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एमएफ़ हुसैन: जिनकी कला हमेशा कट्टरपंथियों के निशाने पर रही

17 सितम्बर, 1915 को जन्मे मक़बूल फ़िदा हुसैन को दुनिया से रुख़सत हुए, एक दहाई से ज़्यादा होने को आया, मगर उनकी यादें अभी भी ज़ेहन में ज़िंदा हैं। चित्रकला के तो वे जैसे पर्याय ही थे। भारतीय आधुनिक चित्रकला को न सिर्फ़ उन्होंने आम अवाम तक पहुंचाया, बल्कि मुल्क की सरहदों के पार भी ले गए।
M. F. Husain
सन् 2015 में एमएफ़ हुसैन की 100वीं सालगिरह पर गूगल द्वारा बनाया गया डूडल। साभार।

हमारे मुल्क में मक़बूल फ़िदा हुसैन (एमएफ़ हुसैन) ऐसे मुसव्विर (चित्रकार) रहे हैं, जिनकी मुसव्विरी के फ़न के चर्चे तो पूरी दुनिया में हुए ही, विवादों से भी उनका गहरा नाता रहा। ख़ास तौर से हिंदू देवी-देवताओं और स्त्रियों को लेकर बनाई उनकी पेंटिग्स को ग़लत समझा गया। उनके ग़लत मायने निकाले गए। उनकी आर्ट गैलरियों पर हमले हुए और उन्हें बिला वजह अदालतों में घसीट लिया गया। एमएफ़ हुसैन की पेंटिग्स के बहाने घिनौनी सियासत की गई। अपने ही देश में उन पर कुछ इस क़दर हमले हुए कि उन्हें मजबूर होकर, देश छोड़ना पड़ा और दूसरे देश की नागरिकता लेनी पड़ी। अपने वतन से ही बहुत दूर, लंदन में इस माया-ए-नाज़ मुसव्विर ने आखि़री सांस ली।

जिन ताक़तों ने एमएफ़ हुसैन को निशाने पर लिया, वे उस वक़्त सत्ता के केन्द्र में नहीं थीं। बावजूद इसके उन्होंने तत्कालीन सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। आज वही ताक़तें केन्द्र में हैं। धर्म के नाम पर वे खुलकर घृणा का खेल, खेल रही हैं। अपने ज़रख़रीद मीडिया संस्थानों के ज़रिए पूरे देश में नफ़रत का कारोबार फैलाने से भी उन्हें कोई गुरेज़ नहीं।

नफ़रती आंधी में अक्सर लोग झूठ-सच में फ़र्क़ करना भूल जाते हैं। ऐसा ही उस वक़्त भी हुआ, लोग यह बिल्कुल भूल गए कि एक मुस्लिम परिवार में पैदा होने के बाद भी एमएफ़ हुसैन ने हिंदू धर्म और देवी-देवताओं को अलग-अलग आयामों में बेहतरीन ढंग से चित्रित किया था। रामायण सीरीज की तस्वीरें बनाने के अलावा उन्होंने हिंदू धर्म के दूसरे बड़े महाकाव्य ‘महाभारत’ से मुताल्लिक भी शानदार पेंटिंग्स बनाईं थीं।

एमएफ़ हुसैन की मुसव्विरी के फ़न पर कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठन ही अकेले ख़फ़ा नहीं थे, बल्कि उन मुस्लिम तंज़ीमों को भी ऐतराज़ था, जो इस्लाम मज़हब को एक तंगनज़र दायरे में देखते हैं। मज़हब की तिजारत करते हैं। जब हुसैन की फ़िल्म ‘मीनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीज’ आई, तो उसके एक नग़मे को लेकर इन कट्टर तंज़ीमों ने उनकी मुख़ालिफ़त की। उन पर ईश-निंदा का इल्ज़ाम लगाया। इस लिहाज़ से कहें, तो एमएफ़ हुसैन की कला हमेशा कट्टरपंथियों के निशाने पर रही। एक तरफ ये हुड़दंगी ताकतें थीं, जो हर दम उन पर हमलावर रहती थीं, तो दूसरी ओर मुल्क के फ़न, अदब और तहज़ीब से जुड़ा एक बड़ा दानिश्वर तबका भी था, जो उनकी हिमायत में मज़बूती से खड़ा रहा। उन्होंने हमेशा एफएफ़ हुसैन और उनकी बेजोड़ मुसव्विरी के फ़न की पैरवी की।

एमएफ़ हुसैन को दुनिया से रुख़सत हुए, एक दहाई से ज़्यादा होने को आया, मगर उनकी यादें अभी भी ज़ेहन में ज़िंदा हैं। चित्रकला के तो वे जैसे पर्याय ही थे। भारतीय आधुनिक चित्रकला को न सिर्फ़ उन्होंने आम अवाम तक पहुंचाया, बल्कि मुल्क की सरहदों के पार भी ले गए। वे देश के ऐसे पहले चित्रकार थे, जिनकी पेंटिंग्स दुनिया के नामी नीलामघरों में ऊंची कीमत पर बिकती थीं। बोनहाम नीलामी में एमएफ़ हुसैन का शीर्षकरहित एक तैल चित्र तक़रीबन सवा करोड़ रुपए में बिका था। जिसमें उन्होंने अपने मनपसंद सिंबल घोड़ा और लालटेन को ही बुनियाद बनाया था। यह सिंबल तो जैसे उनकी पहचान थे। घोड़ों की पेंटिंग्स देखकर, लोगों के तसव्वुर में एमएफ़ हुसैन का ही अक्स झलकता है। मुसव्विरी के उनके इस आला फ़न की एक और ख़ासियत, हमारे मुल्क की सदियों पुरानी तहज़ीब के मिथकीय किरदारों को एक जु़दा अंदाज़ में पेश करना था। उन्हें भारतीय संस्कृति की गहरी समझ थी। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की उन्होंने जो चित्रमालाएं बनाईं, वे लाजवाब हैं। यह चित्रांकन और व्याख्या उन्होंने आधुनिक मुहावरे और नज़रिए से की।

हुसैन द्वारा बनाए गए मदर टेरेसा, माधुरी दीक्षित और मराठी स्त्रियों की पेंटिग्स यदि देखें, तो मालूम चलता है कि उनके दिल में महिलाओं के लिए क्या मर्तबा और इज़्ज़त थी। इन पेंटिग्स में उन्होंने औरत की ताक़त को बड़े ही उद्दाम तरीके से चित्रित किया है। एक इंटरव्यू में जब उनसे ये सवाल पूछा गया, ‘‘आप माधुरी दीक्षित के इतने दीवाने क्यों हैं ?’’ इस सवाल का एमएफ़ हुसैन ने जो जवाब दिया, वह औरत के जानिब उनकी हक़ीक़ी सोच को दिखलाता है, ‘‘मेरी वालिदा बचपन में ही दुनिया छोड़ गईं थीं। मुझे ठीक से उनकी शक्ल भी याद नहीं। हां, कुछ तस्वीरें थीं उनकी जिन्हें देखा था। माधुरी को देखता हूं, तो सोचता हूं कि मेरी वालिदा भी इस उम्र मे इतनी ही ख़ूबसूरत रही होंगी। ज़िंदगी भर मैं मदर टेरेसा, दुर्गा, सरस्वती और दुनिया की तमाम औरतों में अपनी वालिदा को ही ढूँढता रहा।’’

बहरहाल, इसी सोच का नतीज़ा है कि ‘ज़मीन’, ‘बिटवीन स्पाइडर एंड द लैंप’, ‘मराठी वूमेन’, ‘मदर एंड चाइल्ड’, ‘श्वेतांबरी’, ‘थ्योरामा’, ‘द हार्स दैट रेड’, ‘सेकेंड एक्ट’ जैसी शानदार कला कृतियां उनके कूची से निकलीं।

एमएफ़ हुसैन के कैनवास का दायरा जितना विशाल था, उतनी ही उनमें एनर्जी थी। सत्यजित रे की फ़िल्मों से लेकर मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म के ऊपर उन्होंने अपनी पेंटिग्स बनाईं थीं। ग़ालिब, इक़बाल, फ़ैज़, रबीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र जैसे अदीबों के उन्होंने चित्र बनाए, तो अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर की शख़्सियत को भी रेखांकित किया। राज्यसभा के मेंबर रहते हुए संसद में बैठे-बैठे उन्होंने कई रेखांकन और नेताओं के कैरिकेचर बनाए। जो एक किताब ‘संसद उपनिषद’ में संकलित हैं। देश-विदेश में उन्होंने जितनी प्रदर्शनियां कीं, उतनी दुनिया के शायद ही किसी दूसरे कलाकार ने की होंगी।

महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितम्बर, 1915 को जन्मे मक़बूल फ़िदा हुसैन की मुसव्विरी की शुरुआत मुंबई में फ़िल्मों के पोस्टर बनाने से हुई। दीगर चित्रकारों की तरह वे भी पहले यथार्थवादी शैली में चित्रण किया करते थे। आरा, सूजा, रज़ा, राइबा और गाडे के साथ मुंबई के प्रोग्रसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप से जुड़े, तब उन्होंने यथार्थवादी शैली छोड़कर ‘अभिव्यंजनावाद’ अपना लिया। अभिव्यंजनावादी चित्रों की श्रंखला चल ही रही थी कि कोलकाता में यामिनी राय से मुलाकात हुई। उनके ग्रामीण और लोककला से परिपूर्ण चित्र देखे, तो ख़ुद भी ऐसे चित्र बनाने लगे। बदरीविशाल पित्ती ने उन्हें यूरोप की यात्रा पर भेजा, तो इटली में ‘रेनेसां’ पेंटिंग्स ने उन्हें ख़ास तौर पर मुतअस्सिर किया। वहां से लौटने पर उन्होंने कुछ अरसे तक ‘क्लासिकल’ शैली के चित्र बनाए।

एफएफ़ हुसैन एक हरफ़नमौला कलाकर थे। मुसव्विरी के अलावा उन्होंने कविता, आर्टिकल लिखे, फ़िल्में बनाईं। अपनी आत्मकथा ‘अपनी कहानी: हुसैन की ज़ुबानी’ लिखी। यानी जहां भी उन्हें मौक़ा मिला, अपने आप को व्याख्यायित किया। अपने फ़न के ज़रिए लोगों को तालीम दी। आधुनिक चित्रकला में ऊंचा नाम कमाने वाले इस बेमिसाल फ़नकार ने कभी दिखावे की ज़िंदगी नहीं जी। उनकी ज़िंदगी में दोहरापन नहीं था। जो उन्हें पसंद था, वही काम किया। एक बार उन्होंने जो जूते-चप्पल छोड़े, तो हमेशा नंगे पैर ही चले। कंधे तक लटकते लंबे सफेद बाल, दाढ़ी और हाथ में कूची उनकी परमानेंट पहचान थी।

समाजवादी लीडर राममनोहर लोहिया से एमएफ़ हुसैन की अच्छी दोस्ती थी। एक मर्तबा आपसी बातचीत में लोहिया ने हुसैन को राय दी, ‘‘यह जो तुम बिड़ला और टाटा के ड्राइंगरूम में लटकने वाली तस्वीरों के बीच घिरे हो, उनसे बाहर निकलो। रामायण को पेंट करो। इस देश की सदियों पुरानी कहानी है...गांव-गांव इसका गूंजता गीत है, संगीत है...गांव वालों की तरह तस्वीरों के रंग घुल-मिलकर नाचते-गाते नहीं लगते ?’’ उस वक़्त तो हुसैन ने इस बात पर अपना कोई रद्देअमल नहीं दिया। लेकिन उनके दिमाग में हमेशा यह बात घूमती रही। लोहिया के निधन के बाद, उनकी याद में उन्होंने एक अनूठा काम किया। हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ के संपादक बदरीविशाल पित्ती जो लोहिया और उनके अच्छे दोस्त थे, उनके हैदराबाद स्थित घर मोती भवन में उन्होंने रामायण सीरीज़ की तक़रीबन डेढ़ सौ तस्वीरें बनाईं। बाद में इसी तरह ‘महाभारत’ से मुताल्लिक पेंटिंग्स बनाईं। एमएफ़ हुसैन का एक और शाहकार ‘थियोरामा’ नाम से सेरीग्राफ़ बनाना था। जिसमें उन्होंने विश्व के प्रमुख धर्मों वैदिक, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, ताओवाद और आखि़र में मानववाद से जुड़ी परंपराओं और मुख़्तलिफ़ माध्यमों पर आधारित पेंटिग बनाईं। अमूमन हुसैन ने अपनी पेंटिंग्स की व्याख्या नहीं की है, लेकिन इन सभी सेरीग्राफ में हुसैन ने अपनी टीका दी है और तस्वीर के मायने साफ़ किए हैं। ज़ाहिर है इससे इन मुख़्तलिफ़ मज़हब और परंपराओं पर हुसैन का नज़रिया मालूम चलता है।

चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन उस वक़्त जबरन विवादों में घसीट लिये गये, जब उन्होंने भारत माता और एक हिन्दू देवी की तस्वीर बनाई। कट्टरपंथी हिदुत्ववादी संगठनों ने कथित अश्लील चित्र बनाने के इल्ज़ाम में उन्हें अपने निशाने पर ले लिया। उनकी आर्ट गैलरियों पर मंसूबाबंद तरीक़े से हमले हुये। मज़हबी जज़्बात को ठेस पहुंचाने के इल्ज़ाम लगाकर, मुल्क भर में हुसैन के खि़लाफ़ आपराधिक मुक़दमे दर्ज़ कर दिये गये। यह बात अलग है कि बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने इन सभी मामलों को आधारहीन बताते हुए ख़ारिज कर दिया।

अदालत ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में संस्कृति की हिफ़ाज़त के नाम पर कला को कला विरोधी नज़रिये से देखने वालों को जमकर लताड़ लगाई। बावजूद इसके नैतिकता के कथित पहरेदार यहीं नहीं रुक गये, बल्कि उन्होंने हुसैन को जान से मारने की धमकी भी दी। जिसके चलते उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आखि़री चार साल आत्मनिर्वासन में बिताए। मजबूरी में साल 2010 में उन्होंने आखि़रकार अरब कंट्री कतर की नागरिकता मंज़ूर कर ली। हुसैन परदेस चले गए, मगर अपने मुल्क के जानिब उनकी मुहब्बत बरकरार रही। अपने आखि़री इंटरव्यू में उन्होंने ज़िंदगी के बाकी बचे दिन अपने ही मुल्क में बिताने की आरज़ू जताई थी। वे हमेशा कहा करते थे कि उनका दिल भारत में रहता है और निन्यानवे फीसद हिंदोस्तानी उन्हें मुहब्बत करते हैं। वहीं अपने एक दीगर इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘‘मेरे लिए भारत का मतलब जीवन का आनंद उठाना है। आप दुनिया में कहीं भी ऐसी ख़ूबियां नहीं पा सकते। मैं सामान्य सी बात कहना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी कला लोगों से बात करे।’’

मुसव्विरी के अपने बेमिसाल फ़न के लिए मक़बूल फ़िदा हुसैन कई इनाम इकराम और अवार्डों से नवाज़े गए। मुल्क के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ सम्मान उन्हें साल 1955 में ही मिल गया था, तो बाद में ‘पद्म भूषण’ और ‘पद्म विभूषण’ से भी सम्मानित किए गए। साल 1986 में हुसैन राज्यसभा के लिए भी नामांकित किए गए। साल 1967 में एमएफ़ हुसैन ने एक मुसव्विर के नज़रिए से अपनी पहली फ़िल्म बनाई। इस फ़िल्म ने बर्लिन फ़िल्म समारोह में ‘गोल्डन बीयर अवार्ड’ जीता। यही नहीं उन्हें यह ख़ास सम्मान भी हासिल है, साल 1971 में साओ पाओलो आर्ट बाईनियल में वे महान चित्रकार पाब्लो पिकासो के साथ विशेष आमंत्रित मेहमान थे। हुसैन ने ‘गजगामिनी’ समेत कई फ़िल्मों का निर्माण व निर्देशन किया। ‘गजगामिनी’ में उन्होंने मशहूर अदाकार माधुरी दीक्षित को लिया। उनकी अनेक पेंटिंग बनाईं, जो काफ़ी चर्चित रहीं। मक़बूल फ़िदा हुसैन को एक लंबी ज़िंदगी मिली और इस ज़िंदगी का उन्होंने जी-भर के इस्तेमाल किया। नब्बे पार की उम्र में भी वे अपने मुसव्विरी के फ़न में मशगूल रहे। अपने आखि़री वक़्त में भी वे कई कृतियों पर एक साथ काम कर रहे थे। 9 जून, 2011 को एमएफ़ हुसैन ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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