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बंपर पैदावार के बावजूद, तिल-तिल मरता किसान!

बंपर अनाज पैदा करने वाले किसान ढंग से रोटी खाने के लिए पैसा तक नहीं कमा पाते। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि सरकार कृषि क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों पर अधिक केंद्रित है
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भारत में अनाजों की बंपर पैदावार होती आ रही है। इस साल भी कृषि मंत्रालय का अनुमान है कि खरीफ के सीजन में बंपर अनाज पैदा होगा। लेकिन विडंबना देखिए कि जो किसान बंपर अनाज पैदा कर रहे हैं वह प्रतिदिन महज ₹27 की कमाई कर रहे हैं। प्रति किसान कर्ज का बोझ तकरीबन 74 हजार रूपए है। (NSS सर्वे)

बंपर अनाज पैदा होने के बाद भी भारत की बहुत बड़ी आबादी ढंग का खाना नहीं खा पाती है। कुपोषण से बचने के लिए जिस तरह का पोषण होना चाहिए उस तरह का पोषण नहीं हो पाता है। इसमें भी सबसे बड़ा हिस्सा किसान और मजदूर वर्ग का है। खाने पीने की चीज महंगी होती जा रही हैं।

इसलिए जब भी कृषि मंत्रालय बंपर अनाज की पैदावार का अनुमान लगाता है तो सबसे अहम सवाल यह भी खड़ा होता है कि कृषि क्षेत्र के इतने कारगर होने के बावजूद भी कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों की हालत इतनी बुरी क्यों रहती है? ऐसा क्यों नहीं हो पाता कि कृषि क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था का केंद्र बन जाए?

कृषि मंत्रालय की तरफ से भारत में अनाज उत्पादन से जुड़े आंकड़े पेश किए जाते हैं। कृषि मंत्रालय का अनुमान है कि साल 2021-22 खरीफ के सीजन में तकरीबन 15 करोड़ टन अनाज का उत्पादन होगा। अनाज उत्पादन के मामले में यह साल बंपर अनाज उत्पादन का रहने वाला है। खरीफ के मौसम में पिछले 5 सालों में अनाज उत्पादन का जो औसत रहा है,उससे तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख टन अधिक अनाज उत्पादन का अनुमान लगाया गया है।  चावल का उत्पादन पिछले साल तकरीबन 10 करोड़ 40 लाख टन हुआ था। इस साल तकरीबन 10 करोड़ 70 लाख टन चावल उत्पादन का अनुमान है। दाल का उत्पादन पिछले साल से थोड़ा सा अधिक यानी करीब 90 लाख टन के आसपास रहने वाला है। तिलहन को लेकर इस साल 2 करोड़ 60 लाख टन की पैदावार का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन अब तकरीबन 30 लाख टन कम उत्पादन यानी कि 2 करोड़ 30 लाख टन तिलहन के उत्पादन का अनुमान लगाया जा रहा।

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तिलहन को छोड़कर बाकी खरीफ की सभी फसलों में बंपर पैदावार का अनुमान है। देशभर के कई इलाकों में अलग-अलग सीजन में गन्ने की फसल लगाई जाती है। खरीफ के सीजन में गन्ने के उत्पादन के अनुमान की वजह से 2021-22 के साल में गन्ने के उत्पादन में भी बंपर बढ़ोतरी का अनुमान है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह कृषि उपज से जुड़ा अंतिम आंकड़ा नहीं है। केवल अनुमान वाला आंकड़ा है जो यह बता रहा है कि भारत में कृषि क्षेत्र में बंपर उत्पादन की स्थिति पिछले कई सालों से बनी हुई है। इस बार भी इसमें बंपर बढ़ोतरी होने वाली है।

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस बंपर पैदावार की अनुमान की जानकारी पर अपने भाषण में किसानों, वैज्ञानिकों और कृषि नीतियों की पीठ थपथपा दी है। लेकिन हकीकत में किसानों की अपनी उपज के लिए वाजिब दाम की गारंटी पर कुछ भी नहीं कहा है। मेहनत का इनाम किसानों के साथ हो रहे शोषण को दूर करना होना चाहिए। लेकिन यह तब होता जब कृषि क्षेत्र को कॉरपोरेट की रहनुमाई पर छोड़ने वाली नीतियां नहीं बनाई जातीं, कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के केंद्र में होता, उस पर इमानदारी से काम किया जाता।

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कृषि जानकार कहते हैं कि भारत में जलवायु की प्रकृति की वजह से बंपर उत्पादन की संभावना हमेशा रहती है। यह संभावनाएं अब पूरी भी हो रही है। लेकिन फिर भी जलवायु की वजह से ही बफर स्टॉक बनाने की भी जरूरत पड़ती है। गेहूं और चावल का ही उदाहरण देखें तो जलवायु की उठापटक को ध्यान में रखते हुए तकरीबन तीन करोड़ टन स्टॉक की जरूरत होती है। भारत के पास इससे अधिक स्टॉक मौजूद हैं। इतना अधिक स्टॉक है कि भारत में गरीबों तक सस्ते दामों में अनाज पहुंचाने का पीडीएस कार्यक्रम ढंग से चल पाता है।

कोरोना के दौर में भी ढंग से चल पाया। कोरोना में जब पूरी अर्थव्यवस्था शून्य से नीचे चली गयी थी। तब कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर तकरीबन 3 फ़ीसदी के आसपास थी। 80 करोड़ जरूरतमंद लोगो तक सस्ते दामों में अनाज पहुंच पा रहा है, यह कृषि क्षेत्र की ही देन है। लेकिन फिर भी यहां कमाई कम है, इसकी बड़ी वजह यह है कि हमारी सरकार, नीतियों और नियत कृषि क्षेत्र से भागने की तैयारी में लगी हुई है। उससे बहुत पहले किनारा काट ही चुकी हैं।

नीति आयोग के वर्तमान में सदस्य प्रोफ़ेसर रमेश चंद सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अपने व्याख्यान में कहते हैं कि अर्थव्यवस्था का पुराना मॉडल था कि कृषि क्षेत्र पर निर्भर लोग कृषि क्षेत्र को छोड़कर औद्योगिक जगह पर काम की तलाश में जाएंगे। गैर कृषि क्षेत्र आधुनिक तकनीक की उपलब्धता की वजह से कृषि क्षेत्र से ज्यादा आकर्षक होगा। कृषि क्षेत्र सहायक की भूमिका के रूप में काम करेगा और गैर कृषि क्षेत्र प्राथमिक भूमिका में।

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यह सोच पूरी तरह से नाकामयाब होती दिख रही है। पूरी तरह से पलट गई है। गैर कृषि क्षेत्रों में चंद लोगों के सिवाय ढेर सारे लोगों को रोजगार देने की क्षमता नहीं दिख रही। मौजूदा समय में गैर कृषि क्षेत्रों में एंटी एंप्लॉयमेंट माहौल है। लौटकर लोग कृषि क्षेत्र की तरफ बढ़ रहे हैं। कृषि क्षेत्र में भी ढेर सारी आधुनिक तकनीकी आई हैं। अगर कृषि क्षेत्र भारत की 40 से 45 फ़ीसदी आबादी को सहन कर रहा है तो इसे अर्थव्यवस्था के केंद्र में लाना बहुत जरूरी है। आने वाले भविष्य में पानी का संकट सबसे बड़ा संकट बनकर उभरने वाला है। कृषि क्षेत्र में 90 फ़ीसदी पानी का इस्तेमाल किया जाता है। यह आंकड़ा भी बताता है कि कृषि क्षेत्र पर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। अगर इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो बेरोजगारी और पर्यावरण का संकट बहुत खतरनाक तरीके से उभर कर सामने आएगा।

भारतीय कृषक समाज के चेयर पर्सन अजयवीर झाकर का मानना हैं कि कृषि क्षेत्र की परेशानियां मूलत: सरकारी नीतियों से पैदा हुई परेशानियां हैं। कृषि क्षेत्र का दुख दर्द सरकारी नीतियों का बनाया हुआ दुख दर्द है। भारत जैसे देश में अभी भी केंद्र और राज्य सरकार को बहुत लंबे समय तक कृषि क्षेत्र की मदद करने की जरूरत है। कई सारे आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में पोषण का स्तर गिर रहा है। पोषक तत्वों से भरा भरपेट खाना खाने की हैसियत बहुत बड़ी आबादी के पास नहीं है। यह वैसे देश में हो रहा है जहां पर बंपर अनाज उगता है। अगर लोगों की जेब में पैसा ही नहीं रहेगा तो खरीदेंगे क्या। किसानों को जब अपनी मेहनत का वाजिब मेहनताना नहीं मिलेगा तब वह कुपोषित बनने के लिए मजबूर होंगे। किसानों की आबादी को वाजिब हक देना पूरी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत जरूरी है। यह सब सरकारी नीतियों की दूरदर्शिता की वजह से ही संभव है। उस दूरदर्शिता में कृषि क्षेत्र को केंद्र में रखने से संभव होगा। नहीं तो हालत यह हो गई है कि कृषि क्षेत्र को सस्ते मजदूरों वाला क्षेत्र बनाकर छोड़ दिया गया है।

देशभर में अनाज और खाद्यान्न को लेकर के बेहतर प्रबंधन की कमी है। अगर प्रबंधन होता तो पूरे देश को इकोलॉजी के लिहाज से अनाज उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जाता। अगर वाजिब कीमत मिलती तो हर जगह वही अनाज उत्पादित होता जो वहां का भूगोल उत्पादित करने के लिए कहता है। लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं होता है। ऐसा ना करने की वजह से बहुत बड़ी परेशानियां देश सहते आ रहा है। देश भर के तमाम कृषि विश्वविद्यालयों में तकरीबन 40 फ़ीसदी पोस्ट खाली हैं। यह पद कोई पिछले 30 साल से खाली पड़े हैं। जबकि बहुत बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। हम क्या खाते हैं? यही हमारे स्वस्थ होने का पैमाना तय करता है. शरीर के भीतर क्या आ रहा है वही शरीर से जुड़ी बीमारियों का बड़ा कारण है। कृषि क्षेत्र की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका होने के बाद कोई भी अर्थशास्त्री और नीति निर्माता यही कहेगा कि कृषि क्षेत्र को केंद्र में रखकर अर्थव्यवस्था के बारे में सोचने की जरूरत है। लेकिन क्या ऐसा किया जाता है?

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यही वजह है कि कृषि क्षेत्र में कई तरह की संरचनात्मक कमियां हैं। महज 6 से 15 फ़ीसदी लोगों तक MSP की पहुंच बन पाती है। सरकारी नीतियां कहती हैं कि हर 80 किलोमीटर पर एक सरकारी मंडी होनी चाहिए लेकिन हकीकत में हर 450 किलोमीटर पर मंडिया मिलती हैं।  इस तरह की तमाम संरचनात्मक कमियां कृषि क्षेत्र के भीतर मौजूद हैं। इन संरचनात्मक कमियों की वजह से कृषि क्षेत्र में बंपर पैदावार होती है लेकिन उतना ही बेकार प्रबंधन। चूंकि कृषि क्षेत्र का अंतिम उत्पाद अनाज है, यह अनाज कृषि क्षेत्र पर निर्भर महज 40 फ़ीसदी लोगों से नहीं जुड़ा बल्कि पूरे हिंदुस्तान से जुड़ा है, इसलिए कृषि क्षेत्र के बेकार प्रबंधन से उपजी कई तरह की संरचनात्मक कमियों का असर भारत की पूरी आबादी सहन करती है। जिस आबादी में वह लोग भी शामिल हैं जो कृषि क्षेत्र को कोने में छोड़कर आगे बढ़ने की नीतियां बनाते हैं। उन्हें पलट कर सोचना चाहिए।

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