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बात अभी बाक़ी है: छत्तीसगढ़ में अपार बहुमत पर सवार कांग्रेस कहां चूक गई?

इन चुनाव परिणामों में मध्य प्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ के परिणाम ने लोगों को सबसे ज़्यादा चौंकाया है। इसलिए इन परिणामों पर देर तक बहस होती रहेगी और होनी भी चाहिए। क्योंकि इससे ही 2024 की राह निकलती, सबक़ मिलता है।
Chhattisgarh

विष्णुदेव साय छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्री हैं। भाजपा ने पांच साल के वनवास के बाद यहां दोबारा सत्ता की कुर्सी हासिल की है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के परिणामों में मध्य प्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ के परिणाम ने लोगों को सबसे ज़्यादा चौंकाया है।

इन चुनावों से पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जहां 71 सीटों पर (2018 में 68 सीट + उपचुनाव में 3 और सीटों की बढ़ोतरी) खड़ी थी वह अचानक 33 सीटों के नुकसान के साथ 35 सीटों पर आखिर कैसे पहुंच गई? वहीं 2018 में 15 सीटों पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी 39 सीटों की बढ़त के साथ कैसे 54 सीटों का आंकड़ा छू लेती है?

इतना ही नहीं, कांग्रेस पार्टी ने 2018 में 43.04 फीसदी मतों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी और ताजा चुनाव में उसे 42.23 फीसदी मत हासिल हुए हैं। जो बमुश्किल डेढ़ फीसदी का घाटा है। इसके उलट, भाजपा ने पिछले चुनाव में 32.97 फीसदी मत हासिल किया था जबकि इस बार उसने 14 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 46.27 फीसदी मत हासिल किए हैं। यानी भाजपा के मतों में 14 फीसदी का इजाफा कांग्रेस के इतने ही नुकसान की कीमत पर नहीं हुआ है।

छत्तीसगढ़ का परिणाम ही ऐसा है कि जितने लोग उतनी तरह का चुनावी विश्लेषण देखने को मिल रहा है। लेकिन भाजपा छत्तीसगढ़ में  चुनाव जीतने की जो वजहें गिना रही है क्या वही वास्तविक हैं या कांग्रेस वाकई एंटी-इनकम्बेसी और अधिक किसान हितैषी दिखने के चक्कर में मात खा गई? या फिर आपसी खींचतान और भाजपा की रणनीति के सामने उसने घुटने टेक दिए?

छत्तीसगढ़ की कुल 90 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने पिछली बार 68 सीटें जीत कर सरकार बनाई थी। आदिवासी बहुल बस्तर संभाग की 12 सीटों में से 11 सीटों पर उसने जीत दर्ज की थी जबकि इस बार मात्र 3 सीटों पर ही उसके प्रत्याशी चुनाव जीत सके। दूसरे आदिवासी बहुल सरगुजा संभाग की सभी 14 सीटों पर पिछली बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी जबकि इस बार सभी सीटें कांग्रेस ने गंवा दी हैं। यानी बस्तर और सरगुजा को मिला कर कुल 26 सीटों में से कांग्रेस मात्र 4 सीटों पर जीत दर्ज कर सकी।

इसे यदि हम अनुसूचित जनजातियों के लिए राज्य विधानसभा में आरक्षित कुल 29 सीटों के संदर्भ में देखें, तो कांग्रेस 11 सीटों पर सिमट गई है। वहीं भाजपा ने 17 और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने एक सीट पर जीत दर्ज की है।

बस्तर और सरगुजा संभाग में बुरी तरह हारना निश्चित ही कांग्रेस की हार का एक बड़ा आयाम है। लेकिन गैर-जनजातीय इलाकों में हो रहे राजनीतिक प्रयोग को देखे बिना प्रदेश में कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत की सटीक समीक्षा नहीं की जा सकती है। छत्तीसगढ़ का गैर-जनजातीय इलाका किसान बहुल होने के साथ-साथ शहरी सीटों वाला भी है। सवाल यह है कि जिस गैर-जनजातीय इलाके के भरोसे कांग्रेस चुनावी मैदान में ताल ठोंक रही थी वहां की शहरी सीटों पर बढ़त बनाने में वह क्यों नाकाम रही?

अधिक किसान हितैषी दिखना कांग्रेस को पड़ा भारी?

2018 में शपथ ग्रहण के बाद कांग्रेस सरकार ने किसानों की कर्जमाफी और 2500 रुपये प्रति क्विंटल धान खरीदी पर तत्काल मुहर लगाकर अपना वादा निभाया। पांच साल तक सरकार के विज्ञापनों में चारों ओर किसान ही किसान नजर आते रहे। लोगों की मानें तो किसानों की अपेक्षा आदिवासियों या अन्य वर्गों पर कांग्रेस ने अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया।

छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने पिछले पांच वर्षों में राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया के सवालों का सबसे कम सामना किया। यहां के लोग इसकी मुख्य वजह सरकार द्वारा विज्ञापन पर अकूत खर्च बताते हैं।

विज्ञापन पर तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा खर्च की गई धनराशि पर पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह द्वारा सदन में पूछे गए सवालों का जवाब देते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने बताया था, “दिनांक 1 जनवरी 2019 से 15 जून 2021 तक प्रिंट मीडिया को 92,29,23,126 रुपये का तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1,16,42,62,302 रुपये का विज्ञापन दिया गया, (ख) उक्त अवधि में प्रिंट मीडिया को 85,06,96,916 रुपये का तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1,05,25,83,704 रुपये का भुगतान किया गया है।”

कांग्रेस सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में देश में सबसे अधिक दर पर धान खरीद, नरवा, गरवा, घुरवा, बारी योजना और गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ जैसी योजनाएं केंद्र में रहीं। छत्तीसगढ़ की राजनीति के जानकारों की मानें तो किसान और गांव केंद्रित योजनाओं के अधिक प्रचार के कारण शहरी सीटों पर इसका दुष्प्रभाव कांग्रेस को झेलना पड़ा।

तीन करोड़ की आबादी वाले राज्य छत्तीसगढ़ में आदिवासी लगभग 32 फीसदी, पिछड़ी जातियां 47 फीसदी और दलित लगभग 13 फीसदी हैं जिसमें विधानसभा की 29 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए और 10 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। शहरी सीटों की संख्या 19 है जिसमें कांग्रेस 18 सीटों पर हार चुकी है। एक मात्र शहरी सीट भिलाई नगर पर कांग्रेस प्रत्याशी देवेन्द्र यादव ने 1264 वोटों से जीत दर्ज की है।

कांग्रेस सरकार में सभी मंत्री लगभग शहरी सीटों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे लेकिन इस बार शहरी सीटों पर कांग्रेस को लेकर जनता में खासी नाराजगी देखने को मिली। इसके पीछे का मुख्य कारण बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं, “कांग्रेस सरकार की कई योजनाएं ऐसी रहीं जिन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने का काम किया। हालांकि उनका इम्प्लीमेंटेशन और विजिलेन्स ठीक से नहीं हुआ। शहरी लोगों को लगा कि गांवों में तो काम हो रहा है लेकिन शहरों में कुछ नहीं हो रहा। यह सच भी है कि रायपुर, भिलाई, अम्बिकापुर जैसे शहरों में कांग्रेस ने कुछ नहीं किया।

वे कहते हैं, दूसरी ओर भाजपा तमाम वादों के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में भी सफल रही। साजा सीट से भाजपा के प्रत्याशी ईश्वर साहू जिनका कोई राजनीतिक इतिहास नहीं है- उन्होंने कांग्रेस के एक कद्दावर नेता को हरा दिया। भाजपा का हिंदू कार्ड शहरी सीटों पर चला, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।”

राजनीतिक विश्लेषक हर्ष दुबे भी शहरी सीटों पर कांग्रेस की हार का एक कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को मानते हैं लेकिन वे भ्रष्टाचार को भी एक अहम मुद्दा मानते हैं।

हर्ष दुबे कहते हैं, “कांग्रेस सरकार एक भ्रष्टाचारी सरकार है यह बताने में भाजपा सफल रही। जो आइटी-ईडी छापे पड़े वे इसे स्थापित भी करते हैं। मतदान से चंद रोज पहले महादेव बेटिंग ऐप के मामले ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। मोदी ने अपनी रैलियों में मंच से ‘तीस टका भूपेश कका’ का नारा दिया। शहरी सीटों पर इसका प्रभाव देखने को मिला। इसके साथ-साथ कांग्रेस ने अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से एजाज ढेबर को राजधानी का महापौर बनाया था जिसका गलत संदेश गया। छत्तीसगढ़ के चुनाव में इस बार से पहले धार्मिक ध्रुवीकरण देखने को नहीं मिला था लेकिन इस बार इससे इनकार नहीं किया जा सकता।”  

कांग्रेस के दूध भरे भगोने में नींबू साबित हुए सिंहदेव?

पिछले चुनाव में सरगुजा संभाग की सभी 14 सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस बार कैसे सभी 14 सीटें हार गई आज भी यह आश्चर्यजनक प्रश्न बना हुआ है। सरगुजा संभाग के कद्दावर नेता, मंत्री व डिप्टी सीएम टी एस सिंहदेव स्वयं अपनी सीट करीबी मुकाबले में 94 मतों से हार गए। हारे हुए नौ मंत्रियों में सिंहदेव भी शामिल हैं। राजनीतिक पंडितों की मानें तो आदिवासी बहुल सरगुजा संभाग में पिछली बार कांग्रेस की एकतरफा जीत की मुख्य वजहों में सिंहदेव के मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं पर चर्चा रही है।

2018 के चुनाव में कांग्रेस के बहुमत पाने के तुरंत बाद से ही भूपेश बघेल और सिंहदेव के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर खींचतान की खबरें आने लगी थीं। भूपेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी सिंहदेव समय-समय पर मंत्री पद छोड़ कर या मीडिया से अपनी ही सरकार की आलोचना कर उनसे नाराजगी का इजहार करते रहे हैं। चुनाव से एक साल पहले शीर्ष नेतृव के हस्तक्षेप के बाद सिंहदेव को डिप्टी सीएम तो बना दिया गया, लेकिन इसके साथ क्या आंतरिक कलह समाप्त हो गई? या फिर कांग्रेस पार्टी की हार में सिंहदेव की नाराजगी भी एक वजह है?

चुनाव से तीन महीने पहले 25 जुलाई, 2023 को कांग्रेस विधायक बृहस्पति सिंह के काफिले पर हमला हुआ और गाड़ियों को तोड-फोड दिया गया। इस घटना को लेकर बृहस्पति सिंह ने दावा किया था कि यह हमला टीएस सिंहदेव के इशारे पर हुआ है। बृहस्पति सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान आरोप लगाया था, “मेरी जान को खतरा है। मेरे ऊपर हुए हमले के पीछे मंत्री टीएस सिंहदेव हैं।”

एक महीने बाद सिंहदेव ने बृहस्पति सिंह का नाम लिए बगैर कहा कि “किसी ने सीमा पार कर मुझ पर जान के खतरे का आरोप लगाया। वहां समझौता नहीं हो सकता।” उन्होंने कहा कि “आगे क्या होगा, लोग जानें, पार्टी जानें, लेकिन मेरी तरफ से समझौता नहीं होगा।”

अंत में पार्टी को अपने मौजूदा विधायक बृहस्पति सिंह का टिकट काटना पड़ा और वहां से सिंहदेव के करीबी को प्रत्याशी बनाया गया, हालांकि वह सीट कांग्रेस बड़े अंतर से हार गई। इसी तरह पड़ोस की सामरी सीट पर पहले सिंहदेव के करीबी रहे और बाद में विरोधी हो गए कांग्रेस के विधायक चिंतामणि महाराज का टिकट काट कर सिंहदेव के करीबी को पार्टी ने टिकट दे दिया, लेकिन वह सीट बचाने में भी कांग्रेस नाकाम रही। इसी तरह कांग्रेस की पारंपरिक सीट सीतापुर से प्रदेश के निवर्तमान संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत 17160 मतों से भाजपा प्रत्याशी रामकुमार टोप्पो से चुनाव हार गए। स्थानीय राजनीतिक लोगों की मानें तो अमरजीत भगत भूपेश गुट के थे और टीएस बाबा को अपने ही गढ़ में उनका होना कभी पसंद नहीं आया।

एक वरिष्ठ पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “चुनाव आते-आते सिंहदेव ने अंत तक पार्टी को अपनी शर्तें मानने के लिए मजबूर कर दिया था। सिंहदेव ने वीटो लगाकर दस से अधिक सीटों पर अपने करीबी लोगों को टिकट दिलवाया। उसमें से एक भी प्रत्याशी चुनाव मैदान में जीत की दहलीज तक नहीं पहुंच सका।”

सिंहदेव को डिप्टी सीएम बनाए जाने के बाद दोबारा सवाल उठने तब शुरू हुए जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के केंद्र पर भेदभाव के आरोपों को नकारते हुए उन्होंने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर दी। इसी साल अक्टूबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रायगढ़ में 6350 करोड़ रुपये की रेल परियोजनाओं के लोकार्पण के लिए पहुंचे थे। कार्यक्रम में मंच पर डिप्टी सीएम सिंहदेव भी मौजूद थे। सिंहदेव ने केंद्र की तारीफ करते हुए मंच से कहा, “केंद्र के मार्गदर्शन में राज्य अपनी जिम्मेवारी निभाते हुए सदैव काम करता रहा है और मैं यह कहने से भी नहीं चूकना चाहूंगा कि मेरे अनुभव में मैंने भेदभाव महसूस नहीं किया।”

क्या इससे सरगुजा संभाग समेत राज्य के अन्य क्षेत्रों में यह संदेश गया कि प्रदेश के लिए कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा ज्यादा हितकारी है?

सामाजिक कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं, “मुझे लगता है की कांग्रेस की हार में टीएस सिंहदेव की नाराजगी जरूर एक वजह है, लेकिन कई और वजहें हैं जिससे पार्टी चुनाव में बुरी तरह हारी। सरकार बनने के बाद से ही लगातार संवादहीनता की स्थिति बनी रही। जिस उम्मीद से आदिवासी लोगों ने सरगुजा और बस्तर संभाग में कांग्रेस को वोट दिया था कांग्रेस उसपर खरा नहीं उतरी। सरगुजा संभाग में एक वजह सिंह देव को मुख्यमंत्री न बनाया जाना है, तो दूसरी वजह धर्मांतरण के मुद्दे पर सरकार की चुप्पी भी है।”

आदिवासी सीटों पर कांग्रेस साफ

राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि धान किसानों और छत्तीसगढ़ियावाद के भरोसे कांग्रेस के बहुमत हासिल करने के सपनों पर आदिवासी सीटों ने पानी फेर दिया। छत्तीसगढ़ में यह बहस काफी पुरानी है कि जो मैदानी इलाकों की बोली, भाषा, पहनावा और संस्कृति है वही संस्कृति बस्तर और सरगुजा संभाग की नहीं है? पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पहले नेता हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ की राजनीति में कई नए प्रयोग किए। चाहे वह राजनीति के केंद्र में धान किसानों को लाना हो या छत्तीसगढ़ियावाद को बढ़ावा देने की बात हो या ओबीसी राजनीति की शुरुआत हो। राजनीतिक विश्लेषक इन राजनीतिक प्रयोगों के लिए चुनाव परिणाम को फेल का सर्टिफिकेट मान रहे हैं।

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भूपेश बघेल के राजनीतिक प्रयोग ने भाजपा को सोचने के लिए मजबूर कर दिया। यही करण है कि इस बार भाजपा को धान खरीद 3100 रुपये प्रति क्विंटल का वादा करना पड़ा और पिछला दो सालों का बकाया बोनस देने का वादा करना पड़ा। वहीं भाजपा को ओबीसी राजनीति और छत्तीसगढ़ियावाद पर भी आगे बढ़ते देखा गया।

इस पर सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविन्द नेताम कहते हैं, पिछले कुछ समय से बस्तर में कई आंदोलन चल रहे हैं। सिलगेर में ढाई साल से आदिवासियों का आंदोलन चल रहा है और चार लोगों की मौत हो चुकी है। आपको जानकार आश्चर्य होगा, कांग्रेस सरकार का एक मंत्री इधर देखने तक नहीं आया। उत्तर प्रदेश में किसान मारे गए तो हमारे मुख्यमंत्री 50 लाख मुआवजा देकर आए लेकिन यहां झांकने भी नहीं आए।”

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार बनने के कुछ महीनों बाद ही भूपेश बघेल ने ओबीसी राजनीति को मजबूत करने के लिए नई आरक्षण व्यवस्था लागू करते हुए अनुसूचित जाति का आरक्षण 12 फीसदी से बढ़ा कर 13 फीसदी और ओबीसी का आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी कर दिया था, लेकिन हाई कोर्ट ने बाद में इसपर रोक लगा दी। सवाल यह है कि ओबीसी राजनीति को मजबूत करने की बात को क्या भूपेश बघेल ओबीसी के बीच ले जाने में सफल हुए? यह सवाल इसलिए क्योंकि इस बार ओबीसी की प्रमुख जातियां साहू, यादव और निषाद चुनाव में कांग्रेस से दूर रहे।

कांग्रेस के नेता चुनाव में मंचों से लगातार ओबीसी जनगणना कराने और उन्हें अधिकार दिलाने की बात करते नजर आए। इसका असर परिणाम में देखने को तो नहीं मिल रहा है।

कांग्रेस की ओबीसी राजनीति पर आदिवासी नेता प्रकाश ठाकुर कहते हैं, “भूपेश सरकार ओबीसी केंद्रित राजनीति कर रही थी। हम आदिवासियों स्थानीय भर्ती (तृतीय और चतुर्थ श्रेणी) के संदर्भ में जिरह तक नहीं की। पंद्रह सालों तक रमन सरकार ने कुछ नहीं किया था, तो हमें उम्मीद थी कि यह सरकार (कांग्रेस) कुछ करेगी लेकिन इसमें भी कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस सरकार बोलती जरूर थी आदिवासियों के विकास के बारे में लेकिन होता हुआ कुछ नजर नहीं आ रहा था। इस सरकार में भूपेश बघेल ही सबकुछ थे। कोई विधायक काम करवा पाने की स्थिति में नहीं था।”

प्रकाश ठाकुर नई भाजपा सरकार के बारे में कहते हैं, हमें पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में बस्तर में आदिवासियों की स्थिति बदतर होगी। बस्तर में चुनाव जीतने के लिए अडानी ने पैसा लगाया है उसके बदले भाजपा सरकार कानून संशोधित करके उन्हें खनिज भंडार दे देगी। इस सरकार में किसी को भी नक्सली घोषित कर दिया जाएगा। कांग्रेस सरकार में बस्तर में ज्यादती न के बराबर थी।”

दो-ध्रुवीय हो जाने का लाभ किसे?

चुनाव से पहले चर्चा थी कि इस बार छत्तीसगढ़ में तीसरे फ्रंट के दल कुछ कमाल कर सकते हैं लेकिन चुनाव परिणाम में ऐसा नजर नहीं आता। छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी, जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे), गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, आम आदमी पार्टी और हमर राज पार्टी जैसे दल मैदान में आए लेकिन अकेले गोंडवाना पार्टी ने एक सीट पाली तानाखार पर 717 वोटों से जीत दर्ज की। बाकी दलों का खाता नहीं खुला।

पिछली बार जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) पांच सीटों पर और बसपा दो सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल हुई थी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) की प्रमुख सीटों पर इस बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। तीन प्रमुख सीटों पाटन, अकलतरा और कोटा में जोगी कांग्रेस के प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहे।

इसी तरह जैजैपुर, मस्तूरी और पामगढ़ में पिछली बार बसपा ने दो सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि इस बार तीनों सीटों पर बसपा तीसरे स्थान पर रही और कांग्रेस ने तीनों पर बड़े अंतर से जीत दर्ज की। इससे यह पता चलता है कि सतनामी और बसपा के कोर दलित मतदाताओं ने भाजपा से अधिक कांग्रेस पर विश्वास जताया है।

सवा सौ साल से कांग्रेस से जुड़े परिवार के भूजीत दोशी मानते हैं कि तीसरे मोर्चे के दल भले ही अधिक वोट हासिल न कर सके हों, लेकिन कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनने में इनकी बड़ी भूमिका रही है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूजीत दोशी कहते हैं, “पहले दिन से ही भूपेश बघेल पार्टी से बड़े दिखने लगे। वे संदिग्ध नामी-गिरामी नेता, अराजनीतिक सलाहकारों, अधिकारियों और व्यापारियों से घिर गए और वहीं से गलती करनी शुरू कर दी। मोदी को कॉपी करते हुए प्रदेश और दिल्ली मीडिया में पैसे और सत्ता के दम पर वे अपनी छवि को चमकाने में लग गए। मीडिया में तो भूपेश बघेल का चेहरा चमकता रहा लेकिन जनता में छवि धूमिल होती चली गई और आज उसे आप परिणामों में देख सकते हैं।”

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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