ख़बरों के आगे-पीछे: कांग्रेस अधिवेशन में ग़लती या रणनीतिक चूक?

कांग्रेस का रायपुर अधिवेशन उसके शीर्ष नेताओं के भाषणों और पारित प्रस्तावों से ज़्यादा अधिवेशन में जाने-अनजाने हुई गलतियों को लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में चर्चित रहा। अन्य गलतियों को छोड़ दें तो सबसे बड़ी गलती रही कांग्रेस द्वारा जारी विज्ञापन में कांग्रेस के दिवंगत नेताओं में किसी भी मुस्लिम नेता की तस्वीर का नहीं होना। अधिवेशन के आखिरी दिन अखबारों में पार्टी की हाथ से हाथ जोड़ो रैली के बारे में विज्ञापन छपा था। उस विज्ञापन में दस दिवंगत नेताओं की तस्वीरें थीं लेकिन उनमें एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं था, जबकि कांग्रेस की स्थापना से लेकर आज़ादी मिलने तक आठ मुस्लिम नेता कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तो दो बार पार्टी के अध्यक्ष रहे और सब जानते हैं कि वे हमारी आज़ादी के आंदोलन के बड़े नेताओं में से एक थे। ऐसे में सवाल है कि जब आप महात्मा गांधी से लेकर पीवी नरसिंह राव जैसे नेताओं की तस्वीरें छाप रहे हैं तो आपको कांग्रेस के नौ मुस्लिम अध्यक्षों का ख्याल क्यों नहीं आया? हो सकता है कि हकीम अजमल खां या बदरुद्दीन तैयबजी का नाम याद नहीं आया हो मगर मौलाना आज़ाद का नाम क्या भूला जा सकता है? इस गलती या रणनीतिक चूक की जब सोशल मीडिया में आलोचना होने लगी तो कांग्रेस के मीडिया प्रभारी जयराम रमेश ने खेद जताते हुए कहा कि यह गलती क्षमा करने योग्य नहीं है। उन्होंने कहा कि जिसने भी यह गलती की है, उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। अभी तक पता नहीं चला है कि किसने गलती की थी और उस पर क्या कार्रवाई हुई। एक अन्य बड़ी गलती यह हुई कि प्रियंका गांधी वाड्रा के स्वागत के लिए ढाई किलोमीटर तक गुलाब की पंखुड़ियां बिछाई गईं। इससे यह संदेश गया कि कांग्रेस सादगी, त्याग आदि की जो बातें कर रही है, वह दिखावा है। इसके बावजूद प्रदेश कांग्रेस के नेता इसका श्रेय लेने के लिए आपस में लड़ते रहे। उनकी समझ में ही नहीं आया कि अपनी इस चापलूसी से उन्होंने पार्टी का कितना नुकसान किया।
मां-बाप तक क्यों पहुंच जाते हैं भाजपा नेता?
भाजपा का वैसे तो दावा है कि वह संस्कारी पार्टी है और हिंदू संस्कारों का पालन करती है लेकिन उसके नेता बात-बात पर विपक्षी पार्टियों के नेताओं के बाप तक पहुंच जाते हैं। अपने मां-बाप को लेकर बेहद संवेदनशील भाजपा नेताओं को दूसरे नेताओं के मां-बाप के सम्मान की चिंता नहीं होती है। अगर होती तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक पूर्व मुख्यमंत्री से वैसी भाषा में बात नहीं करते, जैसी भाषा में उन्होंने विधानसभा में बात की। उन्होने पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से कहा कि तुम अपने बाप का सम्मान नहीं कर पाए। सवाल है कि सदन में किसी नेता के बाप तक जाने का क्या मतलब है? जिस भाषा में मुख्यमंत्री ने बात की क्या उससे दिवंगत मुलायम सिंह का सम्मान बढ़ा? यह एकमात्र मिसाल नहीं है। ऐसी कई घटनाएं हैं। बिहार में जब तेजस्वी यादव पर हमला करना होता है तो भाजपा के नेता उनके पिता लालू प्रसाद को घसीट कर ले आते हैं। कई बार भाजपा के नेताओं ने चारा चोर का बेटा कह कर लालू प्रसाद और तेजस्वी का अपमान किया है। राहुल गांधी के तो माता-पिता दोनों का अपमान किया जाता है और अब तो भाजपा के सर्वोच्च नेता उनके नाना-परनाना तक पहुंच गए हैं। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही की थी, जब 2019 में उन्होंने एक चुनावी रैली में बोफोर्स मामले का ज़िक्र करते हुए राहुल गांधी को कहा था कि तुम्हारा बाप भ्रष्ट था। असल में भाजपा की यह समस्या है कि उसके नेता शालीन भाषा में राजनीतिक विमर्श चला ही नहीं पाते हैं। सिद्धांत, विचार और कार्यक्रम पर चर्चा की बजाय वे ज़्यादातर निजी हमले करते हैं।
कांग्रेस को अब राज्यों में जीतना बेहद ज़रूरी
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस के बड़बोले नेताओं को यह राग अलापना बंद कर देना चाहिए कि विपक्षी एकता की धुरी राहुल गांधी ही होंगे और 2024 में गठबंधन की सरकार बनेगी तो कांग्रेस ही नेतृत्व करेगी। क्योंकि ऐसा तभी होगा, जब इस साल होने वाले बाकी राज्यों के चुनावों में कांग्रेस जीते। इस साल अब कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होना है। इनमें तेलंगाना को छोड़ कर सभी जगह उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है। वैसे इन राज्यों में आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस को गुजरात की तरह नुकसान पहुंचाने की राजनीति करेगी। तेलंगाना में उसे सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति के साथ-साथ भाजपा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से भी जूझना होगा। अगर कांग्रेस नहीं जीतती हैं तो विपक्षी पार्टियां उसे भाव नहीं देंगी, उलटे उसे और कमज़ोर करने की राजनीति करेंगी। ज़्यादातर विपक्षी पार्टियां राज्यों मे कांग्रेस की जगह लेने के लिए बेचैन है। इसलिए अगर इस साल होने वाले चुनाव में कांग्रेस नहीं जीतती है तो अन्य विपक्षी पार्टियों के सामने उसकी मोलभाव की क्षमता कम होगी। लेकिन अगर अन्य विपक्षी पार्टियों की स्थिति भी कमज़ोर होती है तो मामला बराबरी का बनेगा। अन्य विपक्षी पार्टियों की कमज़ोर स्थिति का मतलब है, जैसे तृणमूल कांग्रेस त्रिपुरा और मेघालय में कुछ खास नहीं कर पाई या आम आदमी पार्टी इस साल के चुनावों में कहीं भी गुजरात वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाए।
अब किस विरोधी नेता की बारी है?
आम आदमी पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता और दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी के बाद अब सवाल है कि आगे किसकी बारी है? एक-एक करके सभी पार्टियों की बारी आ रही है। कांग्रेस के कई बड़े नेता गिरफ़्तार हो चुके हैं। केंद्रीय वित्त व गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम और उनके सांसद बेटे कार्ति चिदंबरम को गिरफ़्तार किया गया था। कर्नाटक के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार गिरफ़्तार हो चुके हैं। इनके अलावा सोनिया व राहुल गांधी से लेकर भूपेंदर सिह हुड्डा तक कई लोगों पर तलवार लटक रही है। कांग्रेस की सहयोगी एनसीपी के दो बड़े नेता महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहे अनिल देशमुख और नवाब मलिक गिरफ़्तार किए जा चुके हैं। देशमुख ज़मानत पर छूट गए हैं लेकिन मलिक अभी भी जेल में हैं। इनके अलावा प्रफुल्ल पटेल सहित कई और लोगों पर तलवार लटक रही है। तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्थ चटर्जी और अनुब्रत मंडल भी अभी जेल में हैं। ममता बनर्जी के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी व उनके कई रिश्तेदारों पर तलवार लटक रही है। समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से एक आजम खान का लगभग पूरा परिवार जेल जा चुका है और आजम खान व उनके बेटे अब्दुल्ला आजम क्रमश: लोकसभा और विधानसभा की सदस्यता गंवा चुके हैं। कथित शराब घोटाले में ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता पर भी तलवार लटक रही है। बिहार और झारखंड की सत्तारूढ़ पार्टियों-राजद और जेएमएम से जुड़े कुछ नेताओं को गिरफ़्तार किया गया है जबकि दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं पर तलवार लटक रही है। सिसोदिया की गिरफ़्तारी के बाद सबकी चिंता बढ़ गई है। सबको लग रहा है कि अब बड़े नेताओं की गिरफ़्तारी का समय आ रहा है।
उद्धव के और विधायक अभी पाला बदलेंगे?
चुनाव आयोग के फैसले के बाद अब एकनाथ शिंदे का गुट ही असली शिवसेना है। इसलिए उनके विधायको पर नहीं, बल्कि उद्धव ठाकरे के साथ बचे हुए बचे हुए विधायकों पर अयोग्यता की तलवार लटक गई है। पार्टी टूटने के बाद उद्धव के साथ सिर्फ 14 विधायक बचे हैं और बाकी 40 विधायक शिंदे के साथ यानी असली शिवसेना के साथ है। विधानसभा सत्र मे शिंदे की ओर से सभी 55 विधायकों के लिए व्हिप जारी कर दिया गया है। अगर कोई विधायक व्हिप का उल्लंघन करता है तो उसकी सदस्यता जा सकती है। चूंकि अभी महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल डेढ़ साल से ज़्यादा बचा हुआ है। इसलिए ऐसे में शायद ही कोई विधायक अपनी सदस्यता गंवाना चाहेगा। इसलिए संभव है कि अपनी विधानसभा की सदस्यता बचाने के लिए कुछ विधायक शिंदे गुट के साथ जा सकते है। हालांकि यह भी संभव है कि वे व्हिप का पालन करें और उद्धव ठाकरे के साथ बने रहें। फिलहाल शिंदे गुट को असली शिवसेना माने जाने का असर यह हुआ है कि पहली बार उद्धव गुट का एक विधान पार्षद टूटा है। विधान परिषद के सदस्य विप्लव बाजोरिया ने पाला बदल कर शिंदे गुट के साथ जाने का ऐलान किया है। ध्यान रहे अभी तक शिवसेना का एक भी एमएलसी या राज्यसभा सदस्य पार्टी छोड़ कर नहीं गया था। अब इसकी भी शुरुआत हो गई है। अब उद्धव गुट की एकमात्र उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से है, जहां 16 विधायकों की अयोग्यता का मामला लंबित है।
जघन्य अपराधी पर मेहरबान हरियाणा सरकार
दो हत्या और दो बलात्कार के मामलों में सिद्धदोष अपराधी गुरमीत राम रहीम पिछले चार साल से आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहा है। इसके अलावा भी उस पर कई गंभीर आपराधिक मामले अभी अदालतों में चल रहे हैं। इसके बावजूद हरियाणा सरकार उसे जघन्य अपराधी नहीं मानती बल्कि अपनी राजनीतिक और उसकी निजी ज़रूरतों के लिहाज़ से उसे एक साल में दो-दो बार लंबी अवधि के लिए पैरोल पर जेल से बाहर आने की इजाज़त दे देती है। बाहर आकर यह दुर्दांत अपराधी मौज-मस्ती करता है, घूमता-फिरता है और अपने समर्थकों के बीच भाषण देता है। इन सब बातों को लेकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की ओर दायर जनहित याचिका पर पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने हरियाणा सरकार से जबाव तलब किया। हरियाणा सरकार ने लिखित में जबाव दिया कि गुरमीत राम रहीम हार्डेंड क्रिमिनल यानी जघन्य अपराधी नहीं है, इसलिए उसे निर्धारित नियमों के तहत पैरोल पर रिहा किया जाता है। गौरतलब है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और गुरमीत राम रहीम के काफी घनिष्ठ संबंध रहे हैं। राम रहीम को सज़ा मिलने से पहले हरियाणा सरकार ने उसे राज्य में 'स्वच्छ भारत अभियान’ का ब्रांड एंबेसडर भी बनाया था। चूंकि खट्टर सरकार उसे जघन्य अपराधी नहीं मानती है, इसलिए अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसके प्रति नरमी बरतने वाली सरकार का मुखिया किस तरह की मानसिकता का होगा।
महाराष्ट्र में दिलचस्प पोल खोल अभियान
महाराष्ट्र में इन दिनों बड़ा दिलचस्प पोल खोल अभियान चल रहा है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस दोनों ऐसी बातें बता रहे हैं, जिनका कोई प्रत्यक्ष मतलब नहीं दिख रहा है। हो सकता है कि उनकी बातों का कोई राजनीतिक मतलब हो, जो आगे चल कर सामने आए। पहले शरद पवार की पोल खोलने के अंदाज़ में देवेंद्र फड़नवीस ने कहा कि 2019 में एनसीपी के समर्थन से उनका मुख्यमंत्री बनना और अजित पवार का उप मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना शरद पवार की जानकारी में हुआ था। हालांकि पवार ने इसे झूठ बताया लेकिन फड़नवीस अपनी बात दोहराते रहे। इसके बाद फड़नवीस ने उद्धव ठाकरे पर निशाना साधा और कहा कि जब 2022 के जून में एकनाथ शिंदे ने बगावत की और शिवसेना के विधायक अलग हुए तब उद्धव ठाकरे ने मुझसे मुख्यमंत्री बनने को कहा था। यानी उनके हिसाब से उद्धव ने अपनी पार्टी बचाने के लिए भाजपा से तालमेल करना चाहा था। इसके बाद एकनाथ शिंदे इस पोल खोल अभियान में कूदे और उन्होंने कहा कि 2022 में मुख्यमंत्री रहते हुए उद्धव ठाकरे ने देवेंद्र फड़नवीस को गिरफ़्तार करने की तैयारी की थी। शिंदे के मुताबिक इस बात की भनक लगने के बाद ही उन्होंने शिवसेना से अलग होने और भाजपा के साथ जाने का फैसला किया। इस तरह फड़नवीस ने यह बताया कि अगर वे उद्धव की बात मान लेते तो शिंदे मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। इसके जवाब में शिंदे ने बताया कि अगर वे पार्टी नहीं तोड़ते तो फड़नवीस गिरफ़्तार होकर जेल चले जाते।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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