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लेनिन की कृति 'साम्राज्यवाद' का सैद्धांतिक महत्व

लेनिन की कृति साम्राज्यवाद ने न सिर्फ़ दो प्रकार की क्रांतियों को परस्पर जोड़ दिया बल्कि हाशिए के देशों में क्रांति को मानवता के समाजवाद की ओर बढ़ने की प्रक्रिया का हिस्सा भी बना दिया।
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फोटो साभार : सोशल मीडिया

लेनिन की कृति साम्राज्यवाद (इंपीरियलिज्म) का महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसने क्रांति की संकल्पना का पूरी तरह से क्रांतिकारीकरण कर दिया। मार्क्स और एंगेल्स, पहले ही इसकी संभावना की कल्पना कर चुके थे कि विकसित दुनिया में सर्वहारा क्रांति होने से पहले भी, औपनिवेशिक तथा निर्भर देशों में अपनी ही क्रांतियां हो सकती थीं। लेकिन, इन दो प्रकार की क्रांतियों को परस्पर असंबद्ध क्रांतियों के रूप में देखा गया था और हाशिए पर मौजूद इन देशों में क्रांति का यात्रापथ और विकसित दुनिया की समाजवादी क्रांति के साथ उसका रिश्ता, दोनों ही अस्पष्ट बने हुए थे। लेकिन, लेनिन की कृति साम्राज्यवाद ने न सिर्फ इन दोनों प्रकार की क्रांतियों को परस्पर जोड़ दिया बल्कि हाशिए के देशों में क्रांति को मानवता के समाजवाद की ओर बढ़ने की प्रक्रिया का हिस्सा भी बना दिया।

हाशिए के देशों का विश्व क्रांति में एकीकरण

इस तरह उसने क्रांतिकारी प्रक्रिया को एक एकीकृत समग्रता के रूप में देखा। उसने एक एकीकृत विश्व क्रांतिकारी प्रक्रिया की संकल्पना की, जो इस श्रृंखला की सबसे कमजोर कड़ी से टूटने की शुरूआत कर, वह कड़ी चाहे कहीं भी स्थित हो, समूची व्यवस्था को ही पलट देने वाली थी। और उसने इसकी भी पुष्टि की कि इस तरह की वैश्विक क्रांति का समय आ गया है क्योंकि पूंजीवाद उस चरण पर पहुंच गया है, जहां इससे आगे वह मानव जाति को सर्वनाशी युद्धों में लपेटने जा रहा है। उसने पूरी दुनिया को ‘घेर’ लिया है और कोई ‘खाली जगहें’ नहीं छोड़ी हैं। उसने दुनिया को पूरी तरह से विभिन्न विकसित या महानगरीय ताकतों के प्रभाव क्षेत्रों में बांट लिया है, जिसकी वजह से अब तो दुनिया का पुनर्विभाजन ही हो सकता है। और इस तरह का पुनर्विभाजन, साम्राज्यवाद के आपसी युद्धों के जरिए ही हो सकता था, पहला विश्व युद्ध इसका क्लासिकल उदाहरण था।

साम्राज्यवाद के पीछे निहित सैद्धांतिक दृष्टि ने कम से कम पांच प्रमुख तरीकों से मार्क्सवाद का विस्तार किया। पहला, उसने दुनिया के ‘हाशिए के क्षेत्रों’ को यानी उन देशों को जिन्हें हीगेल ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि उनका कोई इतिहास ही नहीं था, विश्व क्रांति के दायरे में खींच लिया। वास्तव में जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया और बोल्शेविक क्रांति के पीछे-पीछे यूरोप में क्रांति की उम्मीदें कमजोर पड़ती गयीं, ये देश विश्व क्रांति के रंगमंच के केंद्र में आ गए। अपनी आखिरी रचनाओं में से एक में लेनिन ने न सिर्फ रूसी क्रांति के बाद, चीन तथा भारत से ही क्रांति की आशाएं लगायी थीं बल्कि इस तथ्य से संतोष भी हासिल किया था कि रूस, चीन और भारत मिलकर, मानव जाति का करीब आधा हिस्सा बनाते हैं और इसलिए, इन तीन देशों में क्रांतियां मिलकर, ताकतों का संतुलन निर्णायक रूप से समाजवाद के पक्ष में तब्दील कर देंगी। हैरानी की बात नहीं है कि उन्होंने जिस कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के गठन में मदद की थी, उसकी जैसी कोई चीज उससे पहले तक दुनिया ने कभी देखी ही नहीं थी। यहां भारत, चीन, मैक्सिको तथा इंडो-चाइना के प्रतिनिधिगण, फ्रांस, जर्मनी तथा अमेरिका के प्रतिनिधियों के बगलगीर होकर काम करते थे।

मार्क्सवाद के दायरे का विस्तार

दूसरे और समांतर रूप से उसने मार्क्सवाद के दायरे को बढ़ा दिया और उन्नत पूंजीवादी देशों में क्रांति के सिद्धांत से आगे बढ़ाकर, विश्व क्रांति का सिद्धांत बना दिया। बेशक, मार्क्सवाद के कहीं व्यापक दायरे की पहचान के लिए, जो पूंजी के विश्व प्रभुत्व को प्रतिबिंबित करता था, जिस पर साम्राज्यवाद ने जोर दिया था, अब भी मार्क्सवादी सिद्धंत के आधार पर, गैर-यूरपीय समाजों के इतिहास के विश्लेषण का ठोस काम किए जाने को रहता था। फिर भी, तीसरी दुनिया में मार्क्सवाद के विस्तार तथा फलने-फूलने ने इस तरह के विश्लेषणों के लिए आधार मुहैया कराया था। इन विश्लेषणों को कोमिंटर्न से प्रेरणा हासिल हुई थी, भले ही उसकी ठोस राजनीतिक समझदारी त्रुटिपूर्ण ही क्यों न रही हो। इस तरह, लेनिन की कृति, साम्राज्यवाद ने मार्क्सवाद को अभूतपूर्व जीवंतता प्रदान की थी।

बेशक, कोई लेनिन ने ही पहली बार साम्राज्यवाद की बात नहीं की थी। उनसे पहले, रोजा लक्समबर्ग ने एक उल्लेखनीय रूप से पैना तथा अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण पेश किया था, जो बताता था कि क्यों पूंजी को पूर्व-पूंजीवादी बाजारों पर अतिक्रमण करने की जरूरत होती है। फिर भी लक्समबर्ग के विश्लेषण की यह कमी थी कि उसमें इस तरह के अतिक्रमण के नतीजे में पूर्व-पूंजीवादी खंड, पूंजीवाद में विलीन होते देखा जाता है। वह तो पूंजीवादी घटक का हिस्सा बन जाता है। इसलिए, रोजा लक्समबर्ग के विश्लेषण के केंद्र में अब भी यूरपीय सर्वहारा क्रांति ही बनी हुई थी। इस विचार के खिलाफ जाने वाली इक्का-दुक्का टिप्पणियों के बावजूद, यह विश्लेषण यह नहीं देखता था कि उन्नत दुनिया का पूंजीवाद, एक स्थायी रूप से विभाजित दुनिया रच रहा था। लेकिन, लेनिन की कृति, साम्राज्यवाद इस तरह की स्थायी रूप से विभाजित दुनिया की संकल्पना करती थी और इसी में उसकी शक्ति निहित है।

पूंजीवादी की ऐतिहासिक कालबाह्यता: नयी संकल्पना

तीसरे, लेनिन के सिद्धांत ने पूंजीवाद की ‘ऐतिहासिक कालबाह्यता’ की अवधारणा की मूलगामी तरीके से नयी व्याख्या दी थी। इससे पहले तक, ए कंट्रीब्यूशन टु क्रिटीक ऑफ पालिटिकल इकॉनोमी के प्राक्कथन में मार्क्स की संक्षिप्त सी टिप्पणियों के आधार पर, यह समझदारी बनी रही थी कि कोई उत्पादन पद्धति तभी ऐतिहासिक रूप से कालबाह्य या गुजरे जमाने की और इसलिए, उखाड़ फेंके जाने के लिए परिपक्व होती है, जब उसके दायरे में उत्पादक शक्तियों के विकास की सारी संभावनाएं चूक जाती हैं। और सामान्यत: समझा जाता था कि यह संभावनाओं का चूकना, एक संकट के रूप में अभिव्यक्त होता है। वास्तव में, इस तरह के किसी संकट की गैरमौजूदगी ने ही बर्नस्टीन की मार्क्सवाद में ही संशोधन करने की मांग को प्रेरित किया था, ताकि व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के बजाए, व्यवस्था में सुधार को ही सर्वहारा के अभीष्ट के रूप में स्थापित किया जा सके। बर्नस्टीन के विपरीत, क्रांतिकारी परंपरा पर चलने वालों ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि इस तरह का अंतकारी संकट तब तक भले ही नहीं आया हो, फिर भी उसका आना अपरिहार्य था।

लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धांत ने इस मामले में पूरी तरह से नयी जमीन तोड़ी। पूंजीवाद की ऐतिहासिक कालबाह्यता, उसकी उखाड़ फेंके जाने के लिए परिपक्वता की अभिव्यक्ति, किसी आर्थिक संकट में नहीं होती है बल्कि इस तथ्य में होती है कि उसने एक ऐसे चरण में प्रवेश कर लिया है, जहां उसने मानवता को विनाशकारी युद्धों में धकेल दिया है। ये ऐसे युद्ध हैं जिनमें किसी देश के मजदूरों को, युद्ध की खाइयों के पार, किसी दूसरे देश के मजदूरों से लड़ाया जाता है। जब ऐसा हो, साम्राज्यवादी युद्ध को, गृह युद्धों में तब्दील करने का समय आ चुका होता है, अपनी बंदूकों को युद्ध में खाइयों के पार दूसरे देश के मजदूरों पर तानने से हटाकर, अपने-अपने देश के पूंजीपतियों की ओर मोड़ने का समय आ चुका होता है।

जनवादी और समाजवादी क्रांतियों का रिश्ता

चौथे, अब समाजवाद को सभी क्रांतियों का लक्ष्य होना था, ये क्रांतियां चाहे जहां भी हो रही हों। लेनिन की कृति, सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियां (टू टैक्टिक्स ऑफ सोशल डैमोक्रेसी) में पहले ही यह विचार आ चुका था कि उन देशों में जहां पूंजीवादी व्यवस्था देरी से आयी है, पूंजीपति वर्ग द्वारा उस जनवादी क्रांति को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा था, जिसके हरकारे की भूमिका ऐतिहासिक रूप से इस वर्ग ने अदा की थी। इस तरह के समाजों में जनवादी क्रांति को आगे ले जाने की जिम्मेदारी सर्वहारा के कंधों पर आ जाती है, जो किसान जनता के साथ गठबंधन करेगा और जनवादी क्रांति का नेतृत्व करने के बाद, इसी पर रुक नहीं जाएगा बल्कि समाजवाद का निर्माण करने की ओर बढ़ जाएगा। लेकिन, अब एक हाशिए वाले समाज में क्रांति के इस परिप्रेक्ष्य का सामान्यीकरण हो गया, जिसमें क्रांति शुरू में साम्राज्यवाद के खिलाफ होती है और एक व्यापक वर्गीय गठबंधन के आधार पर होती है, जिसके केंद्र में मजदूर और किसान होते हैं और यह आगे समाजवादी चरण में बढ़ जाती है। संक्षेप में समाजवाद का निर्माण करने का काम अब सिर्फ उन्नत देशों के मजदूरों की ही दिलचस्पी की चीज नहीं थी। यह तो ऐसा काम था जो सभी समाजों के एजेंडा पर आ गया था और जिसे चरणबद्ध तरीके से पूरा किया जाना था।

आखिरी चीज, एक बुनियादी सवाल उठ खड़ा हुआ था कि क्या कारण था कि यूरपीय मजदूर वर्ग के आंदोलन में ‘सुधारवाद’ इतना बढ़ गया था कि दूसरे इंटरनेशनल के इतने सारे नेताओं ने युद्ध के दौरान या तो अवसरवादी या फिर सीधे-सीधे सामाजिक कट्टरतावादी रुख अपना लिया था। और लेनिन ने इस प्रश्न का जवाब, एंगेल्स के पहले के एक इशारे के आधार पर, ऐसे श्रमिक अभिजात वर्ग या ‘‘लेबर अरिस्टोक्रेसी’’ की अवधारणा का विकास कर के दिया, जिसे सामराजी मुनाफों में से ‘घूस’ देकर खरीद लिया जाता है।

लेनिन की कृति, साम्राज्यवाद एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि थी। लेनिन ने एक बार कहा था कि मार्क्सवाद की ताकत उसके सच होने में होती है। यही बात लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धांत के बारे में भी कही जा सकती है। यह एक शानदार काम है जो करीब-करीब आंखें चौंधियाने वाली तेज रौशनी के साथ, ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के जवाब देता है, जो नये परिस्थिति संयोग में सामने आए थे और उत्तरों की मांग कर रहे थे। लेनिन के तर्क के इस या उस विवरण से कोई बहस कर सकता है, लेकिन उनके तर्क का कुल मिलाकर आवेग, करीब-करीब बड़े पैमाने पर सही था। और यह उसके सही होने का ही सूचक था कि उसने हैरतंगेज तरीके से 1914 से 1939 तक के दौर के दुनिया की घटना का पूर्वानुमान कर लिया था।

लेनिन के साम्राज्यवाद से आगे

बहरहाल, लेनिन ने साम्राज्यवाद में जो लिखा था, आज की दुनिया उससे दूर निकल आयी है। इस भिन्नता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि पूंजी का केंद्रीयकरण, लेनिन के समय में जितना था उससे बहुत आगे बढ़ गया है और उसने, उस जमाने में जिन राष्ट्रीय वित्तीय पूंजियों का बोलबाला था उसकी जगह पर, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का उदय करा दिया है। इसके चलते, साम्राज्यवाद के आपसी अंतर्विरोध कुंद हो गए हैं, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को ऐसी दुनिया नहीं चाहिए, जो विभिन्न प्रभाव क्षेत्रों में बंटी हुई हो। इसके बजाए, उसे तो अपनी बेरोक-टोक आवाजाही के लिए एक ऐसी दुनिया चाहिए, जिसमें विभाजन ही नहीं हों। इसलिए, अब साम्राज्यवाद की आपसी प्रतिद्वंद्विताओं से पैदा होने वाले युद्धों का सवाल ही नहीं उठता है।

लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि शांति का युग उतर आया है। तीसरी दुनिया में आर्थिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक (भोजन समेत) आत्मनिर्भरता की दिशा में सभी राष्ट्रीय प्रयासों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के मुसलसल हमले ने स्थानीय टकरावों की बाढ़ ला दी है, जिनमें एकजुट साम्राज्यवाद, देश-विशेष के खिलाफ खड़ा नजर आता है। इसके साथ ही, तीसरी दुनिया के मजदूर वर्ग का शोषण बहुत तेज हो गया है। यह इसके बावजूद है कि इन देशों में कॉरपोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के साथ एकीकृत हो गया है। इसके चलते, तीसरी दुनिया में असमानता में बहुत भारी बढ़ोतरी हुई है। असमानता में बढ़ोतरी इस हद तक है कि आबादी के विशाल हिस्सों को पोषण के लिहाज से घोर दरिद्रता में बढ़ोतरी का मुंह देखना पड़ा है। इसके साथ ही साथ, अपनी आर्थिक गतिविधियों को वैश्विक दक्षिण या विकासशील दुनिया की ओर पुनर्स्थापित करने की और ज्यादा इच्छा ने, विकसित दुनिया में ट्रेड यूनियनों को कमजोर किया है और इससे खुद विकसित दुनिया में भी असमानता बढ़ी है। इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के वर्चस्व का, जिसकी अभिव्यक्ति नव-उदारवादी व्यवस्था में होती है, मतलब यह हुआ है कि दुनिया के मेहनतकशों की दशा में सापेक्षत: और यहां तक कि शुद्ध रूप से भी, उल्लेखनीय गिरावट आयी है।

इसने अधि-उत्पादन या सरप्लस प्रोडक्शन का संकट पैदा कर दिया है, जिसका नव-उदारवादी वैश्विक व्यवस्था के दायरे में कोई समाधान नहीं है। और इस संकट ने दुनिया भर में फासीवाद और नव-फासीवाद का उभार पैदा किया है, जिसमें विभिन्न देशों के कॉरपोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए, फासीवादी ग्रुपों के साथ गठजोड़ किए जा रहे हैं। इस तरह, जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष, बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष और नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए संघर्ष, आज उभरकर सामने आ गया है और यह संघर्ष समाजवाद के लिए संघर्ष के साथ जुड़ गया है। लेनिन का विश्व क्रांति के परिप्रेक्ष्य का क्रांतिकारीकरण तो अब भी वैध बना हुआ है, लेकिन क्रांति का तात्कालिक फोकस समय के साथ बदल गया है।                                                 

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