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बंगाल में गठबंधन के लिए बिहार से सीख : ज्यादा नहीं, बल्कि जिताऊ सीटें लड़ने पर ज़ोर

अब इस बात पर सहमति बनती दिख रही है कि बिहार की गलती बंगाल में नहीं दोहरायी जाए। जो गठबंधन बने उसमें पार्टियां सीटें अपने पुराने प्रदर्शनों और राजनीतिक ‘कद’ के आधार पर नहीं, बल्कि एक-एक क्षेत्र में मौजूदा वास्तविक हालात के आधार पर लें।
बंगाल में गठबंधन के लिए बिहार से सीख
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी (बाएं) और बंगाल में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी (दाएं)

पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए लेफ्ट और कांग्रेस के बीच एक ऐसा कारगर गठबंधन बनाने पर काम चल रहा है, जो भाजपा और राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से एक साथ मुकाबला करने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक बड़ी सीख मिली है हाल में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव से।

बिहार में कांग्रेस ने 70 सीटें लड़ीं और सिर्फ 19 पर जीत दर्ज की। वहीं लेफ्ट ने सिर्फ 29 सीटें लड़कर 16 पर जीत हासिल की। लेफ्ट में सीपीआई ने छह और सीपीएम ने चार सीटें लड़ीं और दो-दो पर जीत पायी। जबकि, सीपीआई (एमएल) ने 19 में से 12 सीटें जीतीं। एक सीट उसने केवल 462 वोटों से गंवा दी। क्रिकेट की भाषा में बात करें तो कांग्रेस का स्ट्राइक रेट केवल 27 फीसदी रहा, जबकि लेफ्ट का 55 फीसदी। अकेले सीपीआई (एमएल) की बात करें तो उसका स्ट्राइक रेट 63 फीसदी रहा। भाजपा के अलावा किसी भी पार्टी का यह इस बिहार चुनाव में सबसे बेहतर स्ट्राइक रेट है।

कमोबेश सभी का मानना है कि बिहार में महागठबंधन बहुमत के आंकड़े से सिर्फ कांग्रेस के बेहद निराशाजनक स्ट्राइक रेट के कारण चूक गया। कांग्रेस ने अपनी जमीनी हकीकत का आकलन करने के बजाय अपनी पार्टी के ‘कद’ के आधार पर गठबंधन में सीटें लीं। उसे 70 सीटें देने की वजह से लेफ्ट को कम सीटें मिलीं और कुछ अन्य छोटे दलों को भी गठबंधन में जगह नहीं दी जा सकी। दूसरी तरफ, सीपीआई (एमएल) और अन्य वामपंथी दलों ने केवल वो सीटें लड़ीं जहां उनका पुराना और ठोस काम है। इसका नतीजा हुआ कम सीटें लड़कर भी अच्छी सफलता। अगर कांग्रेस 70 की जगह 50 सीटों पर लड़ती तो बिहार की कहानी कुछ और हो सकती थी।

अब इस बात पर सहमति बनती दिख रही है कि बिहार की गलती बंगाल में नहीं दोहरायी जाए। जो गठबंधन बने उसमें पार्टियां सीटें अपने पुराने प्रदर्शनों और राजनीतिक ‘कद’ के आधार पर नहीं, बल्कि एक-एक क्षेत्र में मौजूदा वास्तविक हालात के आधार पर लें। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने बंगाल के संदर्भ में कहा है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलें, इस संख्या के बजाय जोर इस पर होना चाहिए कि अभी कौन कहां से जीतने की स्थिति में है। येचुरी के इस मत का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने भी पूरा समर्थन किया है। बिहार चुनाव के नतीजों के बाद येचुरी ने कहा कि आनेवाले कुछ महीनों के अंदर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव होंगे। इन सब राज्यों में सीपीएम ने कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस और अन्य सहयोगी दलों से वह अपील करेंगे कि कौन कितनी सीटों पर लड़े, इस संख्या को लेकर विवाद करने से कोई लाभ नहीं। बल्कि एक-एक सीट की स्थिति पर विचार होना चाहिए कि कहां किसकी कितनी ताकत है। जहां से जिसके जीतने की संभावना ज्यादा हो, वहां से उसी पार्टी को लड़ने दिया जाए। पहले से संख्या तय करने की जगह, जमीनी वास्तविकता को सीट बंटवारे का आधार बनाया जाए।’

येचुरी की इस अपील पर बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा, ‘येचुरी का प्रस्ताव एकदम ठोस वास्तविकता पर आधारित है। उनके साथ मैं पूरी तरह सहमत हूं। कौन कितनी सीटों पर लड़ेगा, इसे लेकर किसी पार्टी का झिकझिक करना उचित नहीं है।’ उन्होंने यह भी कहा कि औपचारिक चुनावी गठबंधन पूरा होने के पहले ही ब्लॉक और जिला स्तर पर लेफ्ट और कांग्रेस के कार्यकर्ता लगातार संयुक्त कार्यक्रम कर रहे हैं।

बंगाल उन राज्यों में है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो भाजपा को आज तक वहां कुछ खास सफलता नहीं मिल पायी है। बंगाल को जीतना उसके लिए सिर्फ राजनीतिक जीत की नहीं, बल्कि वैचारिक जीत की भी लड़ाई है। इस संदर्भ में येचुरी ने कहा, ‘आगामी चुनाव बंगाल के लिए बेहद अहम है। बंगाल को सांप्रदायिक ताकतों के हाथों में नहीं जाने दिया जा सकता। इसलिए हर हाल में वोटों का बंटवारा रोकना होगा और इसके लिए यथार्थपरक ढंग से सीटों का बंटवारा करना होगा।’

दुश्मन नंबर एक की दुविधा

बिहार में गठबंधन के सामने एक ही दुश्मन था, भाजपा। बंगाल में स्थिति इस मामले में दुविधापूर्ण है। यहां भाजपा और तृणमूल कांग्रेस से एक साथ मुकाबला करना है। लेफ्ट और कांग्रेस में इस बात पर एका है कि सैद्धांतिक रूप से दुश्मन नंबर एक भाजपा ही है। लेकिन जो जमीनी हालात हैं उसमें कांग्रेस और सीपीएम की अगुवाई वाला वाम मोर्चा यह मानता है कि बंगाल में तृणमूल के प्रति नरम नहीं हुआ जा सकता। तृणमूल के प्रति नरम होने से सारा तृणमूल विरोधी वोट भाजपा के पास चला जायेगा और आखिरकार इसका फायदा भाजपा को ही होगा।

बिहार में सबसे ज्यादा सफलता पाने वाली सीपीआई (एमएल), जो कि बंगाल के पारंपरिक वाम मोर्चा का हिस्सा नहीं है, ने इस बारे में थोड़ी अलग राय रखी है। एमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का कहना है कि तृणमूल सरकार के अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के खिलाफ उनकी पार्टी संघर्षरत है, लेकिन मौजूदा हालात में भाजपा और तृणमूल को एक ही खाने में रखना ठीक नहीं होगा। तृणमूल के बजाय मुख्य निशाना भाजपा ही होना चाहिए। अगर राज्य में भाजपा सरकार आती है, तो यह तृणमूल सरकार से बड़ा खतरा होगा, इस बात को कांग्रेस और वाम मोर्चा को समझना होगा। देश में भाजपा के और मजबूत होने का मतलब है लोकतंत्र और संविधान का खतरे में पड़ना। उन्होंने बंगाल में कांग्रेस के ‘बड़ा भाई’ बनने की प्रवृत्ति पर भी निराशा जतायी। उन्होंने आगाह किया कि कांग्रेस के सामने किसी तरह का समर्पण करना लेफ्ट के लिए आत्मघाती होगा।

लेकिन तृणमूल और भाजपा को समान दुश्मन नहीं मानने की राय से सीपीएम और कांग्रेस एकमत नहीं हैं। पूरे सीपीएम नेतृत्व का यह मानना है कि इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा बड़ा खतरा है, लेकिन इस राज्य में सरकार में तृणमूल है और उसे ‘रियायत’ देकर भाजपा से लड़ना संभव नहीं है। सीपीएम का मानना है कि दोनों पार्टियों के खिलाफ एकसाथ मोर्चा खोलना ही यथार्थपरक है। बंगाल वाम मोर्चा के चेयरमैन विमान बसु इस बारे में कहते हैं कि बंगाल और बिहार के हालात अलग हैं। यहां तृणमूल और भाजपा दोनों ही ताकतें राज्य के लिए नुकसानदेह हैं। भाजपा सांप्रदायिक पार्टी है और तृणमूल के भी बहुत से क्रियाकलाप उसके जैसे ही हैं। उन्होंने कहा कि बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल के प्रति नरम रवैया अपनाने या उससे किसी तरह के समझौते का सवाल ही नहीं है। बंगाल कांग्रेस के नेताओं का भी कहना है कि तृणमूल और भाजपा में कोई फर्क करना संभव नहीं है।

(सरोजिनी बिष्ट स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

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