ख़बरों के आगे-पीछे: 2013 का अध्यादेश, राहुल की सज़ा, अतीक-ड्रामा और अन्य ख़बरें..

राहुल को सज़ा की असली वजह
राहुल गांधी को मानहानि के मामले में घेरने और उस बहाने सदस्यता ख़त्म करने का मामला सीधे तौर पर संसद में दिए उनके भाषण से जुड़ा है। सूरत की अदालत में दर्ज मुकदमे की क्रोनोलॉजी देख कर ही समझ में आ जाता है कि इसे कैसे आगे बढ़ाया गया। जिस बयान के लिए राहुल को सज़ा सुनाई गई है, वह बयान उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक के कोलार में एक भाषण के दौरान दिया था। इसे लेकर कई जगह मुकदमे दर्ज हुए थे, जिनमें से एक मुकदमा भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने गुजरात के सूरत में किया था। बिहार में भी भाजपा नेता सुशील मोदी ने एक मुकदमा दर्ज किया है, जिसकी अभी सुनवाई नहीं हुई है। बात सूरत वाले मामले की करें तो यहां 16 अप्रैल 2019 को मुकदमा दर्ज हुआ था और दो साल तक कुछ नहीं हुआ। दो साल बाद 24 जून को राहुल गांधी ने सूरत की अदालत में अपना बयान दर्ज कराया। सबसे दिलचस्प घटनाक्रम उसके बाद हुआ। राहुल के बयान दर्ज कराने के नौ महीने बाद मार्च 2022 में शिकायतकर्ता पूर्णेश मोदी ने हाई कोर्ट में जाकर मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगवा ली। फिर एक साल तक शांति रही। राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में पिछले महीने सात फरवरी को 50 मिनट का भाषण दिया, जिसका फोकस अडानी और प्रधानमंत्री के रिश्तों पर था। इसके नौ दिन बाद 16 फरवरी को पूर्णेश मोदी ने हाई कोर्ट से लगवाई गई अपनी रोक हटवा ली। अगले एक महीने बाद यानी 17 मार्च को सूरत की अदालत में इस पर सुनवाई हुई और मजिस्ट्रेट ने फैसला सुरक्षित रख लिया और 23 मार्च को फैसले का ऐलान हो गया। पूरी क्रोनोलॉजी बता रही है कि संसद में राहुल का भाषण सज़ा का तात्कालिक कारण बना है।
भाजपा क्या फाड़े गए अध्यादेश के पक्ष में है?
भाजपा के नेता, उसके मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। वे बार-बार कह रहे हैं कि राहुल गांधी ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। अगर उन्होंने 2013 में मनमोहन सिंह की सरकार की ओर से लाए गए अध्यादेश की प्रति नहीं फाड़ी होती तो उसी समय कानून बन जाता और निचली अदालत से सज़ा होने पर किसी की सदस्यता नहीं जाती। इसलिए सवाल है कि क्या भाजपा और उसके नेता राहुल गांधी द्वारा फाड़े गए अध्यादेश के पक्ष में हैं? क्या उन्हें लग रहा है कि वह कानून बना होता तो अच्छा होता? अगर ऐसा है तो पार्टी अब क्यों नहीं वैसा कानून बना देती है? गौरतलब है कि लिली मैथ्यू मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सरकार अध्यादेश लाई थी, जिसमें यह प्रावधान था कि जब तक सुप्रीम कोर्ट से सज़ा नहीं हो जाती है तब तक सदस्यता नहीं जाएगी और न चुनाव लड़ने पर रोक लगेगी। लेकिन राहुल ने उसे कानून नहीं बनने दिया। इसे लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा है कि राहुल गांधी अपने कर्मों की सज़ा भुगत रहे हैं। उन्होंने कहा है कि अगर वे अध्यादेश नहीं फाड़ते तो आज सदस्यता नहीं जाती। यही बात केद्गीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कही है। उन्होंने कहा है कि लालू प्रसाद की आह लगी है, जो राहुल की सदस्यता गई है। गौरतलब है कि राहुल गांधी के अध्यादेश फाड़ने के बाद लालू प्रसाद पहले नेता थे, जिनकी सदस्यता गई थी। वे लोकसभा के सदस्य थे। उन्हें निचली अदालत ने चारा घोटाले में सज़ा सुनाई और उनकी सदस्यता चली गई।
क्यों हीरो बनाया जा रहा है अमृतपाल को?
पंजाब की पुलिस हर दिन अपनी नाकामी का विज्ञापन कर रही है और नए-नवेले खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह को हीरो बना रही है। इस काम में मेनस्ट्रीम मीडिया पूरी तरह पुलिस का मददगार बना हुआ है। हर दिन पुलिस या उसके सूत्रों के हवाले से ख़बरें आ रहीं हैं कि अमृतपाल कैसे-कैसे भागा, कहां-कहां गया और उसने पुलिस को चकमा देने के लिए क्या-क्या लुक अपनाए। इससे उसकी किवंदती बन रही है। पंजाब के नौजवानों मे उसके प्रति कौतुक पैदा हो रहा है और इंटरनेट पर उसके बारे में जानकारी चाहने वालों की संख्या बढ़ रही है। उसकी कौतुहल भरी कहानियों का प्रचार खुद पुलिस के सूत्रों के हवाले से हो रहा है और मेनस्ट्रीम मीडिया भी इसमें बढ़-चढ़ कर भूमिका निभा रहा है। पंजाब पुलिस ने 18 मार्च को अमृतपाल को पकड़ने का अभियान शुरू किया था। उसके बाद से अब तक वह पुलिस के हाथ नहीं आया है। पुलिस ने पहले उसके सात अलग-अलग लुक के फोटो जारी करके उसको हीरो बनाया। उसके बाद यह कहानी है कि कैसे वह मर्सिडीज से, ब्रेजा कार से और फिर मोटरसाइकिल से भागा। इसके झूठे-सच्चे सीसीटीवी फुटेज भी आए। फिर ख़बर आई कि एक गुरुद्वारे में उसने ग्रंथी के परिवार को बंधक बनाया और वहां कृपाण छोड़ कर भागा। एक दिन ख़बर आई कि वह हरियाणा के कुरुक्षेत्र पहुंच गया, जहां दो दिन रहा। फिर एक सीसीटीवी फुटेज आया कि वह पटियाला में देखा गया। उसके लिए बीएसएफ और सशस्त्र सीमा बल को अलर्ट किया गया। उसके उत्तराखंड, नेपाल जाने और महाराष्ट्र पहुंचने तक की कहानियां प्रचारित हुईं।
भारतीय दूतावासों पर हमले और तिरंगे का अपमान
दुनिया के तमाम बड़े विकसित और लोकतांत्रिक देशों में भारतीय दूतावासों, उच्चायोगों और वाणिज्य दूतावासों पर हमले हो रहे हैं। खालिस्तान के पक्ष में प्रदर्शन कर रहे संगठन दूतावासों पर हमला कर रहे हैं। तिरंगे का अपमान किया जा रहा है। लेकिन भारत सरकार इसका प्रभावी और निर्णायक तरीके से प्रतिकार नहीं कर पा रही है। जिस देश में भारतीय मिशन पर हमला हो रहा है, सरकार वहां के राजनयिक प्रतिनिधियों को बुला कर विरोध दर्ज करा रही है लेकिन उसका कोई असर नहीं हो रहा है। यह देखना भी दिलचस्प है कि एक-एक करके भारत सरकार ने जितने देशों के राजनयिक प्रतिनिधियों को बुला कर आपत्ति दर्ज कराई, उसमें भारत रिकॉर्ड बना रहा है लेकिन उससे विदेश में इंडियन मिशन और भारतीय नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो रही है। पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज भारत के दौरे पर आए थे तब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सेल्फी ली थी, जिसे लेकर सोशल मीडिया में बड़ा शोर हुआ कि देखो दूसरे देश का प्रधानमंत्री हमारे प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी लेता है। अल्बानीज के लौटने के एक हफ़्ते के भीतर ब्रिस्बेन में भारत के वाणिज्य दूतावास को खालिस्तान समर्थकों ने घेर लिया और कर्मचारियों को अंदर नहीं जाने दिया। भारत सरकार इस मामले में कुछ निर्णयाक नहीं कर सकी। उसके बाद ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग के बाहर लगा तिरंगा खालिस्तान समर्थको ने उतार दिया। भारत सरकार सिर्फ़ इतना कर पाई कि उससे बड़ा तिरंगा वहां लगा दिया। अब वाशिंगटन में खालिस्तान समर्थकों ने भारत के एक राजनयिक के नाम का बैनर लगा कर उसे धमकी दी और साथ ही एक भारतीय पत्रकार पर हमला भी किया। सीक्रेट सर्विस के लोगों ने पत्रकार को हमले से बचाया। सो, अगर सचमुच दुनिया भारतीय प्रधानमंत्री की बात सुनती है तो हर हाल में उन्हें अपनी ताकत दिखानी चाहिए ताकि भारतीय मिशन और भारतीय लोगों की रक्षा हो सके।
विधानसभा जैसा भाषण बाहर भी दे सकेंगे केजरीवाल?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा के बजट सत्र में अभूतपूर्व भाषण दिया है। लगातार तीन दिन तक अपने भाषण में केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे हमले किए। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप ही नहीं लगाए बल्कि यह भी कहा कि 70 साल में देश को जितना कांग्रेस ने नहीं लूटा उससे कहीं ज़्यादा भाजपा की केंद्र सरकार ने आठ साल में लूट लिया। यही नहीं, उन्होंने यहां तक कह दिया कि अडानी तो मुखौटा है, उनका सारा कारोबार और पैसा मोदी का है। केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के कम पढ़े लिखे होने का ज़िक्र करते हुए यह भी कहा कि कम पढ़े-लिखे होने की वजह से वे सही फैसला नहीं कर पाते हैं और लोग इसका फायदा उठा लेते हैं। उन्होंने कहा कि सीबीआई और ईडी के दुरुपयोग की वजह से विभिन्न दलों के भ्रष्ट नेता भाजपा में चले गए हैं। सवाल है कि क्या केजरीवाल ये सारी बातें विधानसभा से बाहर भी सार्वजनिक मंच से दोहराएंगे? विधानसभा में तो वे अपने विशेषाधिकार के तहत कुछ भी बोल सकते हैं। उनकी किसी भी बात पर न तो पुलिस में मुकदमा दर्ज हो सकता है और न ही अदालत कोई कार्रवाई कर सकती है। विधानसभा में प्रचंड बहुमत और स्पीकर भी अपनी पार्टी का होने से विशेषाधिकार हनन के नोटिस की भी चिंता नहीं है। इसलिए उन्होंने जो चाहा वह बोला। इसीलिए सवाल है कि यही सब बातें क्या विधानसभा सत्र की समाप्ति के बाद सार्वजनिक मंच से भी वे बोल सकेंगे?
पहली बार विपक्ष को ख़तरे का अहसास हुआ!
मानमानि के मामले में राहुल गांधी को सज़ा हुई और उसके बाद लोकसभा की सदस्यता गई तो पहली बार विपक्षी नेताओं को इस कानून के ख़तरे का अहसास हुआ है। पहली बार उनको लगा है कि सरकार इसका इस्तेमाल करके किसी की भी सदस्यता ख़त्म कर सकती है। पहली बार किसी सामाजिक कार्यकर्ता को भी लगा कि ऑटोमेटिक रूट से सदस्यता ख़त्म करने के कानून की समीक्षा ज़रूरी है और उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। हक़ीक़त यह है कि जुलाई 2013 में लिली मैथ्यू और लोक प्रहरी की याचिका पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 30 से ज़्यादा सांसदों और विधायकों की सदस्यता जा चुकी है। ऐसा नहीं है कि सबकी सदस्यता किसी गंभीर अपराध में दोषी ठहराए जाने पर गई है। लेकिन पहले किसी ने इसे चुनौती देने की ज़रूरत नहीं समझी और न ही इसे बड़ा मुद्दा बनाया गया। सिर्फ़ डेढ़ महीने पहले 15 फरवरी को उत्तर प्रदेश की स्वार विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी के विधायक अब्दुल्ला आज़म की सदस्यता गई लेकिन तब किसी विपक्षी पार्टी को समझ में नहीं आया कि इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। अब्दुल्ला आज़म की सदस्यता भी मामूली मुकदमे में गई। कोई 15 साल पहले पहले रोड जाम करने के मामले में बवाल करने और सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा उन पर हुआ था, जिसमें दो साल की सज़ा हो गई। सोचने वाली बात है कि कौन ऐसा ज़मीनी नेता होगा, जिस पर इस तरह का मुकदमा नहीं हुआ होगा? अब्दुल्ला आज़म से पहले उनके पिता आज़म खान की सदस्यता हेट स्पीच के मामले में गई। गंभीर अपराध के मामले में जयललिता से लेकर लालू प्रसाद तक अपनी सदस्यता गंवा चुके हैं।
ध्यान भटकाने के लिए अतीक का ड्रामा?
इस समय देश की नंबर एक राजनीतिक घटना राहुल गांधी को सूरत की अदालत से सज़ा मिलना और उनकी लोकसभा सदस्यता समाप्त किया जाना है। लेकिन अगर आप टेलीविज़न चैनलों पर नज़र डालेंगे तो उनके लिए उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर और पूर्व सांसद अतीक अहमद को साबरमती जेल से प्रयागराज लाना और फिर प्रयागराज से साबरमती ले जाना सबसे बड़ी घटना रही। राहुल गांधी को 23 मार्च को सूरत की अदालत ने दो साल की सज़ा सुनाई और 24 मार्च को उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई। इसके दो दिन बाद 26 मार्च को अतीक अहमद को साबरमती जेल से निकाल कर प्रयागराज ले जाने का घटनाक्रम शुरू हुआ, जो 29 मार्च की शाम तक जारी रहा। इन पांच दिनों तक देश के तमाम न्यूज़ चैनलों पर लगभग पूरे समय अतीक अहमद की ख़बरें चलती रहीं। साबरमती से प्रयागराज लाए जाने के दौरान पुलिस का काफिला रूका और अतीक अहमद पेशाब करने के लिए उतरा, तब उसके पेशाब करने का लाइव प्रसारण हुआ। सवाल है कि क्या यह अचानक हुआ या किसी योजना के तहत हुआ? ऐसा लग रहा है कि योजना के तहट टेलीविज़न मीडिया के सामने ड्रामे के लायक एक घटना रख दी गई। उत्तर प्रदेश पुलिस के एनकाउंटर करने के इतिहास को देखते हुए यह हवा बनाई गई कि अतीक का एनकाउंटर हो सकता है। अतीक के परिवार ने भी यह डर ज़ाहिर किया और उसके बाद मीडिया में सिर्फ़ यही ख़बर चलती रही। बताया जा रहा है कि जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अतीक को उत्तर प्रदेश से गुजरात जेल ले जाया गया तो उसे विमान से लेकर पुलिस वहां गई और कोई ड्रामा नहीं हुआ। उसके बाद सारी सुनवाई वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए हुई। सज़ा का ऐलान भी वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए हो सकता था, लेकिन अतीक को अदालत में लाने का आदेश हुआ। पुलिस उसे दो घंटे में हवाईजहाज से लखनऊ या प्रयागराज ला सकती थी लेकिन 25 घंटे से ज़्यादा की सड़क यात्रा का डामा हुआ। उसके बाद फिर कोर्ट रूम की कार्रवाई, जेल का ड्रामा और फिर वापसी की यात्रा। इस पूरे पांच दिन के ड्रामें में राहुल गांधी का मामला टीवी चैनलों से गायब रहा।
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