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भारत में कामकाजी लोगों के जन्म-मरण की दास्तान

पूंजीवाद के अंतर्गत झगड़ा इस बात को लेकर होता रहा है कि सार्वजनिक क्या है और निजी क्या है। ऐतिहासिक रूप से, ये कामगार/श्रमिक ही हैं, जिन्होंने सार्वजनिक दायरे को संरक्षित रखने का प्रयास किया है। 
भारत में कामकाजी लोगों के जन्म-मरण की दास्तान

अखबारों में छपी रपटों के मुताबिक ऋषि गंगा में आई बाढ़ से मरने वालों की संख्या 38 हो गई है, जबकि 204 लोग लापता बताए जाते हैं। तपोवन-विष्णुगढ़ की सुरंग में फंसे अभियंताओं और कामगारों/श्रमिकों के लिए बचाव राहत अभियान जारी है। एक करिश्मा अब भी मुमकिन है, लेकिन दिन गुजरने के साथ उसमें फंसे लोगों के बचने की उम्मीद दम तोड़ती जा रही है।

यह दूसरी त्रासदपूर्ण घटना है, जिसकी कम रिपोर्टिंग की जा रही है। सहसा आई बाढ़ में मरने वाले कामगारों की असली तादाद और उनकी शिनाख्त कभी मालूम नहीं होगा। इस दुर्घटना में बाल-बाल बचे कामगारों के हवाले से अखबारों में छपी रिपोर्टों के मुताबिक कंपनी छोटे-मोटे ठेकेदारों से दो विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कर रही है, जो शायद ही मजदूरों का रिकॉर्ड रखने का काम करते हैं। 

इस परियोजना में काम करने वाले ज्यादातर देश के गरीब-गुरबा तबके और दूर-दराज क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले प्रवासी श्रमिक हैं।  इनमें से बहुतों के लिए तो उनके परिवारों को यह जानना भी मुहाल होगा कि बाहर गए उनके ये अपने इन परियोजनाओं में काम कर रहे थे। निश्चित रूप से उनके परिजनों और मित्रों को उनका उनकी जान-माल के इस नुकसान को बर्दाश्त करना पड़ेगा। हालांकि उनके परिवार और दोस्तों का दुख निजी ही रहेगा, सार्वजनिक नहीं हो पाएगा। इसलिए भी कि उनकी मौत का कोई सरकारी लेखा नहीं होगा।

मौत की दूसरी त्रासदी रोकी जा सकती थी, अगर इन कामगारों के नियोक्ताओं ने तय नियम-कायदों का पालन किया होता और मस्टररोल पर उनकी शिनाख्त और हाजिरी को सही तरीके से दर्ज की होती। इसी तरह के कुछ और कायदों की धज्जियां उड़ाई गई थीं, जब यहां श्रमिकों से दिन में 12-12 घंटे का काम लिया जाता था और मजदूरी उसी रोज की दी जाती थी, जिस दिन वे काम पर आते थे। तय समय के बाद के घंटे की मजदूरी का कोई भुगतान नहीं किया जाता था। यह भी कि 7 फरवरी को आपदा वाले दिन को रविवार था और आम तौर पर यह छुट्टी का दिन होना चाहिए था, लेकिन कुछ कारणों से श्रमिक काम पर गए थे। 

देश का श्रम कानूनों में एक हफ्ते में काम के 48 घंटी ही तय किए गए हैं, यानी रोजाना आठ घंटे, जबकि इसके बजाय उनसे 12 घंटे काम लिया जा रहा था। इन तय घंटों के अलावा एक दिन का साप्ताहिक अवकाश भी दिये जाने का नियम है। राज्य सरकारों द्वारा कामगारों को न्यूनतम मजदूरी देने की घोषणा की गई है, जिसमें जोखिम वाले काम की अलग से मजदूरी देने का प्रावधान शामिल है। सभी कामगारों को जिसमें संविदा पर या ठेके पर काम करने वाले श्रमिक भी शामिल हैं, उन सभी को राज्य कामगार बीमा योजना (एम्पलाई स्टेट इंश्योरेंस) से जोड़े जाने की जरूरत है। ताज्जुब नहीं होगा, अगर इनमें से रोजगार के कई सारे प्रावधानों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया गया होगा।

नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी)  की तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना 3,000 करोड़ मूल्य की राज्य की स्वामित्व वाली इकाई है। ऋषि गंगा परियोजना निजी क्षेत्र की कंपनी से संबद्ध है और यह 80 करोड़ रुपये की लागत वाली परियोजना हो सकती है। पूंजीवादी उद्यमों  की गणना में मजदूरों केवल खर्चे के मद में शामिल हैं। काम से जुड़े उनके अधिकारों को खर्चे में जोड़ दिया जाता है। अगर उनकी मौत निर्माण स्थल पर या कार्यस्थल पर हो जाती है, तो इसमें होने वाले कानूनी खर्चों को अतिरिक्त बोझ मान कर वहन किया जाता है। इसलिए उद्यमी ऐसे कामगार पसंद करते हैं, जिनका अपना कोई चेहरा नहीं हो, उनकी कोई पहचान नहीं हो, जिनके साथ वे केवल कम से कम संवाद रखें और उनकी क्षमता का अपने काम में भरपूर दोहन करें। एक श्रमिक की जिंदगी, और काम करते हुए उसकी संभावित मौत, पूंजीवाद के तर्क में कम मायने रखती है। 

यह जानी-मानी बात है कि बहुत सारे भारतीय आर्थिक प्रतिष्ठानों में देश के श्रम कानूनों की अवहेलना रोजमर्रे की बात हो गई है। इस पर भी यह उल्लंघन सत्ता में बैठे किसी भी व्यक्ति को भी बेचैन नहीं करता। इसे राज्य मामलों का भ्रष्टाचार बताना न केवल आलस्य करना होगा, बल्कि नैतिक रूप से पाखंड करना होगा। भ्रष्टाचार को एक निजी अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। यह समाज की ऐसी व्यवस्थागत विशेषता का संकेत देता है कि जानते सभी हैं कि इस मामले में कानून का किसी न किसी रूप में उल्लंघन हुआ है, लेकिन इसके प्रतिकार में उनके द्वारा कुछ नहीं किया जाता है। यह कम से कम समाज की नैतिक दुनिया और स्थापित कानूनों के बीच गहरी विसंगति को दर्शाता है। इसी को कोई भी दूसरे तरीके से व्याख्यायित नहीं कर सकता है क्योंकि अकूत मुनाफा कमाने की नियोक्ता की लालच के चलते ही त्रासदी घटित हुई है। हर जगह नियोक्ता सही तरीके से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। जब इंग्लैंड में 1833 में फैक्ट्री एक्ट लागू हुआ तो उसमें 9 साल से कम के बच्चे को कारखाने में नियुक्त करने को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन बच्चों की तैनाती नहीं रुकी थी। या अमेरिकी राष्ट्रपति ने वैश्विक महामारी कोविड-19 से निपटने के लिए पहले पैकेज में न्यूनतम मजदूरी की दर प्रति घंटे $15 से बढ़ाने का ऐलान किया था तो अवैध अप्रवासी मजदूरों को छोड़कर बाकी सभी मजदूरों को बढ़ी हुई दर पर भुगतान किया गया था। 

आर्थिक प्रतिष्ठानों में काम की परिस्थितियों के बारे में बनाए गए दोनों कानूनों और उनका उल्लंघन पूरे देश के सार्वजनिक क्षेत्र में होता है। इस विरोधाभासी परिदृश्य की सामाजिक जड़ें का खुलासा तभी हो सकता है, जब हम पूंजीवाद और भारत में सार्वजनिक जीवन के अजीबोगरीब संबंधों की सराहना करते हैं। सामाजिक जीवन के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में अंतर आधुनिक समाजों का एक महत्वपूर्ण सांगठनिक सिद्धांत है। भोला भाला और सरल उदारवाद, जिनमें वेबेरियन समाजशास्त्र के कुछ पाठ शामिल हैं, इस अंतर को एक अलगाव के रूप में समझने की कोशिश करता है। दोनों के बीच अंतर्संबंध जटिल है, शायद कहीं नहीं, बल्कि पूंजीवादी उत्पादन के अंतर्गत विरोधाभासी रूप में। हम देखें कि पूंजीवाद के संभवत: सबसे तीक्ष्ण पर्यवेक्षक मार्क्स, इसको कैसे देखते हैं। 

कैपिटल के खंड-एक के छठे अध्याय “श्रम शक्ति की खरीद और बिक्री” में मार्क्स कैसे उस क्षण को सहेजते हैं: जब एक मजदूरों के काम करने की क्षमता पूंजीपति द्वारा तय समय के लिए खरीदा जाता है। “श्रीमान मनीबैग्स और श्रम-शक्ति के मालिक के साथ हम थोड़ी देर के लिए इस कोलाहलपूर्ण क्षेत्र से हट जाते हैं, जहां सब कुछ सभी आदमी की नजरों के सामने सतह पर घटित होता है, और उनका पीछा उत्पादन के छिपे स्थान तक करते हैं, जिसकी दहलीज पर वे अपने चेहरे पर ‘काम के अलावा किसी को दाखिल होने की इजाजत नहीं’ का भाव लिए हमें घूरते हैं। यहां हम देखेंगे कि पूंजी कैसे उत्पादन करता है, बल्कि यह भी कि खुद पूंजी का उत्पादन कैसे होता है।”

इस ढ़ांचे में, हम उस पूंजी को पूंजी के मालिक और बाकी समाज में एक सामाजिक संबंध को सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र में “सभी के सामने” में एक “कोलाहलपूर्ण” फैलाव के रूप में देखते हैं, जहां किसी प्रवेश निषिद्ध है। परिहास में मार्क्स घोषणा करते हैं,“यह क्षेत्र जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं, जिसकी सीमा में श्रम शक्ति की खरीद और बिक्री होती है, वास्तव में वह मनुष्य के सहजात अधिकारों का स्वर्ग है। वहां अकेले स्वतंत्रता, समानता, समृद्धि और बेंथम…का शासन है।”(जेरेमी बेंथम उपयोगितावाद के  सिद्धांत के प्रवर्तक माने जाते हैं।

हालांकि, एक उदारवादी टिप्पणीकार अन्य किसी बातों से परेशान होने के अलावा, इस इडेन के साथ संतुष्ट हों जाएंगे, जबकि एक मौलिक मार्क्सवादी पूंजी और श्रम के बीच बुनियादी असमानता को रेखांकित करता है। “इस क्षेत्र को सरल गणना अथवा वस्तुओं के वितरण को छोड़कर...हम सोचते हैं कि हम नाटक के किरदार की भंगिमा में परिवर्तन ला सकते हैं। वह जो पहले पूंजी का मालिक था, अब पूंजीपति के रूप में सामने आता है; श्रम-शक्ति का स्वामी उसके मजदूर के रूप में अनुसरण करता है। एक अहमियत, बनावटी हंसी और कारोबार करने के इरादे के वातावरण के साथ है और दूसरा, डरपोक, और अपने अधिकार में रखने वाला, जैसे कोई बाजार में अपने छिपाव को ही बाजार में पेश कर रहा है और छिपाव के अलावा कुछ भी उम्मीद नहीं कर रहा है।”

यह एक असमान संबंध की प्रकृति का निर्वाह करता है कि दो पार्टियां इस पर भिन्न तरीके से प्रतिक्रियाएं देती हैं। एक पूंजीपति कामगारों पर रोब जमाता है क्योंकि उसका उन स्थितियों तथा उत्पादन के संसाधन पर नियंत्रण है। पूंजीपति चाहते हैं कि कामगारों पर उनका प्रभुत्व एक निजी मामला बना रहे। सरकारी अधिकरणों की सहायता तभी ली जाए जब उसके प्रभुत्व पर कोई चुनौती दी जाए। उसके बजाय, कामगार सार्वजनिक स्तर पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। ऐतिहासिक रूप से पहला चरण हर जगह सामूहिक संगठन का रहा है; कामगार एकजुट हो कर यूनियन बनाते रहे हैं। यह केवल संख्या जुटान के जरिये अपनी ताकत बनाने का मामला नहीं है। यूनियनों का मतलब समाज के सार्वजनिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करना है।

कामगार चाहते हैं कि जो कुछ भी पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में होता है, उसे सार्वजनिक मामला बनाया जाए। वह अपने संगठनों को सार्वजनिक ताकत बनाना चाहते हैं। हड़तालों, प्रदर्शनों, विद्रोहों, और क्रांतियां इसी ताकत के रूप हैं। कार्य-स्थितियों के नियमनों, काम के घंटे, न्यूनतम मजदूरी, बेरोजगारी भत्ते के रूप में मिलने वाले लाभ इत्यदि जो भी तय हुए हैं, वे सब इन्हीं सार्वजनिक हस्तक्षेपों के ही तो परिणामस्वरूप प्राप्त हुए हैं।

पूंजीपतियों की रणनीति होती है कि वे जो भी कर रहे हैं, वह सार्वजनिक क्षेत्र की समीक्षा के दायरे में न आए। उनकी यह प्रवृत्ति नवउदारवाद के इस दौर में भी साफ-साफ दिखाई देती है। सार्वजनिक परिसम्पत्तियों का निजी स्वामित्व में हस्तांतरण नवउदारवादी नीति का फूहड़ समर्थन है। राज्य-निर्देशित सार्वजनिक उपक्रमों में कामकाज में घातक बदलाव को सार्वजनिक समीक्षा के दायरे से दूर रखा गया है, और उनके लक्ष्यों को निजी पूंजी में रूपांतरित कर रहा है।

वित्तीय पूंजी की ताकत ऐसी ही सरकारी मौद्रिक संस्थाओं के पुनर्विन्यास पर निर्भर करती है। समाज कल्याण का निजीकरण एक अन्य मामला है। अस्पताल, स्कूल, आवश्यक वस्तुओं के वितरण की पद्धतियां इत्यादि सार्वजनिक संस्थाएं नगदी हस्तांतरणों के पक्ष में अवमूल्यित होती रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने, जिसके जैसी खुल्लम खुल्ला पूंजीवादी समर्थक सरकार देश में अब तक नहीं देखी गई, निजीकरण की इस प्रक्रिया को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया है। सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही, उद्यमों की निरीक्षण-प्रक्रिया पर पूरी तरह रोक लगा कर और उनके स्व-प्रमाणन को ही स्वीकार कर, श्रम-नियमनों से उन्हें प्रभावी तरीके से मुक्त कर दिया है।

जिस स्तर पर इन श्रम-कानूनों का नियमित तौर पर उल्लंघन किया जाता है, उसे देखते हुए चोरी करने वाले द्वारा अपनी बेगुनाही की मुनादी कर देना एक नाम मात्र की कीमत है। औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 से 300 से कम श्रमिकों वाले सभी उद्यमों के लिए एक स्थायी आदेश होने की आवश्यकता को हटा दिया है। 

एक औद्योगिक उपक्रम में स्थायी आदेश एक लिखित सार्वजनिक दस्तावेज होता है, जो वहां काम की स्थिति; उदाहरण के लिए, श्रमिकों की श्रेणियों, प्रोबेशन की उनकी अवधि, छुट्टी के नियमों, पाली, इत्यादि को निर्दिष्ट करता है।

यह उचित प्रतीत होता है कि हर उपक्रम के पास ऐसा एक स्थायी आदेश होना चाहिए ताकि एक व्यवस्था बनी रहे। इस व्यवस्था को हटा देने का मतलब है कि उपक्रमों के मालिक अपने यहां काम के हालात के बारे में पहले से बिना किसी लिखित प्रतिबद्धता के अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते हैं।

सार्वजनिक नियमन से पूंजी के मुक्त हस्तांतरण का ऐसा ही खाका किसान से संबंधित मौजूदा कानूनों में भी है। कृषि उत्पाद विपणन कमेटिज (एएमपीसीज) निर्वाचित और राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों के साथ एक सार्वजनिक संस्था है। वे अपने सार्वजनिक क्षेत्र से काम करते हैं और प्रत्येक क्रय और विक्रय का हिसाब-किताब रखते हैं। मोदी सरकार के कृषि कानून निजी इकाइयों द्वारा खरीदे जाने वाले कृषि उत्पादों के लिए ऐसे किसी भी सार्वजनिक नियमन की इजाजत नहीं देती।

किन-किन चीजों को सार्वजनिक निगहबानी के दायरे में लाया जाए और किन्हें निजी स्वामित्व के दायरे में सब की नजर से छिपा कर रखा जाए, इसके लेकर किसानों और मजदूरों समेत कामकाजी लोगों और पूंजी के बीच संघर्ष का एक दूसरा आयाम बनता है, जो खास कर मौजूदा समय में ज्यादा मौजू है। सभी पूंजीवादी देश पूंजी-समर्थक नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए  सार्वजनिक प्राधिकरण का उपयोग करते हैं। मोदी सरकार ने इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। वह न केवल अपनी नीतियों की मुखालफत करने वालों के प्रति राज्य की मशीनरियों, जैसे पुलिस और प्रवर्त्तन एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है, बल्कि उन्हें राष्ट्रविरोधी, खालिस्तानी, विदेशी हस्तक्षेप के एजेंट होने का दावा करते हुए समाज के सार्वजनिक क्षेत्रों को भी नुकसान पहुंचा रही है।

फासिज्म की सफलता शक-शुबहा, अविश्वास और हिंसा की धमकी के चलते सिकुड़ते सार्वजनिक क्षेत्र के साथ अधिनायकवादी राज्य के उपकरणों को सफलतापूर्वक मिलाकर उनके उपयोग से आती है। दूसरी तरफ, लोकतंत्र विशाल सार्वजनिक क्षेत्र में स्पंदित होता है, जिसमें हरेक कोई बिना किसी डर भय के भागीदारी कर सकता है। इस संदर्भ में अधिग्रहित पूंजी की सार्वजनिक जांच को जारी रखने, इस प्रक्रिया को और गहरी करने के लिए कामगारों एवं किसानों के संघर्ष का एक अपरिहार्य लोकतांत्रिक महत्व है। 

(लेखक नई दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाते हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Life and Death of Working People in India

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