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काशी-तमिल संगमम 2.0 : दो संस्कृतियों का मेल या बीजेपी का पॉलिटिकल एजेंडा ?

"काशी-तमिल संगगम का आयोजन टैक्सपेयर के पैसे से हो रहा है। इसका आयोजन काशी में ही क्यों हो रहा है, जिसे दक्षिण भारत के लोग संस्कृत का मठ, हिन्दुत्व और सनातन के सबसे बड़े केंद्र के रूप में जानते हैं? तमिल भाषा और उसकी संस्कृति के महत्व को बताने के लिए बनारस का चयन क्यों किया गया? आम आदमी भी समझ सकता है कि यह बीजेपी का पॉलिटिकल एजेंडा है।"
kashi program

17 दिसंबर 2023 को बनारस के नमो घाट पर काशी-तमिल संगमम 2.0 की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "तमिलनाडु से काशी पहुंचने का मतलब मदुरै मीनाक्षी से काशी विशालाक्षी तक और महादेव के एक घर से दूसरे घर तक आना है। काशी में बाबा विश्वनाथ हैं, तो तमिलनाडु में भगवान रामेश्वरम का आशीर्वाद है। काशी और तमिलनाडु, दोनों शिवमय हैं, दोनों शक्तिमय हैं। एक स्वयं में काशी है, तो तमिलनाडु में दक्षिण काशी है।"

काशी-तमिल संगगम 2.0 में तमिलनाडु के अलग-अलग जिलों से 1400 प्रतिनिधियों को बुलाया गया है। पहले जत्थे में वहां से आए लोगों में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई शामिल हैं तो केंद्रीय मंत्री एल.मुरुगन भी। इनकी मौजूदगी में पीएम ने कई मर्तबा बनारस और तमिलनाडु की सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विरासत का जिक्र किया। बनारस से लगायत रामेश्वरम तक सियासी संभावनाएं भी टलोली। साथ ही बनारस माडल भी पेश किया। मोदी ने दावा किया, "तमिलनाडु और बनारस के बीच नाता सदियों पुराना है। अयोध्या के राम ने रामेश्वर में रामेश्वरम महादेव की स्थापना की थी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास ने संगमम की सफलता के लिए हाथ मिलाया है, जो ''एक भारत-श्रेष्ठ भारत'' की भावना को मजबूत कर रहा है।''

लोकसभा चुनाव से पहले दक्षिण को साधने में जुटी बीजेपी सरकार ने हाल ही में काशी से कन्याकुमारी के बीच ट्रेन चलाई है। इसी ट्रेन से तमिलनाडु से आमंत्रित लोगों को बनारस लाया जा रहा है। मेहमानों के सेवा सत्कार के लिए केंद्र सरकार के कई महकमों को जिम्मेदारी सौंपी गई है। योगी सरकार ने भी इन्हें विशेष अतिथि का दर्जा दिया है। साथ ही सरकार के खर्च पर सभी को प्रयागराज और अयोध्या घुमाने का निर्णय लिया है। तमिलनाडु के लोगों के दिलों में बीजेपी के प्रति संवेदना जगाने के लिए सरकार ने पिछले साल तमिल मूल के आईएएस अफसर एस.राजलिंगम को बनारस का कलेक्टर नियुक्त किया था। तमिलनाडु से आने वाले लोगों को समझने और समझाने की जम्मेदारी इन्हें ही सौंपी गई है।

लोकनृत्य पेश करते कलाकार

काशी-तमिल संगमम 2.0 ऐसी मुहिम के तौर पर देखा जा रहा है जो तमिलनाडु और काशी के बीच प्राचीन संबंधों को न सिर्फ जोड़े बल्कि उसे युवा पीढ़ी तक भी पहुंचाए। आलोचकों के मुताबिक यह कार्यक्रम तमिल भाषा के विकास के लिए नहीं है, बल्कि संस्कृत भाषा को प्रभुत्व देने वाला है। पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, दो सबसे प्राचीन संस्कृतियों के समागम का उत्सव ‘काशी-तमिल संगमम’ का दूसरा चरण 17 से 30 दिसंबर 2023 तक आयोजित किया जाएगा।

काशी-तमिल संगमम में शामिल होने के लिए तमिलनाडु के करीब 1400 लोग आठ दिन के गहन दौरे पर आएंगे। कुल सात समूहों में दो-दो सौ लोग ट्रेन से आएंगे। बनारस के बाद वो प्रयागराज और अयोध्या की यात्रा भी करेंगे। इनमें छात्र, शिक्षक, किसान, कारीगर, व्यापारी, व्यवसायी, धार्मिक व्यक्ति, लेखक और पेशेवर लोग शामिल होंगे। प्रत्येक समूह का नाम एक पवित्र नदी (गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी) के नाम पर रखा जाएगा।

बनारस में नमो घाट पर तमिलनाडु और काशी की कला व संस्कृति, हथकरघा, हस्तशिल्प, व्यंजन और अन्य विशेष उत्पादों का प्रदर्शन करने वाले स्टॉल लगाए जाएंगे। इसी घाट पर तमिलनाडु और काशी की संस्कृतियों के मिश्रण वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगे। इस दौरान विशेषज्ञों की बैठकें और चर्चाएं भी आयोजित की जाएंगी। बीएचयू और आईआईटी मद्रास, इस आयोजन के नॉलेज पार्टनर बनाए गए हैं।

"संगमम एक पॉलिटिकल एजेंडा"

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "काशी-तमिल संगमम एक पॉलिटिकल एजेंडा है। एक तयशुदा एजेंडे के जरिये दक्षिण भारत के लोगों को मोदी का बनारस माडल दिखाने के लिए सरकारी खर्च पर लाया जा रहा है। जो लोग बनारस नहीं आ पा रहे थे, तमिल संगगम उनके लिए नए पर्यटन का जरिया बन गया है। बीएचयू के जरिये सरकार अपने पॉलिटिकल एजेंडे को तमिल संगमम के रूप में नया मंच दे रही है। बीजेपी सरकार को लगता है कि तमिलनाडु लोगों के मन में काशी को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर है। यह एक ऐसी मुहिम है जिससे दक्षिण और उत्तर के बीच की वैचारिक खाईं पाटी जा सकती है। यह कार्यक्रम विशुद्ध रूप से सियासी मुनाफा कूटने का एक जरिया है।"

"बनारस के प्रति दक्षिण भारत के लोगों की आस्था और इस शहर से संबंध सदियों पुराना है। तमिलनाडु के तेनकासी में 13वीं सदी में स्थापित काशी विश्वनाथ मंदिर का जिक्र करते हुए राजेंद्र कहते हैं, "तेनकासी दक्षिण की काशी है। काशी तो दक्षिण के लोगों ने मन-मिजाज में बहुत दिनों से रची-बसी है। बनारस में सर्वाधिक दर्शनार्थी और पर्यटक दक्षिण भारत से ही आते हैं। दक्षिण भारतीयों के मन में उत्कंठा रहती है कि वो एक बार काशी जरूर आएं और विश्वनाथ मंदिर और गंगा का दर्शन करें। उत्तर भारत की मेन स्टीम की सियासत में शामिल बीजेपी दक्षिण की राजनीति में नहीं घुस पा रही थी। इस लिए अब काशी-तमिल संगमम की मुहिम चलाई जा रही है, ताकि वहां के युवाओं का मन-मिजाज आसानी से बदला जा सके। "

महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "आज़ादी के 76 बरस गुजर गए। एलटीटीई (लिट्टे) मूवमेंट और भाषा व संस्कृति के सवाल पर दक्षिण के राज्य उत्तर से आज भी कटे हुए हैं। पिछले साल जब कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनी तो बीजेपी की नींद उड़ गई। अब तमिल संगमम के जरिये नए सिरे से दक्षिण को साधने का प्रयास किया जा रहा है। बनारस के लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि यहां हनुमान घाट पर तमिल समुदाय के 55-60 परिवारों के करीब साढ़े तीन सौ लोग रहते हैं। इनकी कई पीढ़ियां बनारस में मर-खप चुकी हैं। वो लोग अब तमिलनाडु नहीं जाना चाहते। इनका वहां के लोगों से कोई खास सरोकार नहीं रह गया है। बीजेपी अब बनारस के तमिल नागरिकों को अपने साथ लेकर तमिलनाडु में पैठ बनाने के लिए एक नई मुहिम शुरू की है।"

दूसरी ओर, बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजकुमार जायसवाल कहते हैं, "काशी-तमिल संगमम के पीछे पीएम नरेंद्र मोदी की दूरदर्शी और नेक सोच है। इस आयोजन के जरिये वह दो अलग-अलग भाषा और संस्कृतियों को एक करने की कोशिश कर रहे हैं। हम भारतवासी एक होते हुए भी बोलियां, भाषाओं, वेशभूषा, खान-पान रहन-सहन जैसी विविधता से भरे हैं। भारत की विविधता उस आध्यात्मिक चेतना में रची बसी है, जिसके लिए तमिल में कहा गया है कि हर जल गंगा जल है और भारत का हर भूभाग काशी है। तमिल संगमम के जरिए देश के युवाओं में अपनी प्राचीन परंपराओं के प्रति उत्साह बढ़ा है। हम चाहते हैं कि लोग काशी आकर हमारी संस्कृति को देखें। यहां जो विकास हो रहा है, उसे और नए भव्य विश्वनाथ कारिडोर को देखें और मंदिर में दर्शन-पूजन भी करें।"

"काशी-तमिल संगमम में जो लोग तमिलनाडु से आएंगे वो एकता का दूत बनकर इस आयोजन में शामिल होंगे। काशी-तमिल संगमम से तमिल भाषा और संस्कृति की महानता को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। हम युवा पीढ़ी को काशी और तमिलनाडु के संबंधों के बारे में बताना चाहते हैं। हम कोई नई बात नहीं कर रहे हैं। जो लोग तमिल संगमम का वैचारिक रूप से विरोध कर रहे हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि बीजेपी भाषा, क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति नहीं करती। काशी तमिल संगमम न सिर्फ हमारी विरासत को सशक्त करेगी, बल्कि एक भारत श्रेष्ठ भारत की भावना को भी मजबूती भी देगी।"

"तमिल को साध पाना आसान नहीं"

युवा राजनातिक विश्लेषक प्रज्ञा सिंह  बीजेपी के दावों पर इत्तेफाक नहीं रखतीं। वह कहती हैं, "काशी-तमिल संगगम का आयोजन टैक्सपेयर के पैसे से हो रहा है। इसका आयोजन काशी में ही क्यों हो रहा है, जिसे दक्षिण भारत के लोग संस्कृत का मठ, हिन्दुत्व और सनातन के सबसे बड़े केंद्र के रूप में जानते हैं। तमिल भाषा और उसकी संस्कृति के महत्व को बताने के लिए बनारस का चयन क्यों किया गया? आम आदमी भी समझ सकता है कि यह बीजेपी का सियासी एजेंडा है। आमतौर पर भाषाओं के विकास का काम भारतीय भाषा समिति का है और इस आयोजन में इस समित का कोई खास रोल नजर नहीं आ रहा है। बीजेपी यदि तमिल भाषा और उसकी संस्कृति को बढ़ावा देना चाहती तो तमिल संगमम का आयोजन वहां किया जाता। तब शायद तमिलनाडु के लोगों को ज़्यादा फ़ायदा भी होता।"

"बीजेपी बनारस की विविधताओं वाली संस्कृति को दिखाकर तमिल के लोगों का मिजाज बदलने की मंशा रखती है। वह लोगों को यह क्यों नहीं बता रही है कि तमिल भाषा संस्कृत से पांच सौ साल अधिक पुरानी है। तमिल तो सभी भारतीय भाषाओं में सबसे प्राचीन है। यही वजह है कि तमिलनाडु के लोग भाषा के सवाल पर कोई दबाव बर्दाश्त नहीं करते। तमिल भाषा को वो अपनी संस्कृति और अपनी पहचान मानते हैं और उसके साथ किसी तरह का घालमेल भी उन्हें बर्दाश्त नहीं है। वो अपनी संस्कृति, भाषा और विविधिताओं में भरोसा रखते हैं। ऐसे में एक भारत-श्रेष्ठ भारत की छतरी के नीचे आकर वो किसी दूसरी भाषा को कैसे आत्मसात कर लेंगे?"

दक्षिण और उत्तर भारत की संस्कृति के सवाल को उठाते हुए प्रज्ञा कहती हैं, "बनारस को गप्पियों का शहर भी माना जाता रहा है। यहां के गप्प में जो मजा है वो सारे जहां के सच में भी नहीं है। बनारस का गप्प और गालियां सुनकर इस अनूठे शहर में आने वाले लहालोट हो जाते हैं। उत्तर भारत के लोग भवानाओं में जीने के आदी हैं, लेकिन दक्षिण वाले रियल्टी पर भरोसा करते हैं। काशी तमिल संगगम के आयोजन के दम पर बीजेपी के लिए दक्षिण में अपने पैर जमाना आसान नहीं है। उसके सामने पहाड़ जैसी चुनौतियां हैं, क्योंकि दक्षिण भारत के राज्यों में बनारस की तरह तामझाम और दिखावा नहीं चलता है। वहां तो सिर्फ वही सरकार चल पाएगी जो दिखावा करने के बजाय रियल्टी में काम करते हुए दिखेगी। दक्षिण में बीजेपी का सफाया हो चुका है। अब वह सोच रही है कि काशी-तमिल संगमम के जरिये तमिलनाडु में सियासी लाभ उठा लेगी, लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं है।"

वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र राय कहते हैं, "धर्म और संस्कति की आड़ लेकर काशी-तमिल संगमम का आयोजन किया जा रहा है। इस आयोजन के जरिये वो अपना सियासी मंसूबा पूरा करना चाहते हैं। इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने बनारस से कन्याकुमारी तक ट्रेन चलाई और संसद में सिंगोल भी लगवाया। हालांकि तमिलनाडु की राजनीति में बीजेपी की कोई औकात नहीं है, जबकि कांग्रेस की भूमिका यह है कि वह जिस दल के साथ जुड़ जाती है, उसकी सरकार बन जाती है। कांग्रेस की तरह बीजेपी इसी भूमिका में आना चाहती थी। इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने पिछले चुनाव में अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (AIADMK) से चुनावी गठबंधन किया था। हालांकि कुछ महीने पहले अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने यह कहते हुए उससे समझौता तोड़ लिया था कि बीजेपी को अपनी हैसियत पता होनी चाहिए। उनके पास तो कोई वोटबैंक ही नहीं। बीजेपी तो हमारी वजह से ही तमिनाडु में जानी जाती हैं।"

तमिलनाडु की सियासत में बीजेपी का कुल अस्तित्व सिर्फ इतना है कि साल 2021 के विधानसभा चुनाव में वह दो दशक बाद सिर्फ चार सीटें ही जीत पाई। वह भी तब जब उसने एआईडीएमके के साथ गठबंधन किया। एआईडीएमके ने भी अब बीजेपी के अपना नाता तोड़ लिया है। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो बीजेपी ने साल 1996 में पहली मर्तबा तमिलनाडु में एक सीट जीती थी। उसके बाद साल 2001 में डीएमके के साथ गठबंधन कर वह चुनाव लड़ी तो उसे चार सीटें मिलीं। साल 2006, 2011 और साल 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का तमिलनाडु में खाता ही नहीं खुल सका। काशी-तमिल संगमम के जरिये तमिलनाडु को साधने का बीजेपी का मास्टर प्लान कितना असर दिखाएगा, फिलहाल कुछ कह पाना मुश्किल है।

"बीजेपी को राम और शिव दोनों चाहिए"

काशी-तमिल संगमम के जरिये तमिलनाडु में पैठ बनाने की बीजेपी की कोशिशों के सवाल पर बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आरएसएस के हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बन चुकी है। बीजेपी जानती है कि राम के जरिये वह सिर्फ उत्तर भारतीयों में अपनी पैठ बना सकती है। तमिलनाडु को साधने के लिए राम नहीं, शिव जरूरी हैं। बीजेपी को लगता है कि उत्तर में राम के जरिये और दक्षिण में शिव के जरिये ही वह अपनी राजनीति को विस्तार दे सकेगी। बाबा विश्वनाथ बीजेपी की सियासत की एक कड़ी बनते जा रहे हैं। इसी मकसद को पूरा करने के लिए काशी से कन्या कुमारी तक ट्रेन चलाई गई है। बीजेपी हर काम अपने सियासती मकसद के हिसाब से करती है। ऐसे में वह तमिल संगगम का आयोजन करेगी तो जनता उसमें भी उसके मूल चरित्र को ढूंढने की कोशिश जरूर करेगी।"

"बीजेपी जनता में ऐसी छवि बनाना चाहती है कि वह तमिल समुदाय की तरक्की और उसकी भाषा के विकास के लिए वह बहुत फिक्रमंद है। शायद इसी मकसद से पिछले दो सालों से तमिल संगमम का शुभारंभ करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बनारस आ रहे है। बीजेपी सरकार अगर तमिल की अहमियत पर बात करना चाहती है तो उसे कीलाडी और आदिचनल्लूर में उत्खनन की रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए। बनारस और तमिल के लोगों को यह भी बताना चाहिए कि भारतीय सभ्यता हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से नहीं, तमिलनाडु में शुरू हुई थी। हमें लगता है कि लगता है कि तमिल संगमम को बीजेपी ने तयशुदा एजेंडे के तहत प्लान किया है। इस कार्यक्रम का असर कितना होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।"

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं, "बनारस और तमिलनाडु के लोगों में कोई खास तालमेल नहीं है। तमिलनाडु के लोगों को हिन्दी अच्छी नहीं लगती। यही वजह है कि तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आंदोलन अभी तक नहीं थमा है। पीएम मोदी दक्षिण और उत्तर के अचेतन मन में धर्म के जरिये दो संस्कृतियों को मिलना चाहते हैं। लेकिन उन्हें दोनों क्षेत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी गौर करना पड़ेगा। द्रविण जहां आर्यों को घुसपैठिया मानते हैं, वहीं आर्य खुद को असली हुक्मरा बताते हैं। इतिहास के पन्नों में यही दर्ज है कि द्रविण सभ्यता ही भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता रही है। आर्य सभ्यता बाहर से आई है। इस सोच को बीजेपी आखिर कैसे बदल पाएंगी? धर्म और संस्कृति का नारा देकर राजनीति के मकसद को साधना ही काशी-तमिल संगमम का मकसद है।"

"कोई राजनेता किसी भी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसके पीछे उसके राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। मोदी भी इससे अलग नहीं हो सकते। उनके आभा मंडल से दक्षिण भारत अछूता है, यह कहना गलत नहीं होगा। दक्षिण में ले-देकर एक कर्नाटक उसके पास था, जिसे कांग्रेस ने उनसे छीन लिया। दक्षिण से अपने रिश्ते बनाने के लिए मोदी पिछले दो सालों से काशी-तमिल संगमम का आयोजन करा रहे हैं। वो दो संस्कृतियों को मिलाने की बात कर रहे हैं। लेकिन यह दो संस्कृतियों को मिलाने का उपक्रम नहीं, तमिल की सियासत में घुसपैठ करने की कवायद है। हाल में दक्षिण के तिलंगाना में चुनाव हुआ तो वहां बाजी कांग्रेस के हाथ में ही रही। बीजेपी को काशी-तमिल संगमम से कितनी सफलता मिल पाएगी यह भविष्य के गर्त में है।"

फोटो-पीआईबी

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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