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MSP की लीगल गारंटी नहीं पड़ेगी देश की जेब पर भारी, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था संभल जाएगी

भाजपा और सरकार समर्थक कह रहे हैं कि एमएससी की लीगल गारंटी देने से देश का खजाना खाली हो जाएगा और देश का दिवाला निकल जाएगा। चलिए समझते हैं कि क्यों ऐसा नहीं होगा, और इससे कैसे देश की अर्थव्यवस्था पहले से ज्यादा मजबूत हो जाएगी।
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Image courtesy : The Economic Times

सरकार समर्थक कह रहे हैं कि अगर किसानों को एमएसपी की लीगल गारंटी दी गई तो देश की अर्थव्यवस्था का दिवाला निकल जाएगा। अर्थशास्त्र का हर विद्वान और हर किताब कहती है कि जब बहुतेरे लोग के जेब में पैसा पहुंचता है, तो देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। इसलिए जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दी जाएगी तो किसानों को लाभ पहुंचेगा।  उन 42 फ़ीसदी कृषि कामगारों की जेब पहले से मजबूत होगी, जो कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इतनी बड़ी आबादी के पास जब पैसा पहुंचेगा तो अर्थव्यवस्था का दिवालिया नहीं निकलेगा, बल्कि दिवालियापन की हालत में पहुंच चुकी भारत की अर्थव्यवस्था संभल जाएगी।

जाने-माने कृषि पत्रकार देवेंद्र शर्मा तो यहां तक कहते हैं कि अगर एमएसपी को कानूनी अधिकार बना दिया जाएगा, तो यह दावा है कि देश की जीडीपी 15% तक पहुंच जाएगी। जब 7वां वेतन आयोग आया था, तो बिजनेस इंडस्ट्री ने कहा था कि ये बूस्टर डोज की तरह है। बूस्टर डोज का मतलब है लोगों के पास ज्यादा पैसा आना और मार्केट में भी पैसा बढ़ना। ऐसे में डिमांड जनरेट होने से इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन बढ़ेगा। अगर 4% आबादी की सैलरी को हम बूस्टर डोज कहते हैं, तो आप समझ सकते हैं कि 50% आबादी के पास ज्यादा इनकम होने से कितनी ज्यादा डिमांड जनरेट होगी। शर्मा ने कहा कि ये संकट अर्थशास्त्रियों का बनाया हुआ है, जो किताबों से बाहर नहीं निकलना चाहते।

हम सब चाहते हैं कि हम एक ऐसी दुनिया में रहे, जहां पर हम सभी को अपनी मेहनत का वाजिब हक मिले। लेकिन किसानों को बहुत लंबे समय से यह हक नहीं मिल रहा है। कई सारी रिपोर्ट कई सारे विद्वान ढेर सारे वाजिब तर्कों से यह बता चुके हैं कि किसानों का बहुत लंबे समय से शोषण होता रहा है।

सरकार द्वारा 23 फसलों पर एमएसपी घोषित की जाती है। इसका मतलब है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार भी मानती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए। लेकिन देश भर के कुछ इलाकों को छोड़ दिया जाए, तो बहुत सारे इलाकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उपज नहीं बिक पाती। एक-दो फसल ही कुछ इलाके में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिकती है। बाकी के लिए सरकार भी कोशिश नहीं करती। मुश्किल से 16 से 20% फसल ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक पाती है। औसतन किसानों को बाजार में अपनी फसल बेचने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से तकरीबन 40% कम पैसा मिलता है। यह इतना कम है कि किसान की लागत भी नहीं निकल पाती है।

यह परेशानी कोई 1 और 2 साल की बात नहीं बल्कि सालों साल से चलती आ रही है। तो इस परेशानी के हल के लिए क्या करना चाहिए? ऐसी हालत पर भी कोई कैसे कह सकता है कि किसानों को अपनी उपज का वाजिब कीमत नहीं मिलना चाहिए? इसका मतलब है कि अगर कोई कह रहा है कि किसानों को एमएससी की लीगल गारंटी नहीं मिलनी चाहिए तो वह मेहनत के साथ नाइंसाफी कर रहा है। वह ऐसी दुनिया का पक्षधर नहीं जहां पर सबको अपनी मेहनत का वाजिब हक मिले। इसलिए अगर ऐसे व्यक्ति के लिए दलाली शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है तो यह अतिशयोक्ति और अतिरेक नहीं।

ढेर सारे लोगों का तर्क होता है कि अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे दी जाएगी, तो सरकार का खजाना खाली हो जाएगा। इनमें वह सारे अर्थशास्त्री और सरकार समर्थक जानकार शामिल हैं, जो मानते हैं कि राजकोषीय घाटा जनता के भलाई से ज्यादा बड़ी चीज है। जनता कष्ट में रहे, लेकिन राजकोषीय घाटा का संतुलन नहीं बिगड़ना चाहिए। पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार विद्वानों के सोचने का यह महज एक ढंग है। प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्र के जानकार न जाने कितने समय से लिखते आ रहे हैं कि जनता की भलाई राजकोषीय घाटा से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है। प्रभात पटनायक ने न जाने कितने लेख न्यूज़क्लिक पर ही यह बताते हुए लिखे हैं कि राजकोषीय घाटा महज एक छलावे के सिवाय और कुछ भी नहीं। वैश्वीकृत पूंजी अपनी दमदार मौजूदगी खुद को बचाने के लिए दुनिया भर के सभी देशों को राजकोषीय घाटे के मूर्खतापूर्ण पैमाने बढ़ाने के लिए मजबूर करती है।

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एमएसपी की गारंटी देने पर लागत क्या बैठेगी? इसे जानने के लिए किसान नेता योगेंद्र यादव और तेलंगाना के किरण विसा ने एमएसपी और फसल के औसत बाजार-मूल्य के बीच के अंतर की गिनती की। केंद्र सरकार अगर बाजार-मूल्य से ज्यादा कीमत पर उपज खरीदती है या फिर भावांतर को देखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति करने के कदम उठाती है, तो सरकार को मनरेगा के लिए निर्धारित बजट से कम खर्च करना पड़ेगा। स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को लागत का ड्योढ़ा मूल्य देने की बात कही थी और इसके अनुकूल अगर सरकार व्यापक आधार पर जोड़े गये लागत मूल्य में 50 फीसद और जोड़कर एमएसपी निर्धारित करती है, तो इस बढ़े हुए मूल्य के हिसाब से सरकार पर अधिकतम खर्चा 228,000 करोड़ का बैठेगा, जो जीडीपी का 1.3 प्रतिशत और केंद्रीय बजट का 8 प्रतिशत है।

देश की 42 फीसदी कृषि कामगारों को उनका वाजिब दाम देने के लिए इतना खर्च करना, कोई बहुत बड़ा खर्च नहीं है। कृषि मामलों के जानकार कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कोई ऐसी कीमत नहीं है जो किसानों की उपज के लिए सबसे लाभकारी कीमत कही जाए। बल्कि यह एक ऐसी कीमत है जिस से कम कीमत देने का मतलब है किसानों का शोषण करना। मामूली शब्दों में समझा जाए तो कीमत की एक ऐसी लकीर, जिससे कम कीमत मिलना और देना किसानों के साथ शोषण करना है।

चूंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की अवधारणा बाजार की बजाय सरकार से जुड़ी है, इसलिए लोग समझ लेते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने का मतलब यह होगा कि सरकार को किसानों की उपज का हर दाना खरीदना होगा। जबकि ऐसा नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की लीगल गारंटी का मतलब यह है कि सरकार कई तरह के तरीकों को अपनाते हुए यह निर्धारित करें कि किसी भी किसान को अपनी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत न मिले। अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत किसी किसान को मिल रही है, तो यह गैरकानूनी घोषित किया जाए।

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किसान संगठन कहते हैं कि एक तरीका यह हो सकता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उपज खरीदने के लिए सरकार द्वारा पहले से खरीद की मात्रा बढ़ाई जाए। मतलब सरकार जितना पहले खरीद रही थी, उससे अधिक खरीद सकती है। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अभी सबसे गरीब लोगों को महज चावल गेहूं और दाल मुहैया करवाती है, इन फसलों के अलावा दूसरी तरह के अनाज भी सबसे गरीब लोगों तक पहुंचाए जा सकते हैं। अगर ऐसा होगा तो सरकारी खरीद अधिक होगी। सबसे गरीब लोगों का पोषण मिलेगा। सरकार को फायदा होगा। तीसरा तरीका यह है कि सरकार बाजार में हस्तक्षेप करें। जैसे ही कीमतें नीचे गिरेती हैं, तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पाद खरीदने लगे। इससे कीमतें बढ़ने लगेंगी और किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी मिलने लगेगा। चौथा तरीका यह हो सकता है कि सरकार भावांतर जैसी योजनाओं के साथ काम करें। बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच का अंतर सीधे किसानों के खाते में पहुंचा दे।

किसान संगठनों का कहना है कि ऐसे तमाम तरीके सोचे जा सकते हैं जिनके जरिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दी जाए। लेकिन सोचने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। यह राजनीतिक इच्छाशक्ति नेताओं के भीतर तभी आएगी जब उन्हें दिखेगा कि किसानों की दिनभर की हाड़ तोड़ मेहनत की कमाई महज ₹27 है ( द सिचुएशन असेसमेंट सर्वे रिपोर्ट 2019)। इसलिए  यह किसानों के साथ नाइंसाफी है। लेकिन यह देखने के लिए हमारे नेताओं को ईमानदार आंखें चाहिए। यही ईमानदार आंखें हमारे नेताओं के पास नहीं है। उनकी आंखों पर पैसे वालों का चश्मा लगा हुआ है। इसलिए, वह किसानों की नाइंसाफी नहीं देख पाते हैं। उल्टे कारोबारी मीडिया से यह बुवालते हैं कि वह भ्रम जाल फैलाए कि एमएसपी की लीगल गारंटी देने पर देश का दिवाला निकल जाएगा।

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