC की बैठक बुलाने व उसमें लिए गए फैसलों को राजभवन फिर से चुनौती देते हुए कोई कड़ा क़दम उठा सकता है। क्योंकि TAC जैसी विशिष्ट संविधान प्रदत्त संस्थानों का गठन-संचालन के मूल प्रावधानों में पूर्व से ही ये विधि निर्देशित है। चूंकि आदिवासी मामलों के लिए महामहिम राष्ट्रपति ही सर्वोच्च संवैधानिक संरक्षक निकाय हैं और राज्यों के राज्यपाल सीधे तौर से उनके मुख्य प्रतिनिधि हैं तो ऐसे में राज्यपाल के महत्व को राज्य की सरकार द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता।

उक्त पूरे प्रकरण में गौर तलब है कि बहु संस्कृतियों व समुदायों वाले हमारे देश में आदिवासी समुदायों के लिए आज़ादी के पूर्व से ही इनके विशेष संरक्षण और समुचित सम्यक विकास के लिए कई प्रावधान सुनिश्चित किये गये। जो निस्संदेह बड़े बड़े बहादुराना जन आंदोलनों और अनगिनत शहादतों की बदौलत ही संभव हो पाए थे। बाद में आज़ाद देश के संविधान में भी उसका अनुपालन करते हुए विधिवत इससे संबंधित कई प्रकार के कानून और उससे जुड़े अधिकार तय किये गये। विडंबना ही कही जाएगी कि इनका मजबूती से पालन करने की बजाय इससे भी “सत्ता-राजनीति” करने का सिलसिला, रुकने की बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

अब तो स्थिति ऐसी बन गयी है कि “तथाकथित बहुमत” के बल पर सरकारों द्वारा अपनी शक्तियों का “राजनीतिक” इस्तेमाल कर संविधान प्रदत्त अधिकारों को ही तहस-नहस करने की मानो होड़ सी मची हुई है। जिसकी जब जैसी मर्ज़ी होती है, संविधान का “तथाकथित हवाला” देकर उसे थोप दिया जा रहा है। जिसमें राज्यपालों की भूमिका, किसी संवैधानिक पदेन-प्रतिनिधि से अधिक “राज्यपाल बनानेवाले दल विशेष” के कथित अनुपालक की ही दिख रही है।

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