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कश्मीर डायरी: बग़ैर जजमेंटल हुए समझना होगा इस ‘जन्नत’ को

आख़िर कैसे हैं दिल्ली से दूर बसे धरती के स्वर्ग के गांव? श्रीनगर के लालचौक और गुपकार रोड से दूर एक कश्मीर है। सच कहा जाए तो कश्मीर की रूह इन्हीं छोटे-छोटे गांव में बसी है।
kashmir

क़रीब पांच महीने बाद मैं एक बार फिर कश्मीर लौटी थी, लेकिन ये कश्मीर उस कश्मीर से बिल्कुल अल्हदा था जिसे मैंने बर्फ़ की चादर में ठिठुरता देखा था। ये सफ़ेद चादर में लिपटा जितना जन्नती दिखता है उससे कहीं ख़ूबसूरत चारों तरफ़ बिछे मख़मली सब्ज़ कालीन में नज़र आता है। ऐसा लगता है कुदरत ने उस सब्ज़ कालीन में बहुत ही करीने से ख़ुद अपने हाथों से गुलाबी और बैंगनी फूलों को टांका हो। मैं यक़ीन के साथ कह सकती हूं कि पहाड़ हर मौसम में अलग दिखते हैं और बारिश, ये वो मौसम है जिसके लिए शायद पहाड़ भी तरसते हैं। वैसे तो मैं तपती गर्मी में कश्मीर पहुंची थी लेकिन मेरे पहुंचने से पहले ही बारिश की आमद ने यहां मौसम में ख़ुशुनमी घोल दी थी।

पहलगाम पहुंचते ही जो सबसे प्यारी चीज़ मैंने देखी वो बारिश में ख़ूबसूरत बादलों का रफ़्ता-रफ़्ता नीचे उतरना, कभी एक पहाड़ी पर, तो कभी पेड़ों के झुरमुट पर, कभी बहते दरिया पर सवार हो जाने की जुर्रत करते तो कभी दूर सब्ज़ मैदानों में बिछ जाने की तमन्ना करते। ऐसा लगता मानो कोई जादुई कालीन का टुकड़ा हो। मैं घास पर लेट कर क़रीब से गुज़र रहे दरिया को सुन रही थी, पहाड़ों को बादलों में घुलता-मिलता देख रही थी, रूई के फाहे से बादल कभी बहुत नीचे आ जाते तो कभी हवा के रुख़ के साथ बह निकलते, बिल्कुल अकेली मैं घास पर लेटी कुदरत को बहुत ही क़रीब महसूस कर पा रही थी। बारिश के मौसम में कोई तो ऐसा तिलिस्म है जो जिसकी बूंदे कवियों, शायरों के लिए बेहतरीन रसद साबित होती है। मुझे रविंद्र नाथ टैगोर की कहानियों में भीगे किरदार और मेघदूत की विरह में आए जादुई असर की वजह समझ आ रही थी।

खचाखच टूरिस्ट से पटे पहलगाम में रहने की जगह मिलना बहुत मुश्किल था, लेकिन मुझे पहलगाम के एक छोटे से गांव में बहुत ही प्यारा कमरा मिल गया था। पहले लगा गांव में रहना कैसा होगा? लेकिन ये कोई बिन मांगी मुराद से कम नहीं था। कमरे में दीवारें कम थी और कांच की खिड़कियां ज़्यादा एक तरफ़ की खिड़की खोलो तो सामने शफ़्फ़ाक़ बर्फ़ की चादर में लिपटे पहाड़ खड़े थे, तो दूसरे तरफ़ की खिड़की खोलने पर मूंगिया दरख़्तों वाले पहाड़ दिखाई दे रहे थे, इन्हीं के बीच बहता दरिया और सड़क से छिटक कर बसा गांव गणेशबल। पिछली बार जहां मुझे इस गांव की दहलीज पर बने होटल में जगह मिली थी वहीं इस बार क़िस्मत ने मुझे गांव के अंदर रहने का मौक़ा दिला दिया। गांव में होने का मतलब था कश्मीर को और क़रीब से देखना, समझना।

पिछली बार मैं एक टूरिस्ट की तरह पहलगाम आई थी और उन टूरिस्ट डेस्टिनेशन का रुख़ किया था जो पहलगाम या कश्मीर आने वाले लोग करते हैं जैसे बाइसन वैली, आरु और बेताब वेली। लेकिन इस बार मैं उस कश्मीर को देखने की कोशिश कर रही थी जिससे ये कश्मीर बना है, यहां के लोग। गांधी जी कहा करते थे भारत गांव में बसता है। तो क्या वाक़ई गांधी जी जिस गांव वाले भारत की बात करते थे वो आज भी मौजूद है? आख़िर कैसे हैं दिल्ली से दूर बसे धरती के स्वर्ग के गांव? श्रीनगर के लालचौक और गुपकार रोड से दूर एक कश्मीर है। सच कहा जाए तो कश्मीर की रूह इन्हीं छोटे-छोटे गांव में बसी है।

मैं यूपी, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के गांव से थोड़ा बहुत वाकिफ़ थी लेकिन कश्मीर के गांव कैसे हैं ये जानना चाहती थी। पिछली बार मुझे गांव की सरहद पर सिर्फ़ आदमी दिखते थे कुछ एक औरतें और बच्चियां दिखती थीं पर वो भी किसी ज़रूरी काम से घर से बाहर निकलने वाली, लेकिन इस बार मेरी मुलाक़ात स्कूल जाने वाली बच्चियों से हुई, घर का सामान लेने दुकान पर पहुंची औरतों से हुई,हल्की बारिश के बाद फेरन पहने बुज़ुर्ग दादी से हुई, बच्चों को बहलाने के लिए कंधे पर थपकी देती मां से हुई, घर से झांक रही उस चाची से हुई जो मेरे अकेले घूमने पर इतना हैरान थी कि उन्हें लगा कोई दिल्ली से नहीं बल्कि चांद से उनके गांव चला आया है। ऐसा नहीं था कि उन्हें ये नहीं पता था कि लड़कियां कहां तक पहुंच गई हैं लेकिन किसी लड़की का अकेला घूमना उन्हें आज भी हैरान कर रहा था। वो कुछ परेशान थीं कि दिल्ली से आई कोई लड़की गांव में इतनी बेतकल्लुफ़, बेहिचक, बेपरवाह कैसे टहल रही थी, गली में रुक कर उनसे बतिया रही थी। उन्हें हिंदी नहीं आती थी, उनका टूटा-फूटा हिंदी लहज़ा हैरानी की चाशनी में तर था।

पहाड़ों की सुबह देखने के लालच ने मुझे फ़ज़्र की अज़ान के साथ ही उठा दिया। दिन निकला तो मैं गांव में टहलने निकल गई, सुबह के वक़्त अच्छी-ख़ासी सर्दी ने मेरे दिमाग़ और शरीर के तालमेल को कंफ्यूज कर दिया था दिमाग़ कह रहा था कि मई के महीने में मुझे इतनी सर्दी कैसे लग सकती है और शरीर सर्दी में ठिठुर रहा था, आख़िरकार मुझे वापस कमरे में जाकर अपनी जैकेट लेनी ही पड़ी, एक बार फिर मैं गांव के रास्तों पर चल पड़ी, रास्तों से गुज़रते घोड़ों के झुंड और भेड़-बकरियों के काफ़िले। सर्द मौसम में पहाड़ों से नीचे उतर आए गड़ेरिए एक बार फिर अपनी भेड़ों को समेटते-हांकते अपनी कोड लैंग्वेज में उन्हें हुक्म देते गांव के रास्तों से, पहाड़ों की पगडंडियों से पक्की सड़कों से गुज़रते दिख रहे थे।

मैं कुछ आगे बढ़ी तो एक मिट्टी का घर( जो एक दुकान थी) दिखा,पीली चिकनी मिट्टी की मोटी दीवारें लेकिन टीन की छत वाला। (बर्फबारी को ध्यान में रखकर बनाया गया था) ये इस गांव की लोकल ब्रेड की दुकान थी। फ़र्श पर मोटी बोरी और रफ़ बने कालीन बिछे थे। फ़र्श कुछ ऐसा बना था कि नीचे की तरफ़ तंदूर लगा था और वहीं बग़ल में खड़े होकर काम करने के लिए कुछ जगह छोड़ी गई थी। दुकान का बाक़ी का हिस्सा किचन के प्लेटफ़ार्म की तरह था जिस पर एक किनारे बहुत ही करीने से मैदे की गोल लोइयां बनाकर ढकी हुई थीं। मैं दरवाज़े पर बैठे एक बुज़ुर्ग से बातचीत करने की कोशिश कर रही थी जबकि इस दौरान अंदर एक भाई लगातार रोटियां बना रहा था। इन रोटियों/ ब्रेड को यहां लवासा, गिर्दा ( Girda ) और कुलचा कहा जाता है। यहां के कुलचे दिल्ली के कुलचों से बिल्कुल अलग होते हैं। गिर्दा और लवासा को सुबह की नून चाय या फिर साग के साथ बहुत ही शौक से खाया जाता है। लवासा और गिर्दा पांच रुपए का आता है और सुबह की चाय के साथ एक या दो खा लिए जाएं तो 12 बजे तक के लिए काफी हैं। मैंने चखने के इरादे से एक गिर्दा ख़रीदा और एक बाइट ली, वो एक टुकड़ा दांतों से टूट के हलक़ से नीचे उतरा तो ख़ुद ही ज़बान पर ज़ायक़े की तारीफ़ आ गई मैंने कहा ''अच्छा है'' जबकि मेरी बात दोहराते हुए दुकान पर बैठे बुज़ुर्ग ने मुस्कुराते हुए कहा ''है ना मज़े का'' तो मैंने भी जवाबी मुस्कुराहट के साथ दरवाज़े का रुख़ किया। एक हाथ में गिर्दा लिए मैं वहीं दुकान के बाहर दीवार से टेक लगाए खड़ी हो गई। हल्की बारिश में सड़क किनारे कच्ची मिट्टी की दुकान पर खड़ी मैं सामने ख़ूबसूरत पहाड़ों को निहार रही थी,गांव के जगने से पहले गड़रिए भेड़ों के साथ जल्द से जल्द अपनी मंजिल तक पहुंच जाना चाहते थे। ख़ुशगवार मौसम में उस पांच रुपये की रोटी में जो ज़ायक़ा था वो फाइव स्टार होटल के बुफ़े में भी नहीं मिल सकता। धीरे-धीरे लोगों की चहलक़दमी बढ़ रही थी। पहले एक बच्चा आया और रोटियां का एक बंडल लिए चला गया मुझे देखकर मुस्कुराया और दुआ-सलाम करके आगे बढ़ गया, बग़ैर किसी जान-पहचान के बस यूँ ही एक मुफ़्त की मुस्कुराहट ने एहसास करवाया कि सुबह के वक़्त किसी से बग़ैर जान-पहचान के भी दुआ सलाम आपका दिन बना देता है। ये ऑफ़िस के उस झूठी, ड्यूटी पूरी कर देने की गुड मॉर्निंग से कहीं अपनेपन वाली दुआ सलाम थी। तभी एक औरत भी थैला लिए पहुंच गई इस लोकल रोटी/ब्रेड को लेने, वो रोटियां लेकर निकल ही रही थीं की सामने से दूसरी औरत नज़र आई और वो दोनों किनारे होकर गुफ़्तगू में गुम हो गईं, तभी एक 11-12 साल की बच्ची सुर्ख़ दुपट्टा लपेटे आई और रोटियां लेने लगी चूंकि वो थैला नहीं लाई थी तो दुपट्टे में ही रोटियों को लपेट कर निकलने लगी, लेकिन जिस सलीके से उसने बारिश में गर्म रोटियों को अपने दुप्पटे में लपेटा मेरा दिल उस बच्ची को प्यार से गले लगाने का कर गया, ऐसा लगता है गांव के बच्चे ज़िन्दगी को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से हैंडल करने का हुनर रखते हैं। हो सकता है बात छोटी लगे लेकिन छोटी-छोटी बातों में ज़िन्दगी की गहराई जज़्ब दिखी।

मेरे हाथ की रोटी ख़त्म हो चुकी थी लेकिन उस दुकान के दरवाज़े पर बैठे बुज़ुर्ग मुझसे बात करना चाहते थे लेकिन हम दोनों की ज़ुबान अलग थी लेकिन वहीं खड़े एक लड़के ने हम दोनों का काम कुछ आसान कर दिया वो बुज़ुर्ग मुझसे पूछना चाहते थे कि मैं अकेले क्यों घूम रही हूं? साथ ही वो जानना चाहते थे कि मुझे उनका गांव पसंद आया कि नहीं? 

हमारी बातचीत के दौरान लगातार लोगों के आने का सिलसिला जारी था पता चला कि ये रोटियां पूरा दिन नहीं मिलती बल्कि सुबह के वक़्त ही मिलती है जिन्हें लोग घर की तरह ही गर्मागर्म खाना पसंद करते हैं। ये एक छोटी सी दुकान थी लेकिन क़रीब-क़रीब गांव का हर घर यहां से जुड़ा था। सुबह सवेरे दिन चढ़ने के साथ ही लोगों की इस छोटी सी दुकान पर एक-दूसरे से मुलाक़ात हो ही जाती थी। ये दुकान कहने को गांव के लिए लोकल ब्रेड बनाती है लेकिन उसके साथ ही ये पूरे गांव को अनदेखे धागे में पिरोए रखती है। इस दुका न ने मुझे पंजाब के सांझे चूल्हे की याद दिला दी, मैं यकीन के साथ नहीं कह सकती कि अब पंजाब के कितने गांव ऐसे हैं जहां अब भी सांझे चूल्हे उस भाईचारे की मिसाल सलामत रखे हैं जो मैंने किताबों में पढ़े हैं। अक्सर हमने सुना है कि दिल का रास्ता पेट से होकर गुज़रता है, लेकिन कश्मीर में गिर्दा और लवासा की दुकान हो या फिर पंजाब के सांझे चूल्हे यक़ीनन दिलों के धागों को एक दूसरे से जोड़ने का ज़रिया ज़रूर बनते हैं।

ये गांव चूंकि पहाड़ों का गांव था तो बहुत ही होशियारी से पहाड़ से निकलते झरनों और पानी का इस्तेमाल किया गया था गांव के मुहाने पर एक बड़ी सी चक्की लगी थी जो पहाड़ों से निकलते पानी से चल रही थी( हालांकि मैंने जब देखा तो वो ख़राब पड़ी थी) बिल्कुल इको फ्रेंडली और उसका कोई वेस्ट भी नहीं था क्योंकि जो पानी चक्की को चलाने के लिए इस्तेमाल हो रहा था वही आगे चलकर लीदर नदी में मिल रहा था। मैं इस चक्की को देखकर हैरान थी ऐसा लग रहा था कि हड़प्पा संस्कृति का कोई सिरा इस गांव से आ मिला है। मुझे ये चक्की वैसी ही पुरातन लगी। लेकिन ये बहुत अच्छी बात थी कि ये अब भी इस्तेमाल की जा रही थी। ये गांव जितना पुरानी तकनीकों को इस्तेमाल कर रहा था उतना ही मॉर्डन और इको फ्रेंडली भी था, गांव में जगह-जगह पॉलिथीन इस्तेमाल ना करने की गुज़ारिश लिखी थी।

पहलगाम अमरनाथ यात्रा का पहला पड़ाव है, यहां के गांव आज भी पुराने कश्मीर की कहानी बयां करते हैं। ऐसा ही एक गांव है मामल ये गांव प्राचीन शिव मंदिर मामलेश्वर के नाम पर है। बेहद ख़ूबसूरत मंदिर जहां से पहलगाम का ख़ूबसूरत नज़ारा देखने को मिलता है। जिस वक़्त मैं मंदिर देख रही थी तभी साउथ इंडिया की एक फैमली आई और उन्होंने बहुत ही प्यारे और भक्ती में डूबे मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की वो पूजा करके निकलीं तो मैंने एक पत्रकार के तौर पर उनसे कुछ सवाल किए मैं जानना चाहती थी कि जिस तरह का नरेटिव देश में कश्मीर को लेकर सेट किया जा रहा है क्या वाकई हालात वैसे हैं? मैंने उनसे पूछा क्या आपको इस शिव मंदिर में आने या फिर पूजा अर्चना करने में किसी तरह का डर महसूस हुआ तो उनका जवाब था कश्मीर जन्नत है और जन्नत में किसी तरह का कोई डर नहीं होता।

ये मंदिर मामल गांव के मुहाने पर था और बहुत ही मोहब्बत से गांव के लोग इसका एहतराम करते हैं ये तो मैंने ख़ुद देखा। मैं मंदिर से बाहर निकली तो तीन-चार बच्चे खेल रहे थे मैंने पूछा क्या आप मुझे अपना गांव घुमा सकते हैं? मेरे मुंह से बात निकली ही थी कि उनमें से एक ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा हम आपको वहां से अपना गांव दिखाएंगे जहां से वो बेहद ख़ूबसूरत लगता है। तीनों बच्चे झटपट एक ऊंचे पहाड़ पर चढ़ गए मेरे लिए ये कुछ मुश्किल था लेकिन कश्मीर को क़रीब से देखने की ज़िद्द ने मुझे पहाड़ पर चढ़ा ही दिया और उन बच्चों की कही बात बिल्कुल सच थी। इन बच्चों से बातचीत कर मैं जानना चाहती थी कि क्या ये बच्चे भी हमारे बच्चों की तरह ही सपने देखते हैं ? क्या सोचते हैं ये बच्चे मैंने तीन बच्चों से पूछा कि वो बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं तो एक ने डॉक्टर दूसरे ने पायलट तो तीसरे ने कहा कि वो बड़ा वकील बनना चाहता है। मैंने पूछा वकील ही क्यों तो वो सिर झुकाकर बस मुस्कुराने लगा।

ये बच्चे बहुत से मामलों में दिल्ली-मुम्बई के बच्चों की तरह ही थे, इनके सपनों में ख़ूबसूरत भविष्य था, लेकिन कुछ मामलों में ये देश के दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग थे क्योंकि इनकी बातचीत में आर्मी, आतंकवाद, दहशत, हथियार, जैसे अल्फ़ाज़ थे। इनकी बातों में ये ज़िक्र मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा था कि क्यों कश्मीर के बच्चों की बातचीत में ये एक्ट्रा अल्फ़ाज़ हैं जो कि नहीं होने चाहिए। इन्हें भी देश के दूसरे बच्चों की तरह ही मासूम, बेपरवाह, बेख़ौफ़ होना चाहिए, इन्हें सिर्फ़ अपने मुस्तक़बिल की परवाह होनी चाहिए। इस सवाल के साथ शाम हो गई और मैं वापस अपने रूम में लौट आई अगली सुबह अचानक ही मुझे क़रीब के एक स्कूल देखने का ऑफ़र मिला जिसे मैंने तुरंत झपट लिया। हम स्कूल पहुंचे तो बहुत ही प्यारा इत्तेफ़ाक़ हुआ मैं प्रिंसिपल के साथ एक-एक कर क्लास रूम में जा रही थी कि तभी एक ऐसी क्लास में पहुंच गई जहां बीती शाम मिले तीन बच्चों में से एक सबसे आगे बैठा दिखाई दिया। हम दोनों ही एक-दूसरे को देखकर हैरान हो गए लेकिन फिर मैं आगे बढ़ी और बच्चे का हाथ मिलाते हुए कहा कि देखो- ये दुनिया कितनी छोटी है।

पीरों की इस जन्नती ज़मीन को महसूस करती हुई मैं अकेले टहलते हुए सोच रही थी कि देश के बाक़ी हिस्से में कश्मीर के लोगों को कितना जज किया जाता है। उनको लेकर एक राय क़ायम कर ली गई है लेकिन सच में अगर कश्मीर को समझना है तो बग़ैर जजमेंटल हुए यहां के लोगों से, यहां के गांव को देखने की ज़रूरत है। सोशल मीडिया पर किसी सज्जन को कहते सुना कि कश्मीर को समझने के लिए हमें उसकी रूह को पहचानना होगा और कश्मीर की रूह यक़ीनन उसके गांव में बसती है। तो कश्मीर को समझने के लिए हमें वापसी में थोड़ा सा कश्मीर अपने अंदर समेट कर लाना होगा तभी हम उस कश्मीर को समझ पाएंगे जो असल में धरती का स्वर्ग और भारत का ख़ूबसूरत ताज है।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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