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एलआईसी की आईपीओ: बड़े पैमाने का घोटाला

एलआईसी को लिस्टेड करने की इस बेबुनियाद हड़बड़ी में दिग्गज "निवेशकों" के पैसे बनाने की सनक को बढ़ावा देते हुए लोगों के हितों की भयानक अनदेखी नज़र आती है। आईपीओ की क़ीमत से यह संकेत मिलता है कि यह शायद भारत का अब तक का सबसे बड़ा निजीकरण घोटाला हो।
LIC

भारत की प्रमुख जीवन बीमा कंपनी-भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) में अपनी हिस्सेदारी के एक हिस्से को बेचने को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार की दिख रही जल्दबाज़ी को अगर एक वाक्य में समेटना हो, तो इसके लिए एक पुरानी और घिसी-पिटी कहावत एकदम मुफीद बैठती है- 'हड़बड़ी में ब्याह, कनपट्टी में सिंदूर'।

मोदी सरकार की ओर से भारत के अब तक के सबसे बड़े आईपीओ को जिस तरह से लाया गया है, वह सार्वजनिक हितों की ग़ैर-मामूली अनदेखी को दर्शाता है, जबकि यह वैश्विक स्तर के उन सट्टेबाजों की अस्वीकार्य महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का एक ज़रिया बन रहा है, जिन्होंने भारी छूट वाले मूल्यों पर इसके शेयर हासिल करने के लिए कड़ी सौदेबाज़ी की है। ऐसा करते हुए सरकार ने उन लाखों पॉलिसीधारकों के हितों की घोर अनदेखी की है, जिन्होंने न सिर्फ़ एलआईसी, बल्कि भारत में जीवन बीमा की संस्कृति के विकास और उसे मज़बूती देने में अहम भूमिका निभायी है, जबकि मुट्ठी भर अंतर्राष्ट्रीय सट्टा लगाने वालों के हितों के पक्ष में होने से इस संदेह की ही पुष्टि होती है कि एलआईसी के आईपीओ जारी किये जाने यानी फ़्लोट करने में एक बड़ै पैमाने और शायद भारत में निजीकरण के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले के सभी लक्षण मौजूद हैं।

शनिवार, 23 अप्रैल को एलआईसी बोर्ड ने साफ़ तौर पर केंद्रीय वित्त मंत्रालय के दबाव में नियोजित विनिवेश की सीमा को 5% से घटाकर 3.55% करने का फ़ैसला लिया था। 26 अप्रैल को एलआईसी बोर्ड ने औपचारिक रूप से फ़्लोट की लॉन्च तिथियों के साथ-साथ पॉलिसीधारकों और कर्मचारियों को दिये जाने वाले जारी मूल्य पर छूट की सीमा के साथ-साथ अन्य विवरणों पर भी निर्णय लेने के लिए बैठक की। एलआईसी की ओर से 27 अप्रैल को बाज़ार नियामक, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) के साथ औपचारिक रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस दाखिल किये जाने की उम्मीद है। इन विवरणों के औपचारिक रूप से इसी दिन बाद में एक मीडिया सम्मेलन में सामने आने की संभावना है।

असाधारण परिस्थितियों, ख़ासकर यूक्रेन में चल रहे युद्ध और वैश्विक बाज़ारों में चल रहे उथल-पुथल से पार पाने के लिए सरकार उस सख़्त समय सीमा के साथ चल रही थी, जो 12 मई तक समाप्त हो रही है। सरकार ने इस राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने की दिशा में एक के बाद एक औपचारिक क़दम उठाने शुरू कर दिये थे। फ़रवरी में एलआईसी में अपनी हिस्सेदारी का एक हिस्सा सेबी के हक़ में छोड़ते हुए सरकार ने अपनी ड्राफ़्ट रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस (DRHP) दाखिल करने की दिशा में पहला औपचारिक क़दम उठाया था,सरकार के पास इस विवादास्पद आईपीओ पर आगे बढ़ने के लिए तब तक का समय था। उस समय सीमा से चूक जाने से उसे अपने प्रदर्शन को लेकर ताज़ा और अद्यतन(updated) डेटा दाखिल करने की ज़रूरत होती, जिससे आईपीओ में देरी होती। क्या यह मजबूरी किसी भी तरह से विनिवेश को लेकर की जाने वाली इस लापरवाह हड़बड़ी को सही ठहरा सकती है, यह एक ऐसा अहम सवाल है, जिसका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है।

ग़ैर-मामूली छूट पर एलआईसी शेयर का मूल्य निर्धारण

वित्त मंत्रालय के अज्ञात अधिकारियों की टिप्पणियों के स्रोत से पिछले कुछ दिनों में प्लांटेड मीडिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि सरकार आईपीओ के आकार को तक़रीबन 70-75,000 करोड़ रुपये से घटाकर लगभग 21,000 करोड़ रुपये करने की योजना बना रही है। ऐसे दो तरीक़े हैं, जिनसे इश्यू का आकार कम किया जा सकता है और वे दो तरीक़े हैं- या तो शेयरों की एक छोटी संख्या को हटा लेना, या फिर उस प्रत्येक शेयर की क़ीमत को कम कर देना, जो संभावित शेयरधारकों को दिया जाना है। यह "क्वांटिटी" इफ़ेक्ट(यानी मूल्य वृद्धि के बाद कम यूनिट बेचे जाते हैं, जिससे राजस्व कम हो जाता है) सरकार की ओर से बेचे जाने वाले शेयरों की संख्या में 30% की कमी से उत्पन्न होता है।

डीआरएचपी (Draft Red Herring Prospectus) के मुताबिक़, सरकार ने 31.625 करोड़ शेयरों को बेचने की योजना बनायी थी, जो एलआईसी के 632.50 करोड़ शेयरों के इक्विटी आधार का 5% है। पेश किये जाने वाले शेयरों की संख्या को अब 22.1375 करोड़ शेयरों तक कम किया जाना है, जो एलआईसी के इक्विटी आधार का 3.5% है। इसमें अब तक ऐसा कुछ भी नहीं है, जो गड़बड़ दिखायी दे।इसमें गड़बड़ी तभी दिखायी देती है, जब तक कि निश्चित रूप से भारत की इस सबसे सफल बीमा कंपनी के निजीकरण के तर्क के ख़िलाफ़ कोई उन दलीलों को नहीं रखता, जिस तरह की दलील इस आलेख का लेखक दे रहे हैं।

इससे तो यही पता चलता है कि यह "मूल्य प्रभाव" वही चीज़ है, जिसको लेकर वित्तमंत्री की नुक़सान पहुंचाने वाली मंशा मे इस मूल्य प्रभाव के सभी अशुभ वैभव दिखायी देते हैं।मगर,कैसे,आइये इसे समझने की कोशिश करते हैं। मिलिमैन एडवाइजर्स की ओर से अनुमानित और डीएचआरपी में सामने आये एलआईसी के एंबेडेड वैल्यू (EV) यानी किसी जीवन बीमा कंपनी के शुद्ध परिसंपत्ति मूल्य और भविष्य के मुनाफ़े के मौजूदा मूल्य के योग का हालिया अनुमान 5.40 लाख करोड़ रुपये था। इस बात की परवाह किये बिना कि ईवी की अवधारणा ही अपर्याप्त है, इसका मतलब यह है कि प्रत्येक शेयर का आधार मूल्य 853 रुपये है।

निवेशकों को फ़ायदा, पॉलिसीधारकों को नुक़सान

लगभग दो महीने पहले शुरु में ही यह उम्मीद की गयी थी कि एलआईसी के प्रत्येक शेयर का वास्तविक मूल्य 2.5 और 3 के बीच के गुणन घटक(multiplying factor) को लागू करके निकाला जायेगा। इसका मतलब प्रति शेयर मूल्यांकन 2,133 रुपये और 2,559 रुपये के बीच होता। 5% हिस्सेदारी की बिक्री 31.625 करोड़ शेयरों की बिक्री के बराबर होगाr,जिससे सरकार को कहीं न कहीं 67,456 करोड़ रुपये और 80,928 करोड़ रुपये के बीच की राशि मिली होती।

मीडिया में आये रिपोर्टों से यह संकेत मिलता है कि सरकार "प्रतिकूल बाज़ार स्थितियों" का हवाला देने वाले अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों की ओर से की जाने वाली लगातार आलोचनाओं से अब एलआईसी के अनुमानित ईवी के महज़ 1.1 गुणा के गुणन का इस्तेमाल करते हुए इस मूल्यांकन को नाटकीय रूप से कम करने की तैयारी कर रही है, जो कि अपने आप में भारत की सबसे बड़ी (और दुनिया में सबसे बड़ी कंपनियों में से एक कंपनी) जीवन बीमा करने वाली कंपनी के वास्तविक मूल्य का एक निहायत ही अपर्याप्त आकलन है। इस बेहद छोटे से गुणन घटक को लागू करने का ख़ासकर कोई औचित्य इसलिए नहीं है, क्योंकि बहुत छोटे निजी जीवन बीमा करने वाली कंपनियों ने भी अपने ईवी का 2.5 से 3 गुना के बीच के घटक का इस्तेमाल किया है। निश्चित ही रूप से एलआईसी अपने लंबे ट्रैक रिकॉर्ड और बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी को देखते हुए कहीं ज़्यादा गुणन घटक का हक़दार है।

1.1 के बहुत कम गुणन घटक को लागू करने का मतलब है कि कम किये जाने वाले प्रत्येक शेयर की यह क़ीमत लगभग 938 रुपये होगी। पहले के मूल्यांकन की निचली सीमा के हिसाब से यह लगभग 44% सस्ता है; पहले के मूल्यांकन की उच्च सीमा पर दी जा रही छूट 63% है। और भी बेहतर तुलना करने के लिए आइए हम इस बात का आकलन करते हैं कि 3.5% हिस्सेदारी बिक्री के ज़रिये सरकार ने 22.1375 करोड़ शेयरों की पेशकश के माध्यम से कितनी राशि अर्जित की होगी।

फ़रवरी में यह गुणन घटक लागू किया गया था और यह 2.5 और 3 के बीच था और मुनासिब इसलिए था,क्योंकि उसे लागू किये जाने से सरकार को 47,219 करोड़ रुपये से लेकर 56,650 करोड़ रुपये तक की राशि मिल जाती। मीडिया में आ रही रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि 1.1 के रियायती गुणक के साथ, 3.5% शेयर बिक्री, 938 रुपये प्रति शेयर मूल्य टैग के साथ सरकार को 20,765 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे। निजीकरण की इस क़वायद के पागलपन को एक पल के लिए भूल भी जायें,तो  भी सरकारी ख़ज़ाने को होने वाला नुक़सान 26,443 करोड़ रुपये से 35,885 करोड़ रुपये के बीच होगा।

यह घोटाला नहीं तो क्या है ?

ऐसी कोई कंपनी नहीं है, जिसने भारत में इस स्तर पर जीवन बीमा का बीड़ा उठाया हो, जिसकी बाज़ार हिस्सेदारी लगभग दो-तिहाई हो, जिसका निवेश पूरे म्यूचुअल फ़ंड उद्योग से कहीं ज़्यादा हो, और जिसके छह दशकों का ट्रैक रिकॉर्ड एकदम निष्कलंक हो। मुमकिन है कि लाखों पॉलिसीधारकों की क़ीमत पर तेज़ी से पैसा बनाने वाले पूंजी निवेशकों की ओर से इसे "मोटा होने" दिया गया हो। यही वजह है कि अगर ठीक-ठीक कहा जाये,तो एलआईसी के इस आईपीओ को एक बड़ा घोटाला ही माना जा सकता है।

क़ीमत तय करने का खेल

ईवी से तय किया गया इसका आधार मूल्य एलआईसी के वास्तविक मूल्य से कुल मिलाकर बेहद कम है। इस बात परो ज़र देना ज़रूरी है कि ईवी की धारणा के आधार पर बीमा नियामक, भारतीय बीमा नियामक विकास प्राधिकरण से मंज़ूर इस मूल्यांकन पर अमल ही एलआईसी के सकल अवमूल्यन के लिए ज़िम्मेदार है। यह ईवी ही है,जिससे बारे में माना जाता है कि किसी जीवन बीमा कंपनी के मूल्य के आधार मूल्य का आकलन इसी के आधार पर किया जाता है,लेकिन एलआईसी जैसे अनूठे वित्त संस्थान के मूल्य का सही आकलन करने के लिहाज़ से यह तरीक़ा एकदम नाकाफ़ी है।

इस बात पर ज़ोर देना महत्वपूर्ण है कि जीवन बीमा कंपनी के मूल्य के एक वैचारिक उपाय के रूप में ईवी का विकास ख़ासकर वैश्विक वित्तीय संकट के बाद हाल ही में हुआ है, जिसके नतीजे के रूप में कई बीमा कंपनियों के पतन के बाद वैश्विक जीवन बीमा व्यवसाय में विलय और अधिग्रहण की लहर सी आ गयी।

अगर थोड़े में कहा जाय,तो ईवी इस सवाल का एक संक्षिप्त जवाब देने की कोशिश है कि जीवन बीमा करने वाली किसी कंपनी के कारोबार का अधिग्रहण करने वालों के लिए संभावित फ़ायदा कितना है ? यही वह संकीर्ण आधार है, जिस पर ईवी की धारणा का निर्माण किया गया है। दरअस्ल,बीमा कंपनियों के मूल्यांकन का हिसाब-किताब लगाने वाले कैनेडियाई शोधकर्ता फ़्रैडरिक ट्रेमब्ले(2006) एक शोध-पत्र में बताते हैं कि ईवी की इस धारणा को "सावधानी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए", क्योंकि ये मूल्यांकन के लिए बनायी गयी अंतर्निहित मान्यताओं पर गंभीर रूप से निर्भर हैं।

वास्तव में व्यापक रूप से "मूल्यांकन गुरु" के रूप में जाने जाते और न्यूयॉर्क स्थित स्टर्न स्कूल ऑफ़ बिज़नेस में वित्त मामले के प्रोफ़ेसर अश्वथ दामोदरन ने एक दूसरे सिलसिले में इस मूल्यांकन को लेकर बोलते हुए इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया है कि कोई भी मूल्यांकन उन अंतर्निहित धारणाओं पर गंभीर रूप से निर्भर करता है, जो अक्सर मूल्यांकन करने वालों के पूर्वाग्रहों को दर्शाता है। इसके अलावा, दो चेक विद्वानों की ओर से पेश किये गये एक और हालिया शोध-पत्र में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मूल्यांकन निर्धारित करने के लिहाज़ से ईवी पर बहुत ज़्यादा निर्भरता जोखिम भरा है। इसके बजाय, वे दोनों यह सुझाव देते हैं कि बीमा व्यवसाय के मूल्य का बेहतर अनुमान लगाने के लिए ईवी के अलावा किसी दूसरी विधि का इस्तेमाल किया जाये।

एलआईसी के मामले में ईवी गणना से ग़ायब सबसे अहम तत्वों में से एक तत्व तो यह है कि मिलिमैन ने अपने स्वामित्व की इस संपत्ति के मूल्य को पूरी तरह से ग़ायब ही कर दिया है। यह इस तथ्य को देखते हुए एक उल्लेखनीय चूक है कि एलआईसी शायद सभी भारतीय महानगरों और बड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि पूरे देश की प्रमुख संपत्तियों वाली भारत की सबसे बड़ी ख़रीद-फ़रोख़्ख करने वाली एजेंसी है। इसकी अचल संपत्ति की संपदा का मूल्य क्या है, इसका कोई विश्वसनीय अनुमान नहीं है, लेकिन कुछ के मुताबिक़ यह मूल्य कई लाख करोड़ रुपये का है, जो मिलिमैन की ओर से अनुमानित ईवी से कहीं ज़्यादा है।

एलआईसी ने ख़ुद कभी इन परिसंपत्तियों के मूल्य का आकलन नहीं किया, क्योंकि इसकी कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन, हक़ीक़त यही है कि एलआईसी के नये मालिक होने के चलते उनके पास अब इस संपत्ति पर दावा होगा। यह नयी स्थिति इस बात को दर्शाता है कि किया गया यह कम मूल्यांकन सीधे-सीधे उन नये मालिकों को फ़ायदा पहुंचा रहा है, जिन्होंने इन परिसंपत्तियों के अधिग्रहण में कोई भूमिका ही नहीं निभायी है।

पॉलिसीधारकों का बेहद कम मूल्यांकन और स्वामित्व से बेदखली  

सबसे जो स्पष्ट तथ्य है,वह यह कि डीआरएचपी से बाहर घूरने का यह तरीक़ा उस तरह का है, जिससे लाखों मौजूदा पॉलिसीधारकों को स्वामित्व से बेदखल कर दिया गया है। सचाई तो यही है कि एलआईसी की ईवी में मार्च 2021 में 0.96 लाख करोड़ रुपये से सितंबर 2021 में 5.40 लाख करोड़ रुपये तक (छह महीने के भीतर) की यह शानदार बढ़ोत्तरी सीधे-सीधे एलआईसी अधिनियम में किये गये गये बदलावों का ही नतीजा है।

यह बदलाव एक ही झटके में नीतियों में सहभागी इन धारकों को उनकी भागीदारी से वंचित कर देते हैं, जो कि पहले ग़ैर-भागीदारी नीतियों से अर्जित अधिशेष के 95% के हक़दार हुआ करते थे, क्योंकि वे ऐसी नीतियों से जुड़े जोखिम में भाग लेते हैं।

ईवी में हुई यह शानदार बढ़ोत्तरी पूरी तरह से पॉलिसीधारकों के अधिकारों को छीनने और उन्हें "शेयरधारकों" में बदल दिये जाने से संभव हो पायी है। जबकि ग़लत तरीक़े से ईवी में हुई यह बढ़ोत्तरी, जो कि शेयरधारकों की कमान का एक साधन है,अब साफ़ तौर पर उन लाखों पॉलिसीधारकों के अधिकारों के हनन पर आधारित है, जिन्होंने अपनी बचत को इसमें लगाया हुआ है।

अगर इस लिहाज़ से देखा जाय,तो यह न्यून मूल्यांकन दो तरह से एक घोटाला है। एक तो यह सरकार को उस "राजस्व" से वंचित कर देता है, जिसे वह आईपीओ से अर्जित की होती। लेकिन, इससे भी अहम बात यह है कि यह पॉलिसीधारकों के अधिकारों को छीन लेता है और उन निजी संस्थाओं को लाभ हस्तांतरित कर देता है, जिन्होंने दशकों से एलआईसी के निर्माण और मज़बूती देने में कोई भूमिका ही नहीं निभायी है।

पिछले कुछ दिनों से मीडिया में जो कानाफूसी चल रही है,उससे यही पता चलता है कि इस भारी छूट के पीछे किस तरह से अंतर्राष्ट्रीय "निवेशक" के हाथ हैं, जिस पर मोदी सरकार विचार कर रही है। क्या यह हास्यास्पद और चौंकाने वाली बात नहीं है कि आईपीओ में एलआईसी स्टॉक के ये संभावित "ख़रीदार", ख़ासकर कथित "एंकर निवेशक" सरकार को बता रहे होंगे कि क़ीमत क्या होनी चाहिए ? क्या इस तरह की बिक्री को "बाज़ार" में होने वाली उस बिक्री के रूप में कहना हास्यास्पद नहीं होगा, जिसकी क़ीमत उसमें भाग लेने वाले एजेंटों की "खुलेआम" इच्छा से निर्धारित की जाती है ?

कौन हैं एलआईसी के असली मालिक ?

ग़ौरतलब है कि मीडिया में इस क्षेत्र के जानकारों ने एलआईसी की इस कहानी के सबसे बड़े सवाल को बड़ी सावधानी से टाल दिया है और यह सवाल है कि एलआईसी का अस्ली मालिक है कौन? सरकार के प्रति उनकी इतनी सहानुभूति है कि वे यह तर्क देते हैं कि न्यून मूल्यांकन तो उन कारकों का ही नतीजा है, जो पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं।इसे महज़ चालाकी नहीं कहा जा सकता। भले ही कोई एलआईसी आईपीओ (जो अपने आप में बेतुका है) के विचार से सहमत हो, लेकिन आप ऐसे मूल्यांकन से आख़िर क्यों सहमत होंगे, जो तीन महीने से कम समय के भीतर इतनी भारी छूट देता हो ?

चूंकि हम एक ऐसी अग्रणी बीमा कंपनी के बारे में बात कर रहे हैं, जो दुनिया की किसी भी दूसरी कंपनियों के उलट विशिष्ट रूप से बनी थी, क्या उसके लिए यह उचित नहीं था कि सरकार को बाद में बाज़ार से संपर्क करने की ज़रूरत नहीं होती ? यह क़रीब-क़रीब वैसा ही मामला है, जैसे कि मोदी सरकार किसी कोने में दुस्साहसी निवेशकों के गिरोह से ख़ुद को चित्रित होता हुआ देखना चाहती हो।

यह दलील देना कि पॉलिसीधारक आईपीओ में शेयर ख़रीदने की पात्रता  रखते हैं, चालाकी ही नहीं, बल्कि साफ़ तौर पर एक बेकार की दलील है। सबसे पहले तो इसमें कोई संदेह ही नहीं है पॉलिसीधारकों को व्यक्तिगत नहीं,बल्कि एक वर्ग के रूप में सामूहिक रूप से छोटा किया जा रहा है। दूसरा, लाखों पॉलिसीधारक,ख़ासकर छोटे-छोटे पॉलिसी वाले पॉलिसीधारक शेयर बाज़ार में प्रवेश करने की स्थिति में नहीं हो सकते, या ऐसा करने का उनका इरादा भी नहीं हो सकता। हक़ीक़त यही है कि एक वर्ग के रूप में उन्हें वंचित कर दिया जायेगा, सिर्फ़ औपचारिक रूप से उन्हें आईपीओ नामक लॉटरी में भाग लेने की "इजाज़त" देकर की गयी इस ग़लती को दुरुस्त नहीं किया जा सकता।

तीसरी बात कि क्या यह बात हैरत में नहीं डालती है कि मीडिया में एक भी स्वर उन पॉलिसीधारकों के लिए आईपीओ के एक हिस्से को आरक्षित करने के उस विचार के सिलसिले में नहीं उठा है, जिन्हें सरकार अब एलआईसी के "ग्राहक" के रूप में मानती है और जिनके पास कोई स्वामित्व का वह अधिकार भी नहीं है, जो कि एलआईसी की विरासत की पुष्टि करता रहा है?

क्या भारत के पूंजी बाज़ार के इतिहास में कोई दूसरा सार्वजनिक निर्गम है, जहां किसी कंपनी ने अपने "ग्राहकों" को ही शेयर दे दिये हों ? पेटीएम का अपने ग्राहकों को रियायती क़ीमतों पर शेयर बेचना अगर बेमानी था, तो यही बात एलआईसी पर भी तो लागू होती है।

ऐसा क्यों हो रहा है,इसके पीछे की वजह को समझने का एकलौता आधार यही है कि यह उन लाखों पॉलिसीधारकों की ओर से होने वाले विरोध को कुंद किये जाने के लिहाज़ से उठाया जाने वाला एक रणनीतिक क़दम है, जिन पर उस एलआईसी के "मालिक" के रूप में अपनी हैसियत को खोने का ख़तरा हैं, जिसे एक विशाल सहकारी उद्यम के रूप में तैयार किया गया था। सरकार को संपूर्ण मालिक नहीं,बल्कि बतौर एक ट्रस्टी काम करना था। आईपीओ का जारी होना इस बात की पुष्टि करता है कि यह ट्रस्टी अब कपटी बन चुका है।

यह आईपीओ एलआईसी के ध्वस्त किये जाने की राह का पहला क़दम है

इस आईपीओ से एलआईसी के लिए दीर्घकालिक नतीजे होने की आशंका है। बाज़ार नियामक की इन शर्तों का मतलब है कि पांच साल के भीतर कम से कम 10% और 25% की सार्वजनिक हिस्सेदारी रखने के लिए उसे दो साल के भीतर फिर से बाज़ार का रुख़ करना होगा। इस आईपीओ में दी जाने वाली भारी छूट से उस क़ीमत को कम किये जाने की संभावना है, जिस पर सरकारी हिस्सेदारी और घट जाती है।

ऐसा दिखायी देता है कि सरकार इस लिस्टिंग के तुरंत बाद शेयर की क़ीमत में होने वाले "धमाके" से "फ़ील गुड" प्रभाव निकालने की कोशिश कर रही है। याद कीजिए कि 2019 में आईआरसीटीसी के आईपीओ के साथ क्या हुआ था ? शेयर का निर्गम मूल्य 315-320 रुपये प्रति शेयर पर निर्धारित किया गया था, लेकिन लिस्टिंग के दिन यह 644 रुपये पर खुला था। न तो सरकार और न ही लाखों एलआईसी पॉलिसीधारक शेयर की लिस्टिंग के इस "धमाके" से एक पैसा हासिल नहीं कर पायेंगे।इसके बजाय, यह सिर्फ़ तेज़ निवेशक ही हैं,जो आसानी से बहुत सारे पैसे बना पायेंगे।

शायद मोदी सरकार सट्टा के उन दिग्गजों के लिए तेज़ी से हासिल कर पाने वाले फ़ायदे पर भरोसा कर रही है, जो सरकार और लाखों पॉलिसीधारकों को होने वाले नुक़सान से सीधे तौर पर उत्पन्न प्रीमियम को निकाल लेने के बाद बाहर निकल जायेंगे।यह बात उस सरकार के लिए तो पूरी तरह समझ में आती है,जो हमेशा ही फील गुड के मोड में रहती रही है। लेकिन, 4 मई को प्रस्तावित यह आईपीओ लाखों भारतीयों के लिए भारत के सबसे लोकप्रिय संस्थानों में से एक एलआईसी के विध्वंस की शुरुआत होगी।

लेखक 'फ़्रंटलाइन' के पूर्व एसोसिएट एडियर हैं, और इन्होंने द हिंदू ग्रुप के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। वह सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवा जन आयोग के सदस्य हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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