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कर्नाटक चुनाव और 10 मई : क्या बसवा और टीपू की धरती से 1857 की स्पिरिट पुनर्जीवित होगी

1857 की राष्ट्रीय क्रांति के लाखों वीर शहीदों के सपनों को आज रौंदा जा रहा है और उनकी क़ब्र पर एक नए भारत की तामीर की जा रही है, जो कई मायनों में दरअसल अंग्रेजों के vision की फ़ोटो कॉपी है।
1857

10 मई के दिन हर देशभक्त के लिए 1857 को याद रखना और नई पीढ़ी को उसे याद दिलाना बेहद जरूरी है, क्योंकि वह न सिर्फ हमारी आज़ादी की पहली लड़ाई थी, बल्कि उसने एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत के अभ्युदय की नींव रखी।

उस महासंग्राम के मूल्यों को, उस राष्ट्रीय क्रांति के लाखों वीर शहीदों के सपनों को आज रौंदा जा रहा है और उनकी कब्र पर एक नए भारत की तामीर की जा रही है, जो कई मायनों में दरअसल अंग्रेजों के vision की फ़ोटो कॉपी है।

आज हम एक ऐसे दौर के साक्षी हैं, जब इतिहास का न सिर्फ मिथकीय पुनर्लेखन और पुनर्व्याख्या हो रही है बल्कि वास्तविक घटित इतिहास को गायब किया जा रहा है, नई पीढ़ियों से उसे छिपाने के लिए पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है, उसके जीवित प्रतीकों/चिह्नों को भौतिक रूप से मिटाया जा रहा है, न सिर्फ शहरों, सड़कों और संस्थानों के नाम बदले जा रहे हैं, बल्कि हाल ही में राजधानी दिल्ली के मंडी हाउस जैसे इलाके से एक पूरी मजार के अचानक गायब होने का अकल्पनीय प्रकरण सामने आया।

हद तो यह है कि न सिर्फ अतीत, बल्कि वर्तमान के नंगे सच को भी झुठला कर-हमारी आंखों में धूल झोंक कर-

बिल्कुल कपोल कल्पित कहानियों को सच बताकर थोपा जा रहा है।

इस falsification की सबसे ताजा मिसाल द कश्मीर फाइल्स के बाद अब आयी फ़िल्म द केरला स्टोरी है। कर्नाटक के अहम चुनाव के ऐन मौके पर आयी मनगढ़ंत झूठ पर आधारित इस खौफनाक फिल्म का स्वयं मोदी जी प्रचार कर रहे हैं। फ़िल्म के टीज़र में दावा किया गया कि 32000 हिन्दू/ईसाई लड़कियो को लव जिहाद द्वारा धर्मांतरण करके ISIS में भर्ती करके अफगानिस्तान से इराक सीरिया तक जिहाद के लिए भेज दिया गया। इसका कहीं किसी तथ्य से लेना देना नहीं। यहां तक कि केरल उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप कर कहना पड़ा है कि 32000 लड़कियों को ISIS लड़ाका बनाने की बात को टीज़र से हटाया जाय।

एक ऐसे राज्य को जो मानव विकास सूचकांक में देश का सिरमौर है, जो देश में सर्वाधिक अल्पसंख्यक आबादी के बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द और अमन का मॉडल है उस केरल को ISIS भर्ती का हब और ticking time bomb बता कर पेश कर दिया गया! सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने ठीक कहा है कि इसका एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को खलनायक के रूप में चित्रित करना है।

बहरहाल, ऐन चुनाव के मौके पर आई फ़िल्म मोदी जी के लिए चुनाव का प्रमुख मसाला बन गयी है, वे फ़िल्म का प्रचार कर रहे हैं और फ़िल्म के बहाने अपनी विशुद्ध नफरती राजनीति का प्रचार कर रहे हैं, वे फरमा रहे हैं कि फ़िल्म ने ' Ugly truth of terrorism’ दिखाया है ! ठीक यही उन्होंने नफरती प्रोपेगेंडा फ़िल्म कश्मीर फाइल्स के लिये किया था।

हाथ से फिसलते कर्नाटक को बचाने के लिए desperate संघ-भाजपा मुस्लिम-विरोध में कितने अंधे हो गए हैं, इसी का नमूना है कि उन्होंने कर्नाटक में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के वीर नायक टीपू सुल्तान जो अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे, उन्हें भी नहीं बख्शा। ऐतिहासिक सच के विपरीत मनगढ़ंत कहानियों द्वारा पहले उन्हें हिन्दू-विरोधी साबित करने में लगे रहे, अब आते-आते बिल्कुल कपोल कल्पित गल्प का सहारा लेकर यह अफवाह फैलाने की कोशिश की गई कि वहाँ के प्रभावशाली वोक्कालिगा समुदाय के दो योद्धाओं ने टीपू सुल्तान की हत्या की थी। जाहिर है इस झूठी कहानी का उद्देश्य था हिन्दू विशेषकर वोक्कालिगा समुदाय को मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा करना और अपना वोट बैंक बनाना।

बहरहाल वह साजिश नाकाम हो गयी क्योंकि सदियों से मुस्लिम समाज के साथ प्रेम और सौहार्द के साथ रहते आये वोक्कालिगा समुदाय के प्रभावशाली मठों ने इसका जोरदार विरोध किया। नतीजतन इस पर फ़िल्म बनाने की योजना को वापस लेना पड़ा।

ज्ञातव्य है कि इसी तरह UP में गाज़ी मियां और सुहेलदेव के मिथकीय द्वंद्व के बहाने ये अपना नफरती खेल आजमा चुके हैं और उसकी चुनावी फसल काटने में सफल भी रहे हैं। लेकिन कर्नाटक की विशिष्ट सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में शायद इनकी दाल न गले।

दरअसल, 1857 की राष्ट्रीय क्रांति से अंग्रेजों ने जो सबसे बड़ा सबक लिया था वह यही था कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन के बिना वे भारत में राज नहीं कर सकते। स्तम्भकार अंशुल अविजित ने नोट किया है, " 1857 के बाद गढ़ी गईं नीतियां, अंग्रेजों द्वारा manufacture किये गए "सभ्यता संघर्ष " के औपनिवेशिक हौवे ( bogey ) पर आधारित थीं। तर्क यह था कि हिन्दू मुस्लिम हित परस्पर असमाधेय ( irreconcilable ) ही नहीं, बल्कि शत्रुतापूर्ण(antagonistic ) हैं। ऐसा महमूद गजनी के समय से ही है, जब उसने हिंदुस्तान की धन संपदा की लूट के लिए भारत पर हमला किया था। अंग्रेजों ने इस नैरेटिव को गढ़ा और इसे खाद पानी देकर बढ़ाया, इसे लोक-स्मृति का हिस्सा बनाया और इस तरह दोनों समुदायों के बीच एक ऐतिहासिक अविश्वास खड़ा कर दिया।

11वीं से 19वीं सदी के कालखंड की भारत की छवि देशी और विदेशी ताकतों के बीच एक अनवरत चलने वाले epic war के रूप में गढ़ी गयी। 1857 की जनक्रांति को अपनी खोई शान और राज पाट को वापस लाने का सुनियोजित " मोहम्मडन षडयंत्र " बना दिया गया! जो अंग्रेज स्वयं औपनिवेशिक लुटेरे थे, उन्होंने मुसलमानों की लुटेरों/आक्रांताओं की मिथ्या छवि गढ़ दी। "

हिंदुत्व के आदि सिद्धांतकारों ने, जो स्वयं अंग्रेजों के Divide and Rule के इसी औपनिवेशिक प्रोजेक्ट के प्रोडक्ट थे, उनके इसी मनगढ़ंत सिद्धांत को लपक लिया, यह उनके अपने आर्य श्रेष्ठता के पूर्वाग्रहों और पेशवाई की पुनर्वापसी के सपनों से मेल खाता था।

यह इतिहास का कितना क्रूर मजाक है कि जो धारा अपने को राष्ट्रवाद और अखंड भारत का एकमात्र अलम्बरदार मानती है तथा बाकी सबको देशद्रोही और टुकड़े-टुकड़े गैंग कहती है, उसके सबसे बड़े idealogue सावरकर ने two-nation theory गढ़ कर देश के भावी बंटवारे की नींव रखी थी। उस सावरकर से 1857 की विरासत को जोड़कर संघ-भाजपा उसके मूल सन्देश को ही dilute कर देते हैं।

अनायास नहीं है कि आज संघ-भाजपा के वर्चस्व वाला नया भारत ( new india ) बहुत कुछ अंग्रेजों की policy और राष्ट्रनिर्माण के मॉडल की नकल जैसा लगता है। न सिर्फ साम्राज्यवादी वैश्विक पूँजी और कारपोरेट के हाथों राष्ट्रीय सम्पदा की वैसी ही लूट और ब्रिटिश राज की याद दिलाने वाला भयानक दमन-चक्र, बल्कि वैसा ही मुस्लिम-द्रोह और चरम विभाजनकारी, नफरती अभियान जो और कुछ नहीं फासीवाद का भारतीय संस्करण है।

दुनिया यह देखकर दंग है कि 21वीं सदी के धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र भारत का प्रधानमंत्री चुनाव रैली में एक धर्म-विशेष की आस्था के प्रतीक बजरंगबली के नारे लगवा रहा है और उनके नाम पर वोट मांगते हुए लोगों की धार्मिक आस्था और लोकतन्त्र के मूल्यों, दोनों के साथ खिलवाड़ कर रहा है।

1857 साम्राज्यवाद के विरुद्ध आज़ादी के लिए हमारी साझी शहादत-साझी विरासत का, हिन्दू-मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा प्रकाश स्तम्भ है। 10 मई साम्राज्यवादपरस्त, विभाजनकारी फासीवादी राजनीति को निर्णायक शिकस्त देने के राष्ट्रीय संकल्प का दिन बने!

क्या सामाजिक समता के नायक बसवा और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के शहीद टीपू सुल्तान की धरती कर्नाटक से 10 मई के "शुभ दिन " इसका आगाज होगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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