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उद्योग मंत्रालय द्वारा डेलॉइट और BSR को प्रतिबंधित करने का खेल बॉम्बे HC ने उजागर किया

यह साफ़ है कि दोनों ऑडिट कंपनियों को प्रतिबंधित करने की उद्योग मंत्रालय की कार्रवाई कमज़ोर और खोखली थी।
डेलॉइट
Image Courtesy : New Indian Express

उद्योग मंत्रालय IL&FS भ्रष्टाचार कांड सामने आने के बाद सही कदम लेता दिखाई पड़ रहा है। जिस तेजी से मंत्रालय ने कंपनी के ऑडिटर्स, डेलॉइट हस्किंस एंड सेल्स एलएलपी और BSR & एसोसिएट्स एलएलपी को प्रबंधित किया, वो वाकई स्वागत करने योग्य, लेकिन चौंकाने वाला है।

उद्योग मंत्रालय के इतिहास को देखते हुए हमने इसे चौंकाने वाला बताया। सत्यम घोटाले के सामने आने के बाद एक विशेष CBI कोर्ट ने 2015 में  PricewaterhouseCoopers (PWC) और सत्यम कंपनी के कुछ अधिकारियों को सात साल की जेल और जुर्माने की सजा सुनाई थी। एक महीने के भीतर ही एक सेसन कोर्ट ने CBI के विशेष कोर्ट का आदेश रद्द कर दिया था। आज 5 साल बाद भी उद्योग मंत्रालय ने सत्र न्यायालय के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालयों का दरवाजा नहीं खटखटाया है।

इसलिए जिस तेजी से मंत्रालय ने डेलॉइट और BSR के खिलाफ़ कार्रवाई की, वो काफ़ी हैरानी भरा रहा। क्या वाकई चीजें बेहतर होने के लिए सुधार रही हैं? अगर कोई बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को देखें, तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। यह आदेश एक ऐसी साजिश का खुलासा करता है, जो जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए बनाई गई थी।

21 अप्रैल को अपने आदेश में कोर्ट ने सरकार द्वारा ऑडिटर्स पर लगाए प्रतिबंध को खारिज कर दिया। साथ में SFIO (एक गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय) द्वारा की गई जांच की दोयम दर्जे की प्रवृत्ति, उद्योग मंत्रालय द्वारा दिमाग ना लगाना और सजा के लिए "खोखले" आदेश को जारी किए जाने के कदम को सार्वजनिक किया। इससे ऑडिटर्स को सजा देने की उद्योग मंत्रालय की मंशा और इच्छा शक्ति का खुलासा भी होता है। उद्योग मंत्रालय द्वारा उड़ाया गया धुआं भी कोर्ट के आदेश के बाद छंटता हुआ दिखाई देता है।

उद्योग मंत्रालय का भंडाफोड़ करता कोर्ट का आदेश

198 पेज के आदेश में गहराई से उतरने पर पता चलता है कि उद्योग मंत्रालय अब भी अमीरों और ताकतवर ऑडिटर्स को बचाने की नीति पर चल रहा है। उद्योग मंत्रालय की कार्रवाई का आधार 750 पेज की रिपोर्ट है, जिसमें 30,000 पेज का अनेक्चर लगा हुआ है।

जैसी सार्वजनिक धारणा बनाई जा रही है, उसके उलट यह आदेश सिर्फ़ "कानून के सवाल" पर ही नहीं, बल्कि 90 हजार करोड़ के इस कथित घोटाले में  SFIO/MCA द्वारा एक भी फर्जी लेनदेन ना दर्शा पाने के चलते रद्द हुआ है। उच्च न्यायालय को इस बात पर भी ऐतराज़ था कि उद्योग मंत्रालय के दो अधिकारियों ने 30 घंटे से भी कम समय में इस रिपोर्ट पर काम पूरा कर लिया।

 इस तरह हाईकोर्ट  के आदेश से ऑडिटर्स के खिलाफ़, उद्योग मंत्रालय की कार्रवाई न करने की "इच्छा और मंशा" सामने आ जाती है। 198 पेज के आदेश के कुछ हिस्सों से यह समझ में भी आ जाएगा।

पहला: SFIO की 750 पेज की रिपोर्ट, जिसमें 30,000 पेज का परिशिष्ट लगा है, उसका प्रोसेसिंग नोट एक ऐसे आदमी ने तैयार किया है, जो केस से जुड़ा है नहीं था। वह भी एक दिन में। कोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा,"रेस्पोंडेंट ने इस बात के लिए अपील नहीं की है कि जिस ऑफिसर ने प्रोसेसिंग नोट बनाया है, उसका केस पर काम किए जाने का अनुभव होना चाहिए और अगर ऐसा होता तो 28.05.2019 से 29.05.2019 के बीच सिर्फ़ एक दिन में ऑफिसर नोट बना सकता । "

दूसरा: इस नोट और SFIO की 30,000 पन्नों से ज़्यादा की पूरी रिपोर्ट का परीक्षण दो अधिकारियों ने महज़ 30 घंटे से भी कम वक्त में कर दिया, जो केस से जुड़े भी नहीं थे। हाईकोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा,"इस नोट और 750 पेज की रिपोर्ट का 30 घंटों के भीतर  दो अधिकारियों ने परीक्षण कर लिया, वह भी एक के बाद एक, ऐसा कर पाना काफ़ी मुश्किल समझ में आता है। (पेज: 172)

तीसरा: 29.05.2019 को सजा देने का आदेश "बिना दिमाग लगाए" दिया गया, इसलिए यह खारिज़ होता है।
कोर्ट ने परीक्षण में कहा, "732 पेज की रिपोर्ट जिसमें 30,000 पेज का परिशिष्ट शामिल है, उसे मिलने के बाद जिस जल्दबाजी में 30 घंटो के भीतर सजा का आदेश दिया गया, ऐसा करना दिमाग ना लगाए जाने की प्रवृत्ति दिखाता है।" (पेज 175)

"इसलिए 29.05.2019 को दिया गया आदेश रद्द किया जाता है और अब यह लागू नहीं होगा। इसके आधार पर जो कार्रवाई की है, वह भी रद्द होती है।" (पेज 179)

एक सेक्शन 212 में जो निर्देश हैं उन्हें केंद्र सरकार ने हमारे सामने ही डाला। इसमें कम से कम एक ऐसा वित्तीय झोल बताया जाना था, जिसमें पूरी जांच की गई हो, जिसमें प्राथमिक तौर पर किसी अपराध के होने की सूचना मिलती हो। इसलिए 29.05.2019 को जो आदेश दिए गए उन्हें कानून में कोई मान्यता नहीं है। (पेज: 192)

चौथा: यह रिपोर्ट एक ही अधीनस्थ के आधार पर है।  इससे किसी तरह की फर्जीवाड़े या जालसाजी का पता नहीं चलता।

हाईकोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा, "यह रिपोर्ट महज़ एक IFIN पर आधारित है, समूह की दूसरी कंपनियों या तीसरे पक्ष के साथ इसके लेनदेन पर नजर नहीं डाली गई है। सम्बंधित पक्षों ने हमारा ध्यान किसी भी ऐसे लेनदेन पर नहीं केंद्रित करवाया जिसमें पूरी तरह जांच की गई हो और कुछ फर्जीवाड़े या जालसाजी का पता चलता हो। (पेज 181)

"एक रेस्पोंडेंट ने एक भी लेनदेन का पूरी जांचकर विस्तार नहीं बताया है। ना ही यह कोशिश की गई कि संबंधित लेनदेन सभी पहलुओं में पूर्ण है। यह दिखाने की भी कोई कोशिश नहीं की गई कि किसी एंट्री की जालसाजी की गई या उसमें जानबूझकर बदलाव किए गए। ना ही यह बताया गया कि अगर SFIO समूह की दूसरी कपनियों या किसी तीसरे पक्ष की जांच करता है, तो उसका इस कंपनी और कोई असर नहीं पड़ेगा।" (पेज 183)

रेस्पोंडेंट की तरफ से तो  इस बात का इशारा तक करने की कोशिश नहीं की गई कि ऐसे लेनदेन, प्राथमिक तौर पर उपलब्ध सबूतों के आधार पर सामने वाले को सजा दिलाने के लिए काफ़ी है। (पेज:183)

पांचवां:  प्रोसेसिंग नोट को ऑडिटर्स के साथ साझा नहीं किया गया। इससे उन्हें "प्राकृतिक न्याय ना मिलने" को आधार बनाने का मौका दिया गया।

हाईकोर्ट ने परीक्षण में कहा, "किसी के द्वारा बनाए गए कथित प्रोसेसिंग नोट को याचिकाकर्ता के मांगने के बावजूद उपलब्ध नहीं करवाया गया। स्थितियों को समझने के लिए इन दस्तावेजों को हमारे सामने पेश नहीं किया गया। (पेज 182)

उद्योग मंत्रालय ने लगाईं गलत धाराएं

उद्योग मंत्रालय अपने साथियों से काफ़ी अलग है। अपने पास प्रभार होने के चलते कंपनी एक्ट, 2013 बनाने के दौरान मंत्रालय काफ़ी सक्रिय था। इसलिए उन्हें अच्छे तरीके से समझता भी है। 

यह सच बात है कि डेलॉइट और BSR ko प्रतिबंधित करने में मंत्रालय ने बड़ी गलती की। मंत्रालय ने गलत तरीके से कंपनी एक्ट,2013 की धारा 140(5) लगाई। उच्च न्यायालय ने इस धारा की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी है। न्यायालय ने यह भी कहा है कि कानून "डबल जियोपार्डी" की डॉक्ट्रीन से प्रभावित नहीं होता। (पेज: 195, 126)

लेकिन उद्योग मंत्रालय को तब गहरा झटका लगा जब उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 140(5)  पेशेवर दुराचार के तहत नहीं आती। इसलिए यह प्रासंगिक नहीं है। (पेज:120)

उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 140(5) किसी सामान्य  ऑडिटर (CA) पर लागू नहीं होती। डेलोइट वित्तवर्ष 2017-18 के अंत तक नियमित बदलाव की पद्धति पर चलने लगा था। डेलोइट के साथ साझीदार BSR 19  जून, 2019 तक, जब उसने इस्तीफा नहीं दे दिया, तब तक अकेला ऑडिटर था।  उच्च न्यायालय ने इसका फायदा भी BSR को दिया है, जिसने IFIN के CA पद से बताई गई तारीख़ को ही इस्तीफा दिया था। मतलब उद्योग मंत्रालय द्वारा कार्रवाई शुरू करने के 9 दिन बाद।

एक डॉक्टर अगर किसी मरीज़ किंगालत तरीके से किडनी निकाल लेता है, तो उसे स्वास्थ्य पेशे से क्यों नहीं निकाल देना चाहिए? क्या गैर कानूनी काम सामने आने पर उसके हॉस्पिटल छोड़ देने से स्थिति में फर्क आ जाता है?

फिर किसी सीए या दूसरे पेशेवर के लिए स्थिति अलग क्यों होनी चाहिए? किसी निश्चित समय पर ली गई जिम्मेदारी के लिए जवाबदेह तय की जानी चाहिए। इस पर जांच शुरू होने के वक़्त का असर क्यों पड़े?

धारा 140 (5) के मसौदे और इसको परिभाषित करना काफ़ी विवादास्पद है। दोनों पर अलग से विमर्श किए जाने की जरूरत है। 

उद्योग मंत्रालय को उपयोग करनी थीं सुप्त पड़ी धारा 132 और 447

उच्च न्यायालय के आदेश की विरुद्ध, धारा 140(5) को लगाए जाने को लेकर, उद्योग मंत्रालय सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने वाला है। लेकिन सुनवाई में काफ़ी वक़्त लगेगा। मंत्रालय को इंतेज़ार ना करते हुए कानून में सुप्त पड़े कुछ दूसरे विकल्पों का दोषियों को सजा देने में उपयोग करना चाहिए।

खुद उच्च न्यायालय ने उद्योग मंत्रालय को रास्ता दिखाया है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे CA जिन्होंने कंपनी को धोखा दिया है और अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं, उनपर कंपनी एक्ट की धारा 132 या चार्टर्ड अकाउंटेंट एक्ट, 1949 के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए। साथ में इस कानून की धारा 447 लगानी चाहिए, जो जालसाजी से संबंधित है। (पेज:141,147)

धारा 132 और 447, कंपनी एक्ट की धारा 140(5) से ज़्यादा मजबूती से सजा देती हैं। इनमें जुर्माना भी है।  धारा 132(4)(c)  के मुताबिक़ किसी ऑडिटर या ऑडिट फर्म पर 10 साल तक का प्रतिबंध लगाया जा सकता है (धारा 140(5) में तो केवल 5 साल का प्रतिबंध है)। फर्म द्वारा जितना शुल्क लिया गया है, उससे 10 गुना ज़्यादा जुर्माने का भी प्रावधान है।

धारा 447 के बाद तहत धोखाधड़ी में 10 साल तक की जेल का प्रावधान है। वहीं धोखाधड़ी में जितनी भी रकम शामिल थी, उससे तीन गुना तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। यह संज्ञेय अपराध भी है। मतलब आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार भी किया जा सकता है।

क्या उद्योग मंत्रालय चार दिग्गजों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सकता है?

यह साफ़ है कि उद्योग मंत्रालय की डेलोइट और BSR के ख़िलाफ़ कार्रवाई काफ़ी कमजोर और खोखली थी।  2 जुलाई, 2019 को लिखे मेरे लेख में जो चिंताएं जताई गई थीं, वह सही साबित हुईं।

यह खुली बात है कि जो लोग चंदा देते हैं, उनपर कभी कीचड़ नहीं उछाला जाता। भले ही गलती कितनी भी भारी क्यों ना हो। हाल में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा भी था कि कानून  और कानूनी ढांचा अमीर और ताकतवर लोगों के पक्ष में बड़े स्तर पर झुका हुआ है।

 हाल में 63 बड़े निवेशकों और 89 विश्लेषकों के सांस्थानिक निवेश सलाहकारी सेवा के सर्वे से पता चला है कि इनमें से 57 फ़ीसदी का 4 बड़ी दिग्गज़ ऑडिट कंपनियों से विश्वास उठ गया है। इसलिए अगर इन कंपनियों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है तो निवेशक उनके परे जाने के लिए तैयार हैं। इसके बावजूद भी उद्योग मंत्रालय ने इन दिग्गज़ कंपनियों को बचाना जारी रखा है।

मंत्रालय के पास अपनी साख को मजबूत करने का बड़ा मौका है। लेकिन क्या मंत्रालय ऐसा करेगा?  अगर मंशा ऐसी ही है तो  उद्योग मंत्रालय को सत्यम मामले में सेशन कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ अपील करनी चाहिए और IL&FS मामले में धारा 132 और 447 का उपयोग करना चाहिए।

अगर मंत्रालय दोनों कदम नहीं उठाता है, तो कोर्ट के कीमती वक़्त और सार्वजनिक पैसे की बड़ी बर्बादी के लिए मंत्रालय को जवाबदेह होना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ वित्तीय पेशेवर हैं, जिन्होंने टाटा टेलीकॉम और PWC (India) में बतौर CFO काम किया है।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

MCA’s Charade of Attempting to Ban Deloitte and BSR Stands Exposed by Bombay HC

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