ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए जीवन रेखा के रूप में काम कर सकता है ‘मनरेगा’
हमारा देश कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन 4.O में प्रवेश कर चुका है। योजना रहित और बिना तैयारी के लागू किये गए 50 दिनों के लम्बे लॉकडाउन से गुजरने के बाद देश की जनता ने यह भी चर्चा शुरू कर दी है कि हम लॉकडाउन और इसके कुप्रबंधन से बुरी तरह प्रभावित देश की आर्थिकी और इसके जो लोगो के जीवन पर जो प्रभाव पड़े है उनसे कैसे बहार निकलेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिरपचित चुनावी अंदाज में उनके लिए सुरक्षित प्राइम टाइम 8 बजे देश के सामने आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। हालाँकि उनके लम्बे भाषण में ठोस जानकारी के आलावा सबकुछ था।
प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने पांच दिन प्रतिदिन किसी छोटे धारावाहिक की तरह टेलीविजन पर प्रेस वार्ता के माध्यम से आर्थिक पैकेज की जानकारियां दीं । पूरा देश उनके चेहरे पर उनके परिश्रम और परेशानी को महसूस कर सकता है कि उनको इस पैकेज में नई चीजे गिनाने भर में कितनी मशक्कत करनी पड़ी है। इसके विपरीत उनके कनिष्ट मंत्री जी केवल उनकी बातों को हिंदी में दोहराते नज़र आए, बोली गई बातों को समझने की पेचदगी से बचते हुए। इन दोनों मंत्रियो ने घोषणाओं की एक लम्बी झड़ी सी लगा दी जिसकी जटिलता को समझना आम इंसान के लिए बेहद ही मुश्किल है।
लेकिन एक बात स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने और मांग को बढ़ाने पर जोर देने के तमाम दावों के वावजूद केवल यही चीज इन घोषणाओं से गायब है। यहां तक कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आए संकट से उभरने के बारे में कोई ठोस संकेत देने में भी आर्थिक पैकेज के लिए की गई घोषणाए विफल रही है। हमें यह जल्द समझना होगा कि तालाबंदी के कारण ग्रामीण भारत ने कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे हैं। बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूरों का अपने गावों में वापस आना इनमें से प्रमुख है। भारत में लॉकडाउन के चलते बेरोजगारी में भारी वृद्धि हुई है। भारतीय अर्थव्यवस्था की निगरानी की संस्था CMIE की प्रबंध निदेशक और सीईओ महेश व्यास के अनुसार, भारत में 14 करोड़ लोगो की नौकरी छिन चुकी है और बेरोजगारी की दर 26% तक पहुँच गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार तालाबंदी के कारण भारत में 40 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी और भुखमरी के गंभीर खतरे का सामना करना पड़ेगा।
शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रो में रोज़गार में गिरावट लगातार जारी है। फसल कटाई के महीनो में लॉकडाउन के चलते ग्रामीण श्रमिकों विशेषकर खेत मज़दूरों ने कटाई के काम के अवसर खो दिए हैं हालाँकि कृषि के काम को लॉकडाउन से बाहर रखा गया था। आने वाले महीनो में भी लोगो के पास काम की कमी होगी ऊपर से काम करने वाले लोगो की संख्या में भरी वृद्धि हुई है क्योंकि आजीविका की तलाश में शहरी क्षेत्रों और अन्य राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में गए करोड़ों प्रवासी मज़दूर तालाबंदी में काम न होने के कारण अपने मूल स्थानों पर वापस आ गए हैं। अभी तक भारत की जनता ने अमानवीयता का एक भयानक चरण देखा है, जिसमे प्रवासी मज़दूरों को भूखे रहने, शहरों में खुले आसमान के नीचे सोने, आश्रय घरों में अमानवीय स्थिति में रहने, नंगे पांव ही अपने गावों के लिए हज़ारों किलोमीटर की की यात्रा करने और घर वापसी के लिए ट्रेन टिकट खरीदने के लिए अपना बचे खुचे सामान को बेचने के लिए मज़बूर होते देखा है। शहरो से घर वापस जाने के दौरान सैकड़ों श्रमिकों की मौत हो गई है। अपने मूल स्थानों पर पहुंचने के बाद भी उनके दुखो का अंत नहीं हुआ है। अब वही यक्ष प्रश्न फिर खड़ा है जिसने इन मज़दूरों को गांव छोड़ने के लिए मज़बूर किया था- रोज़गार ? और रोज़गार के आभाव में जीवन कैसे चले।
प्रधानमंत्री जी के अनुसार अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए बाजार में मांग बढ़ानी होगी, इन स्थितियों में सवाल यह है कि ग्रामीण भारत में क्रय शक्ति को बढ़ाए बिना मांग कैसे पैदा की जाएगी। क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए चाहिए रोज़गार? इसका कोई ठोस जवाब केंद्र सरकार का आर्थिक पैकेज नहीं देता है। हालाँकि जवाब सबके सामने है, दिक्कत यह है कि सरकार इसे देखना नहीं चाहती। जो लोग चीख चीख कर इस सवाल का जवाब दे रहें है उनको सरकार सुनना नहीं चाहती। इस समस्या का एक बड़ा समाधान है ‘महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार कानून’ (मनरेगा)। मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए जीवन रेखा के रूप में काम कर सकता है लेकिन इसे संभव बनाने के लिए केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों को अपने दृष्टिकोण में पूर्ण बदलाव करना होगा। मनरेगा के प्रति मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का रवैया जगजाहिर है जिसका एक परिणाम मनरेगा के लिए बजट की लगातर कमी में देखने को मिलता है। सरकार के इसी रवैया का ही परिणाम है जो देश के अधिकांश राज्यों में मनरेगा का कार्यान्वयन दयनीय स्थिति में है।
बिना किसी नियोजन के लॉकडाउन को लागू करने के चलते सरकार से मनरेगा के काम पर भी पूर्ण प्रतिबंद लगा दिया था जिसके चलते हमने ग्रामीण मज़दूरों को कुछ राहत देने और प्रवासी मज़दूरों के वापस आने से ग्रामीण आर्थिकी पर पड़े अतिरिक्त भार को कम करने के अवसर को खो दिया। आम तौर पर वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) के इस समय में मनरेगा के तहत होने वाले पूरे काम का अधिकांश हिस्सा पूरा हो जाता है क्योंकि मज़दूरों में काम की मांग बहुत ज्यादा होती है। वर्षभर में मनरेगा के तहत होने काम का लगभग 37% अप्रैल से जून के महीनों के दौरान किया जाता है। केंद्र सरकार इस स्थिति को समझने में विफल रही जिसके चलते लॉकडाउन 1.0 अवधि के दौरान लगभग एक महीने के लिए मनरेगा के सभी कामों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में इन प्रतिबंधों को 15 अप्रैल को एक अधिसूचना के माध्यम से हटा दिया गया था जो 20 अप्रैल से प्रभाव में आई । इस छूट के वावजूद बहुत कम राज्यों में मनरेगा का काम शुरू हो पाया।
इस अनिश्चितता का परिणाम यह हुआ कि इस वर्ष अप्रैल महीने में मनरेगा के तहत काम करने वाले मज़दूरों की संख्या केवल 30 लाख है जो सरकारी आंकड़ों के अनुसार सामान्य स्थिति में अप्रैल में काम करने वाले मज़दूरों का लगभग 17% है। पिछले वर्ष इस महीने में काम करने वाले मज़दूरों का यह आंकड़ा 1.7 करोड़ था जिसमें लगभग 82% की गिरावट आई है। सरकार ने इस वर्ष अप्रैल माह में मनरेगा के तहत 262 मिलियन कार्य दिवस सृजन करने का अनुमान लगाया गया था, लेकिन कुल मिलाकर केवल 30.8 मिलियन कार्य दिवस ही सृजित हुए हैं, अप्रैल 2019 में यह आंकड़ा 202 मिलियन कार्य दिवस था। इस समय को हमने नाहक ही खो दिया क्योंकि पहले चरण में कोरोना संक्रमण मुख्यता शहरों तक ही सीमित था और हमारे ग्राम जीवन के लिए बहुत कम जोखिम था। अगर सुनियोजित तरीके से परिस्थितियों को नियंत्रित किया गया होता तो ग्रामीण भारत में मनरेगा का काम सुचारु रूप से चलाकर हम इस आर्थिक संकट को कम कर सकते थे।
यहाँ तक कि शहर से वापस लौटने वाले मज़दूरों को भी इसमें शामिल कर सकते थे। ऐसे समय जब लॉकडाउन के कारण सरकार पर्याप्त काम देने में विफल रही तो इस गंभीर स्थिति में मज़दूरों में मुआवजा या बेरोजगारी भत्ता देने की मांग ने जोर पकड़ा है परन्तु सरकार ने ऐसा कोई भी मुआवजा या बेरोजगारी भत्ता किसी भी मज़दूर को नहीं दिया है। वैसे भी सामान्य समय में भी मज़दूरों को कोई बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया जाता है। वर्ष 2019-20 में पूरे देश में केवल 12000 रुपयों का बेरोजगारी भत्ते के रूप में भुगतान किया गया था। यह सब तब हो रहा है जब सरकार निजी क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को लॉकडाउन में काम के बिना मज़दूरी देने की अपील कर रही थी। यह कतई संभव नहीं और कल्पना से परे है कि निजी क्षेत्र उन सुझावों को लागू करे जिन्हें खुद सरकार लागू नहीं कर रही है।
इसलिए मनरेगा को लागू करने के लिए सरकार की तरफ से गंभीर प्रयासों की जरूरत है जो कि एक मांग पर आधारित काम देने का कानून है परन्तु जिसको कम बजट के चलते एक आपूर्ति उन्मुख योजना तक सीमित कर दिया है। अगर हम ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने और लोगो को आजीविका उपलब्ध करवाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए रति भर भी गंभीर है तो सरकार को अपना रवैया बदलना होगा।
वास्तव में वित्त मंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी इसी तरह का दावा किया कि प्रवासी मज़दूरों को मनरेगा के माध्यम से सहायता प्रधान की जाएगी। परन्तु यह पूरी सच्चाई नहीं है क्योंकि मनरेगा की दिहाड़ी में 20 रुपये की मामूली बढ़ोतरी (जिसकी घोषणा पहले ही की जा चुकी है) के अलावा, वर्तमान स्थिति की मांग के अनुसार मनरेगा के लिए 40000 करोड़ का एलन किया है जो कि एक मज़ाक से कम नहीं है । अभी तक इस कानून के तहत न्यूनतम 100 दिनों के काम की गारंटी है जिसे कभी भी लागू नहीं किया जाता लेकिन इन विशेष स्थितियों में कम से कम 200 दिनों के काम का प्रावधान होना चाहिए जिसमें 300 रुपये दिहाड़ी या राज्यों की न्यूनतम दिहाड़ी की दर जो भी अधिक है दी जानी चाहिए।
खेत मज़दूर और ग्रामीण श्रमिकों के संगठन पिछले तीन महीनों से इस मांग को उठा रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार ने इसकी तरफ रत्ती भर ध्यान नहीं दिया। केवल इतना कह भर देना कि सरकार मनरेगा के माध्यम से प्रवासी श्रमिकों की मदद करेगी किसी समस्या का हल नहीं है वो भी तब जब गांव में पहले से मौजूद मज़दूरों को काम नहीं मिल पा रहा है। यह बात दोहराने की जरूरत है कि इस घोषणा के साथ साथ मनरेगा के तहत काम की बढ़ती मांग के अनुसार बजट का भी प्रावधान करना चाहिए । वर्ष 2020-21 के बजट में मनरेगा के लिए कुल आवंटित राशि 61500 करोड़ रुपये है जो वर्ष 2019-20 में मनरेगा पर खर्च की तुलना में 9500 करोड़ रुपये कम है। पैकेज में घोषित 40000 करोड़ रुपये तो सामान्य स्थिति में मनरेगा को लागू करने के लिए फण्ड की दरकार को भी पूरा नहीं करना है । केंद्र सरकार इस सवाल से बच रही है कि बिना बजट के काम की अतिरिक्त मांग कैसे पूरी होगी।
असल में बजट की कमी ही मनरेगा के कार्यान्वयन को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। केंद्र सरकार द्वारा अनियमित और अपर्याप्त धनराशि जारी करने और राज्य सरकारों की खराब वित्तीय स्थिति के कारण असमर्थता ने मनरेगा के कार्यान्वयन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए इस वित्तीय वर्ष के आरंभ में अप्रैल, 2020 में उपलब्ध राशि एक महीने के लिए भी इस योजना के तहत काम करने के लिए अपर्याप्त थी। वित्तीय बाधाएं होने के बावजूद काम के आवेदक की संख्या के साथ-साथ नए जॉब कार्ड के लिए आवेदन में वृद्धि दर्ज की गई है। लॉकडाउन के बाद से 31 मार्च के बाद जॉब कार्ड के लिए आवेदनों की संख्या में 7.1 लाख की वृद्धि हुई है। आवेदनों में सबसे अधिक वृद्धि उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में देखी गई है। इन सभी राज्यों में भी प्रवासियों की एक बड़ी संख्या वापस लौटी है। यह वर्तमान संकट के दौरान मनरेगा के महत्व को दर्शाता है।
इसलिए ग्रामीण भारत में आर्थिक संकट से निकलने के लिए मनरेगा के उपयोग की तरफ पहला कदम है इस अत्याधिक प्रचारित आर्थिक पैकेज में मनरेगा के लिए पर्याप्त बजट का प्रबंध करना। इस बजट का आवंटन करते समय रिवर्स माइग्रेशन के कारण ग्रामीण भारत में श्रमिकों की बढ़ती संख्या, कार्य दिवसों में जरुरी वृद्धि और बढ़ी हुई मज़दूरी को भी ध्यान में रखना चाहिए। इसके बाद आता है मनरेगा अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू करने की चुनौती। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था विभिन्न माध्यमों, जैसे नए जॉब कार्ड जारी नहीं करने, मांग के बाद भी काम शुरू न करना, काम में देरी के लिए कम भुगतान और मज़दूरी का बिलकुल भी भुगतान आदि, से मनरेगा के तहत काम करने के लिए मज़दूरों को हतोत्साहित करती आई है। इसने एक प्रतिकूल वातावरण पैदा कर दिया है जो देश के कई हिस्सों में विशेषकर बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में श्रमिकों को निराश कर देता है।
उपरोक्त हालत को मनरेगा पोर्टल पर उपलब्ध सूचनाओं से भी समझा जा सकता है। 15 मई को उपलब्ध मनरेगा पोर्टल के अनुसार देश में कुल 1435.73 लाख लोगों ने जॉब कार्ड के लिए आवेदन किया है जिनमें से 1374.39 लाख लोगों ने जॉब कार्ड जारी किया है, इसका मतलब है कि 61.35 लाख पंजीकृत परिवार हैं, जिनके लिए जॉब कार्ड जारी नहीं किए गए हैं। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से केवल 766.75 जॉब कार्ड ही सक्रिय हैं जिनमें 1166 लाख सक्रिय मज़दूर हैं। एक सक्रिय जॉब कार्ड का मतलब है कि परिवार के किसी एक व्यक्ति ने चालू वित्त वर्ष या गुजरे तीन वर्षों में किसी एक दिन के लिए भी काम किया हो। यह ज्यादा ज्यादा अच्छी स्थिति नहीं है, इसे बदलना होगा और मज़दूरों को मनरेगा के काम में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए।
यहाँ गरीबी उन्मूलन, वंचित वर्गों और महिलाओं की भागीदारी जैसी मनरेगा की अभी तक रही उपलब्धियों को रेखांकित करने की जरूरत नहीं है। इनमे से बहुत कुछ सरकारी एजेंसियों ने खुद स्वीकार किया है। पिछले अनुभव के आधार पर हमें उस भूमिका को समझना होगा जो मनरेगा रोज़गार के अवसर प्रदान करने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में निभा सकती है। यह एकमात्र वास्तविक तरीका है जो ग्रामीण जनता की जेब में धन हस्तांतरित करेगा। विभिन्न अर्थशास्त्री भी आम लोगों को सीधे पैसा देने के पक्ष में सुझाव दे रहे हैं। सरकार को कोरोना महामारी के बाद के आर्थिक संकटों से बाहर आने के लिए मनरेगा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना चाहिए।
(लेखक विक्रम सिंह अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले आप स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के महासचिव रह चुके हैं।)
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