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कर्नाटक चुनाव: ‘‘नंदिनी बनाम अमूल’’ के पीछे की पूरी राजनीति!

10 मई को मतदान और 13 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे, जिसके लिए राजनीतिक पार्टियां मुख्य मुद्दे के तौर पर राज्य के लोकल दूध के सामने अमूल को लाकर खड़ा कर रही हैं।
Karnataka Elections

वैसे तो दूध से चाय बनती है, लेकिन कर्नाटक में राजनीतिक पार्टियां सरकार बनाने की सोच रही हैं। बस इसमें चीनी और चाय की पत्ती की बजाय ‘गुजरात मॉडल’ की तथाकथित चाशनी और को-ऑपरेटिव सोसाइटीज़ को मिलाकर घोल दिया गया है।

कैसे? इसे समझने के लिए चलते हैं 7 जुलाई 2021 के दिन में। इस दिन हमारे गृहमंत्री अमित शाह को एक और ज़िम्मेदारी सौंपी गई, सहकारिता मंत्रालय की। इस विभाग से जुड़े कामकाज को पहले कृषि मंत्रालय देखा करता था, लेकिन अब अलग विभाग हो गया है। जिसपर सवाल कई उठे हालांकि वो अलग विषय है।

अब चूंकि देश में कॉपरेटिव-नॉन-कॉपरेटिव, डेयरी, फॉर्म्स आदि को देखने की ज़िम्मेदारी अमित शाह के हाथ में है, तो ज़ाहिर है, जैसे सभी विभागों का इस्तेमाल होता है, वैसे इस विभाग का इस्तेमाल भी राजनीतिक फायदे के लिए होना ही था। अब सामने कर्नाटक के विधानसभा चुनाव हैं। तो तरकीबें भी कई निकाली गई होंगी। सोचा गया होगा कि क्यों न ‘गुजरात मॉडल’ के एक और हथियार को कर्नाटक में इस्तेमाल किया जाए? और गुजरात मिल्क फेडरेशन में बनने वाले अमूल दूध को लाकर कर्नाटक के नंदिनी दूध के सामने रख दिया गया। इससे एक नई राजनीति तो जन्म लेगी है, 'एकीकरण' वाला मकसद भी पूरा हो जाएगा।

तो इस मकसद को पूरा करने की शुरुआत हुई 30 दिसंबर 2022 को। जब कर्नाटक के मांड्या में अमित शाह की एक रैली होती है, यहां से वो ऐलान करते हैं कि ‘’अमूल और नंदिनी दोनों मिलकर कर्नाटक के हर गांव में प्राइमरी डेयरी खोलने का दिशा में काम करेंगे। 3 साल बाद कर्नाटक के हर गांव में प्राइमरी डेयरी होगी।"

अमित शाह के इस बयान के 3 महीने बाद 5 अप्रैल, 2023 को अमूल एक ट्वीट करता है, ‘’जल्द ही कर्नाटक के बेंगलुरु में लॉन्चिंग का ऐलान कर दिया है। कर्नाटक में अमूल के आइस्क्रीम जैसे प्रोडक्ट तो पहले से बिकते हैं, लेकिन अब दूध और दही भी बेचे जाएंगे।"

इस ट्वीट के बाद कर्नाटक में हैशटैग सेव नंदिनी और हैशटैग गो बैक अमूल ट्रेंड करने लग गया। क्यों? क्योंकि नंदिनी कर्नाटक का को-ऑपरेटिव डेयरी ब्रांड है।

यहां से शुरू होती है पूरी राजनीति... अब इस पूरे व‍िवाद को गुजरात मॉडल के राजनीत‍िक व‍िरोध और कन्नड़ अस्म‍िता से जोड़ कर बड़ा क‍िया जा रहा है। आपको मालूम है कि 2014 में नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल के दम पर ही देश के प्रधानमंत्री बने थे, इसके बाद से देश-व‍िदेश में गुजरात मॉडल चर्चा में आया था, बेशक अमूल मोदी के गुजरात मॉडल की देन नहीं है, नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही अमूल मॉडल देश-व‍िदेश में अपनी पहचान बना चुका था, लेक‍िन मौजूदा राजनीत‍िक पर‍िदृश्य में गुजरात मॉडल में ही अमूल को जोड़ने का प्रयास कि‍या जाता हुआ द‍िखाई दे रहा है।

वहीं इस व‍िवाद के पीछे का दूसरा कारण कन्नड़ अस्‍म‍ि‍ता का राजनीत‍ि‍क मुद्दा नजर आता है, असल में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता स‍िद्धारमैया और जेडीएस लंबे समय से कन्नड़ अस्म‍िता के मुद्दे को लेकर अपनी राजनीत‍ि को धार दे रहे हैं। ज‍िसमें अमूल के व‍िरोध को भी इससे जोड़ कर देखा जा रहा है। इन दोनों ही नेताओं ने अमूल के ऐलान के बाद कई ट्वीट कर अपना विरोध दर्ज कराया और अमित शाह को घेरते हुए कहा कि ये कर्नाटक की अस्मिता और नंदिनी को ख़त्म करने का प्लान है। कांग्रेस कर्नाटक के अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने तो यहां तक कह दिया, कि हमें किसी अमूल की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि हमारी मिट्टी, पानी और दूध मज़बूत है।

नंदिनी और अमूल के बीच राजनीति की जड़ तो दिखाई पड़ रही है, कि कन्नड अस्मिता का सहारा लेकर आगे बढ़ना है, लेकिन अगले महीने चुनाव है, इस वजह से भाजपा और विपक्ष की नज़र सीधे तौर पर उन 26 लाख से ज़्यादा किसानों पर हैं, जो कर्नाटक मिल्क फेडरेशन यानी केएमएफ से जुड़े हुए हैं। क्योंकि इस तरह की डेयरी का दबदबा कर्नाटक के गांवों और छोटे शहरों में खूब हैं। यही कारण है कि सभी राजनीतिक दलों के लिए डेयरी से जुड़े किसान और उनका परिवार एकमुश्त वोटबैंक है। ऐसे में कर्नाटक की विपक्षी पार्टियों को डर बैठा हुआ है, कि अगर भाजपा नंदिनी के संग विलय कर लेती है, और कोई बड़ा प्रलोभन दे देती है, तो पूरा वोटबैंक एकलय में भाजपा की ओर शिफ्ट हो जाएगा। यहीं पर आपको बताते चलें कि कर्नाटक के 16 जिलों के 26 लाख से ज़्यादा किसान कर्नाटक मिल्क फेडरेशन यानी नंदिनी के साथ जुड़े हैं। 2021-2022 में इसने 19,800 करोड़ रुपये का कारोबार किया है।

अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पक्ष और विपक्ष इस कदर क्यों दूध पर राजनीति के लिए उतारू हैं। वैसे तो भाजपा का विज़न कर्नाटक चुनाव के ज़रिए 2024 का लोकसभा चुनाव भी हैं, इसके लिए उसने देश में करीब 2 लाख को-ऑपरेटिव डेयरी सोसाइटी और 330 चीनी मिल को-ऑपरेटिव को टारगेट कर लिया है, लेकिन अगर सिर्फ कर्नाटक की बात करें तो भाजपा इस तरह के को-ऑपरेटिव सोसाइटी के जरिए गांव के वोटरों को साधना चाहती है। इसका सफल उदाहरण गुजरात और महाराष्ट्र में देखा जा चुका है।

अब भी आपके मन में सवाल आ सकता है कि कोऑपरेटिव सोसाइटी का दूध विवाद से क्या कनेक्शन हो सकता है? तो इसे और विश्लेषित करने से पहले बता दें कि कर्नाटक मिल्क फेडरेशन देश की दूसरी सबसे बड़ी डेयरी सोसाइटी है। यही कारण है कि भाजपा गुजरात के को-ऑपरेटिव को कर्नाटक में लाकर गांव-गांव तक पहुंचना चाहती है।

यह बात इतने यकीन से कैसे कही जा सकती है, वो इसलिए क्योंकि अमित शाह ने नंदिनी और अमूल के साझे की घोषणा जिस मांड्या से की थी, वो मैसूर बेल्ट में आता है, और कर्नाटक की ज़्यादातर डेयरी सोसाइटी मैसूर बेल्ट में ही हैं। यानी इस बेल्ट में मांड्या के अलावा मैसूर, रामनगर, कोलार जैसे ज़िले आते हैं। कोई बड़ी बात नहीं है कि कुछ दिनों के भीतर अमित शाह या नरेंद्र मोदी कोई बड़ा आयोजन कर दें।

इस क्षेत्र की एक खास बात और है, कि यहां लिंगायत और वोकालिग्गा समुदाय के लोगों की आबादी ज़्यादा है। इनमें वोकालिग्गा तो कांग्रेस और जेडीएस को वोट करते आए हैं, लेकिन लिंगायतों ने ज़्यादातर भाजपा को वोट किया है। यही कारण है कि भाजपा यहां सौगातें देकर वोकालिग्गा समुदाय को भी अपने पक्ष में करना चाहती है, और लिंगायतों को छिटकने से रोकना चाहती है, जबकि अस्मिता का सवाल उठाकर कांग्रेस और जेडीएस लिंगायतों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं।

को-ऑपरेटिव सोसाइटी के साथ दूध का कनेक्शन और इससे निकलने वाली राजनीति को समझने के लिए हम कर्नाटक के अलावा गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश का उदाहरण ले सकते हैं, इन सोसाइटी का अपना अलग बिजनेस मॉडल होता है, जहां ये सोसाइटी नौजवानों को नौकरी देती हैं। और अपना एक कैडर तैयार कर लेती हैं। आप कह सकते हैं कि इनका कैडर किसी राजनीतिक दल से ज़्यादा मज़बूत होता है। यानी यहां बिखराव नहीं होता है, सब एकमुश्त चलते हैं। और यही कारण है कि जब चुनाव आते हैं, तब सोसाइटीज़ के बड़े पद पर बैठे लोग कैडर में काम करने वाले, उनके परिवार, समर्थकों का सहारा लेते हैं और अपना एजेंडा पूरा करते हैं।

ख़ैर... बात अगर नंदिनी दूध की करें तो कर्नाटक मिल्क फेडरेशन का दूध महज़ 39 रुपये प्रति लीटर बाज़ार में बिकता है। जबकि अमूल का दूध इससे काफी महंगा है। कर्नाटक में नंदिनी की पैठ का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अकेले बेंगलुरू के बाज़ार में 30 से 35 लाख लीटर दूध की ख़पत रोज है, जिसका 70 फीसदी आपूर्ति अकेले नंदिनी दूध करता है, बाकी 30 प्रतिशत में बाकी के बचे 15-16 अन्य ब्रांड का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में नंदिनी के कारोबार का बंटवारा सीधे तौर पर अमूल के साथ कर देना नंदिनी के लिए घाटे का सौदा हो सकता है।

अब अगर अमूल के मुकाबले तुलना करेंगे कि नंदिनी प्रोडक्ट्स इतने सस्ते क्यों मिलते हैं, तो इसके पीछे कारण है कि कर्नाटक सरकार इसपर सब्सिडी देती है, साल 2008 में येदियुरप्पा की सरकार ने एक लीटर दूध पर 2 रुपये की सब्सिडी की शुरुआत की थी। उसके बाद सिद्धारमैया की सरकार ने इस सब्सिडी को दोगुना कर दिया। इसके बाद फिर साल 2013 में येदियुरप्पा की सरकार ने सब्सिडी 6 रुपये प्रति लीटर कर दिया। ज्यादा सब्सिडी मिलने की वजह से नंदिनी के प्रोडक्ट्स सस्ते मिलते हैं।

थोड़ा बहुत नंदिनी की शुरुआत के बारे में जान लेते हैं, जो कर्नाटक मिल्क फेडरेशन का ब्रांड है। ये फेडरेशन कर्नाटक डेयरी को-ऑपरेटिव की अपेक्स बॉडी है। जो 1974 में गठित हुआ था। इस कंपनी की 16 मिल्क यूनियन हैं, जो प्राइमरी डेयरी कोऑपरेटिव सोसायटी से दूध लेती हैं और कर्नाटक के अलग-अलग जगहों पर इसकी आपूर्ति करती हैं। इस कंपनी ने अपनी पहली डेयरी कोडगू ज़िले में 1955 में स्थापित की थी।

इस पूरे प्रोसेस को नंदिनी नाम देने का वक्त 1983 में आया और इसके बाद 21 मार्च 1983 को कंपनी का पहला चारा संयंत्र राजनुकुंटे में शुरु किया गया।

अब बात मुख्य राजनीतिक मुद्दे अमूल की... किसानों की जिन्दगी गुजरात के खेडा जिले में बहुत ही मुश्किल और दयनीय हुआ करती थी जैसे भारत के कुछ हिस्सों में अभी भी है। फिर उनकी मेहनत का जो पैसा हुआ करता था वो कमीशन की तरह दलाल खा जाया करते थे। इस मुश्किल को कम करने के लिए किसानों ने सोचा कि हम खुद अपना उत्पादन करें और फिर उसको जाकर बाजार में बेचें। इस क्रान्तिकारी सोच ने ही अमूल को जन्म दिया।

अमूल तब शुरू हुआ था जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। सरदार वल्लभ भाई पटेल के हस्तक्षेप से 4 जनवरी 1946 में खेड़ा गुजरात में एक मीटिंग में इस पर विचार किया गया कि सरकार को सहयोगी गांवों में दुग्ध उत्पादन केंद्र बनाने चाहिए। फिर पहली सहकारी संस्था आणंद में बनाई गई जहां छोटे किसानों ने साथ में आकर हाथ मिलाया और एक गांव का एक सहकारी समूह तैयार किया जिसने अमूल के नाम से पूरे देश में सफलता प्राप्त की। इसका पंजीकरण दिसंबर 1946 में किया गया और फिर मुम्बई योजना के अन्दर दुग्ध उत्पादन की सप्लाई 1948 में शुरू की गई। 1973 में ये गुजरात सहकारी दुग्ध मार्केटिंग फ़ेडरेशन लिमिटेड में तबदील हो चुकी थी और अमूल के नाम से लोकप्रिय हुई।

गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड यानी जीसीएमएमएफ ने बयान में कहा है कि उसकी कमाई वित्त वर्ष 2022-23 में 18.5 फीसदी बढ़कर 55,055 करोड़ रुपये हो गई है। जीसीएमएमएफ के कुल टर्नओवर में ताजा उत्पादों की हिस्सेदारी 50 फीसदी है। जबकि आइसक्रीम की मांग में 41 फीसदी और उपभोक्ता उत्पादों में सालाना आधार पर 23 फीसदी का उछाल आया है। जबकि चीज, मक्खन, यूएचटी दूध, दुग्ध पेय पदार्थ, पनीर, क्रीम, छाछ और दही जैसे उत्पाद सालाना 20-40 फीसदी की दर से बढ़े हैं।

अमूल के कारोबार को देख कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आख़िर क्यों अमित शाह और मोदी सरकार इसे गुजरात के बहाने अपनी उपलब्धि की तरह पेश कर इसका एकछत्र राज पूरे देश में चाह रहे हैं। यह भी ज़ाहिर है इसमें काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या बहुत अधिक है। सिर्फ गुजरात की ही बात करें तो 18,600 गांवों में जीसीएमएमएफ के 36 लाख से अधिक किसान सदस्य हैं और 18 सदस्यीय यूनियन है।

ख़ैर, दूध चाहे नंदिनी हो या अमूल.. इन दिनों दोनों ही तगड़ा राजनीतिक उबाल मार रहे हैं। हालांकि अमूल पर केंद्र सरकार की कृपा है, तो नंदिनी को बचाए रखने के लिए विपक्ष लड़ रहा है। अब देखना ये होगा कि इनकी लड़ाई में कर्नाटक की जनता किसे चुनती है।

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