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एमएसपी भविष्य की अराजकता के ख़िलाफ़ बीमा है : अर्थशास्त्री सुखपाल सिंह

न्यूनतम समर्थन मूल्य और इसके आसपास के विवाद के बारे में आपके सभी संभावित प्रश्नों के जवाब।
kisan andolan

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्मीद थी कि तीन नए कृषि क़ानूनों को रद्द करने के उनके वादे से विरोध करने वाले किसान तुरंत अपने तंबू उखाड़ेंगे और दिल्ली छोड़ देंगे जो गलत साबित हुआ है। इसके बजाय किसान यूनियनों ने घोषणा की है कि जब तक केंद्र सरकार सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मुहैया कराने के लिए कानूनी या वैधानिक गारंटी नहीं देती है, तब तक वे अपना एक साल पुराना आंदोलन बंद नहीं करेंगे। इस मुद्दे पर अर्थशास्त्री बड़ी कटुता के साथ विभाजित हैं - कुछ कहते हैं कि यह अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देगा, जबकि अन्य न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसानों को तबाही और मौत से बचाने के उपाय के रूप में मानते हैं। कृषि में न्यूनतम समर्थन मूल्य की क्या भूमिका है? किसानों के लिए इसकी कानूनी गारंटी देना क्यों जरूरी है?

इन सवालों के जवाब के लिए न्यूज़क्लिक ने प्रोफेसर सुखपाल सिंह से बात की। न्यूनतम समर्थन मूल्य की बारीकियों को समझाने के लिए इससे बेहतर व्यक्ति कोई नहीं हो सकता है। प्रो सिंह पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में मुख्य अर्थशास्त्री (कृषि विपणन) हैं। उन्होंने क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है, और न्यूनतम समर्थन मूल्य, ग्रामीण संकट और कृषि सुधार पर अकादमिक पेपर और समाचार पत्र के लिए लेख भी लिखे हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख और "मूल फसलों की खेती की लागत" के मानद निदेशक रहे हैं, एक योजना जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा अनुबंधित किया गया था। 

आइए न्यूनतम समर्थन मूल्य के इतिहास से शुरू करें: इसे कब और क्यों पेश किया गया था?

आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने भारत की खाद्य नीति को निर्धारित किया था, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह नीति 1943 के बंगाल अकाल से निकली थी, जिस अकाल में दस लाख से अधिक लोग मारे गए थे। यह अकाल मोटे तौर पर खाद्यान्न की अपर्याप्त आपूर्ति का परिणाम था, और इस स्थिति ने ब्रिटिश भारत सरकार को जॉर्ज थियोडोर की अध्यक्षता में खाद्यान्न नीति समिति बनाना के लिए मजबूर कर दिया था, जिसने उस वक़्त खाद्यान्नों की राशनिंग पर जोर दिया था।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि अंग्रेजों ने भी सोचा होगा कि भोजन की कमी अशांति और अराजकता पैदा कर सकती है। उनका दावा है कि हरित क्रांति का एक प्रोटोटाइप भी तभी तैयार हुआ था, जिसे हमने 1960 के दशक में फलीभूत होते देखा था। 

आज़ादी के बाद के भारत में क्या हुआ था?

नीति निर्माताओं ने हरित क्रांति के लिए आधार बनाने के बारे में सोचा था। 1964 में, खाद्य मूल्य निर्धारण नीति विकसित करने के लिए पहले आयोग का गठन किया गया था – जिसका नाम एलके झा समिति था। इसने कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की सिफारिश की, जो मौजूदा कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) के नाम से जाना जाता है। कृषि मूल्य आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद मूल्य की अवधारणा पेश की।

एमएसपी और ख़रीद मूल्य के बीच क्या अंतर है?

एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जो किसान को खाद्यान्न उत्पादन के लिए चुकाना होता है।  यह कीमत लागत को कवर करने और किसान को लाभ का एक निश्चित प्रतिशत देने वाली होती है। 

हालांकि, बाजार में खाद्यान्न को एक विशेष कीमत या खरीद मूल्य पर बेचा जाएगा। यदि खरीद के मूल्य पर खाद्यान्न खरीदने वाला कोई खरीदार नहीं मिलता है तो सरकार गारंटी देती है कि वह न्यूनतम मूल्य या एमएसपी पर किसान की उपज खरीदेगी। लोग भूल गए हैं कि कृषि मूल्य आयोग दो कीमतों की घोषणा करता है, यानि एमएसपी, और खरीद मूल्य। 1970 के दशक के मध्य के बाद, सरकार ने खरीद मूल्या की घोषणा करना बंद कर दी, यही कारण है कि आज इसकी कोई याद ताज़ा नहीं है।

सरकार ने ख़रीद मूल्य की घोषणा क्यों बंद कर दी?

चूंकि सरकार एमएसपी पर भी खाद्यान्न नहीं खरीद रही थी, इसलिए खरीद मूल्य की घोषणा करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। एमएसपी प्रणाली के पीछे का विचार किसानों को उनकी फसलों के लिए लाभकारी मूल्य प्रदान करना और उन्हें उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर बेचना था। झा समिति ने केंद्र सरकार से भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना करने के लिए कहा था, जिसे 1965 में अमल में लाया गया था। भारतीय खाद्य निगम (FCI) को खाद्यान्न की खरीद और एक बफर स्टॉक रखना था। ऐसा भोजन की कमी को दूर करने के लिए किया गया था। इसी तरह, खाद्यान्नों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से बेचा जाना था। यह एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली थी। राशन कार्ड वाला कोई भी व्यक्ति राशन की दुकानों से खाद्यान्न खरीद सकता है, जिसे उचित दर की दुकानों के रूप में भी जाना जाता है। ये दुकानें खाद्यान्न को प्रचलित बाजार दर से कम कीमत पर बेचती हैं। 

वर्तमान में, इस योजना से एक तिहाई आबादी को बाहर कर दिया गया है और सार्वभौमिक पीडीएस लक्षित पीडीएस बन गया है। दरअसल, सरकार चरणबद्ध तरीके से पीडीएस सिस्टम को खत्म करने की कोशिश कर रही है.

एमएसपी को लागू करने में क्या समस्याएं थीं?

इसे लागू करने में एक बड़ी समस्या यह रही है कि सरकार एमएसपी पर कुल कृषि उपज का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही खरीदती है। लेकिन भौगोलिक विविधताएं भी मौजूद हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से, सरकार लगभग सभी खाद्यान्न यानी गेहूं और धान की खरीद एमएसपी पर करती है।

2014 में, सरकार ने शांता कुमार समिति का गठन किया था, जिसमें कहा गया था कि चूंकि कुल कृषि उपज का केवल 6 प्रतिशत एमएसपी पर खरीदा जा रहा है, तो सरकार इस मात्रा की खरीद भी बंद कर सकती है। शांता कुमार समिति ने एक भ्रांति पैदा की कि केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी से लाभ होता है। यह गलत है। किसानों का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा उठाए गए कुल कृषि उपज का 6 प्रतिशत उत्पादन करता है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रत्येक किसान के साथ-साथ अन्य राज्यों के किसान बड़ी संख्या में एमएसपी प्रणाली के लाभार्थी हैं।

चूंकि एमएसपी पर बड़े पैमाने पर केवल गेहूं और चावल की ख़रीद की जा रही है, क्या इससे फसल की विविधिता पर असर पड़ा है?

हां। उदाहरण के लिए, गेहूं और धान जोखिम भरी फसलें नहीं हैं, जैसे कि कपास है। [कपास कीटों के लिए अतिसंवेदनशील है।] गेहूं और धान दोनों का उत्पादन और विपणन सुनिश्चित है। ये दो कारक हैं जो किसानों को गेहूं और धान की तुलना में या उससे भी अधिक लाभदायक फसलों की ओर बढ़ने से रोकते हैं। मोनोकल्चर खेती ने जल स्तर को कम कर दिया है, मिट्टी की उर्वरता को कम कर दिया है और वह प्रदूषण का कारण बन गई है, मुख्यतः क्योंकि खेतों में गेहूं और धान की पराली जलाने की वजह से ऐसा है।

क्या यह सही है कि एमएसपी की गणना करने का तरीक़ा भी एक मुद्दा है?

इस पर जिसने ध्यान आकर्षित किया उसे एमएस स्वामीनाथन रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। मैं यहा बताना जरूरी समझता हूं कि स्वामीनाथन ने राष्ट्रीय किसान आयोग का नेतृत्व किया था, जिसने 2006 में अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जब लोग एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट का हवाला देते हैं, तो यह धारणा बनाई जाती है कि यह एक व्यक्ति की रिपोर्ट है। नहीं, यह भारत सरकार की खुद की रिपोर्ट है, और इसकी खुद की सिफारिशें हैं।

एमएसपी की गणना के उद्देश्य से, लागत की छह अवधारणाएं हैं – जिन्हे ए1, ए2; बी1, बी2; सी1, सी2- के फोर्मूले से बनाया गया है। यह थोड़ा मजाकिया है। उदाहरण के लिए, ए1, किसान की नकद उत्पादन की लागत है। ए2 में ए1 प्लस शामिल है जिसमें लीज पर ली गई भूमि का भुगतान किया गया किराया शामिल है। बी1 ए1 प्लस है जिसमें स्वामित्व वाली पूंजीगत संपत्ति (भूमि को छोड़कर) के मूल्य पर ब्याज शामिल है। बी2 बी1 प्लस है जिसमें भूमि का किराया मूल्य और लीज पर भूमि के लिए भुगतान किया गया किराया शामिल है। सी2 B2 प्लस पारिवारिक श्रम का मूल्य है। सी2 एक फसल के लिए उत्पादन की कुल लागत का प्रतिनिधित्व करता है।

आपको यह सब मज़ाक़ क्यों लगता है?

केवल कृषि क्षेत्र में ही ऐसा है कि जहां उत्पादन की वास्तविक लागत का पता लगाने के लिए आपके पास विभिन्न प्रकार की लागतें होती हैं। अर्थव्यवस्था के किसी अन्य क्षेत्र में आपको लागत ए1 से लेकर लागत सी2 तक की सीमा नहीं मिलेगी। लागत की गणना का केवल एक ही तरीका है- सी2- या कुल लागत। इसका मतलब है कि स्वामीनाथन समिति ने कहा कि एमएसपी सी2, या कुल लागत, और इसका 50 प्रतिशत होना चाहिए।

लेकिन फिर, 2014 में, रमेश चंद समिति की स्थापना हुई। इस समिति ने कहा कि एमएसपी की गणना करते समय उत्पादन के कुछ कारकों को कम करके आंका गया था। समिति चाहती थी कि किसान परिवार के मुखिया को एक मैनुअल मजदूर की तुलना में एक कुशल श्रमिक के रूप में माना जाए; पूरे फसल मौसम की गणना करने वाली कार्यशील पूंजी पर ब्याज इसके आधे से अधिक है; सरकार द्वारा तय की गई उच्चतम दर की तुलना में प्रचलित बाजार दर के रूप में लिया जाने वाला भूमि लगान - बाद वाला लगभग हमेशा पूर्व की तुलना में कम होता है; और कटाई के बाद के कार्यों जैसे सफाई, ग्रेडिंग, पैकेजिंग और परिवहन लागत को भी इसमें शामिल करना चाहिए।

रमेश चंद समिति ने सुझाव दिया कि यह सी2 की गणना का नया तरीका होना चाहिए। समिति के अनुसार एमएसपी सी2 प्लस 10 प्रतिशत होना चाहिए। यह 10 प्रतिशत  किसान द्वारा उठाए जाने वाले जोखिमों की भरपाई करने और अपने प्रबंधकीय कौशल के लिए भुगतान करने के लिए था।

दोनों में से कौन सी विधि अधिक एमएसपी प्रदान करती है?

स्वामीनाथन की एमएसपी चांद से ज्यादा है।

एमएसपी की गणना के लिए सरकार द्वारा दो तरीकों में से कौन सा तरीका अपनाया जा रहा  है?

कोई सा भी नहीं। सरकार एमएसपी की गणना ए2 प्लस पारिवारिक श्रम की लागत के आधार पर कर रही है। दूसरे शब्दों में, सरकार खुद की समितियों या आयोगों और उनकी सिफारिशों की उपेक्षा कर रही है। इससे पता चलता है कि सरकार कृषि क्षेत्र के साथ किस तरह का दुर्व्यवहार कर रही है।

एमएसपी सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही बड़ा मुद्दा क्यों है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के बड़े हिस्से में एमएसपी मौजूद नहीं है। कई राज्यों में लोगों को एमएसपी के बारे में पता भी नहीं है क्योंकि किसानों के पास बिक्री योग्य अधिशेष नहीं है। भारत में 86 प्रतिशत किसान दो हेक्टेयर से कम भूमि पर काम करते हैं। एक तरफ जहां 86 फीसदी किसान दो हेक्टेयर से कम जमीन पर काम करते हैं। दूसरी ओर, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एमएसपी पर सुनिश्चित सार्वजनिक खरीद प्रचलित है, जहां यह न्यूनतम समर्थन भी तीन कृषि कानूनों के साथ समाप्त किया जा रहा है। 

इसके अलावा, एमएसपी एक ऐतिहासिक कारण से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बड़ा मुद्दा है। जब हरित क्रांति मॉडल को मूर्त रूप दिया गया था, तो इसे केवल पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, बिहार के कुछ हिस्सों और पश्चिम बंगाल के क्षेत्र में लागू किया जा सका था। ऐसा इसलिए था क्योंकि हरित क्रांति का फोकस गेहूं और चावल पर था। यह वह  क्षेत्र था जहां पूंजी निवेश किया जा सकता था, हरित क्रांति प्रौद्योगिकी के लिए, इसमें संकर बीजों के आधार पर, उर्वरक और कीटनाशक के उदार आवेदन, प्रचुर मात्रा में पानी की उपलब्धता की जरूरत होती है। इस क्षेत्र के किसानों को मूल्य प्रोत्साहन के रूप में एमएसपी की शुरुआत की गई थी। उदाहरण के लिए, चावल कभी भी पंजाब की पारंपरिक फसल नहीं थी। एमएसपी की वजह से पंजाब के किसानों ने धान की फसल की ओर रुख किया था। 

एमएसपी की समस्या कब विकराल हुई?

1991 के बाद के नव-उदारवाद ने विकासशील देशों के लिए कई समस्याएं पैदा की हैं। बाली [इंडोनेशिया में] 2013 में विश्व व्यापार संगठन के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन ने कहा कि फसलों के लिए सरकारी समर्थन वापस लिया जाना चाहिए। समर्थन की वापसी 2017 तक पूरी होनी थी। निस्संदेह सरकार हर साल एमएसपी में वृद्धि करती रही, लेकिन वृद्धि की दर धीमी होने लगी। इसी समय, कृषि इनपुट लागत में वृद्धि जारी रही। इसके अलावा, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और ऊर्जा के निरंतर निजीकरण ने किसान परिवार के आर्थिक बोझ को बढ़ा दिया है।

क्या इन सब से किसानों की आमदनी घटी?

इतना ही नहीं उन पर भारी कर्ज भी हो गया। 2000 के बाद से, दो किसान और एक खेतिहर मजदूर, जैसा कि मेरे सर्वेक्षण से पता चलता है, पंजाब में हर दिन आत्महत्या करते हैं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रतिदिन 28 किसान अपना जीवन समाप्त करते हैं। किसान भी खेती को एक व्यवसाय के रूप में छोड़ते जा रहे हैं।

इसके ऊपर, शांता कुमार समिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को खाद्यान्नों की खरीद बंद कर देनी चाहिए, और भारतीय खाद्य निगम की जरूरत ही नहीं है। इसलिए, तीन कानूनों के ने इस आशंका को बढ़ा दिया कि कृषि का निजीकरण किया जाएगा, और कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) मंडियां, जहां एमएसपी संचालित होती है, को खत्म कर दिया जाएगा।

इन सबका नतीजा यह हुआ कि किसानों को लगा कि एमएसपी सिस्टम धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। चूंकि एमएसपी से अधिकतम लाभ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को मिला, इसलिए इन तीनों इलाके के किसानों का सामाजिक अशांति से हिलना स्वाभाविक ही था। मुझे यह बताना चाहिए कि देश में केवल एक तिहाई भूमि पर सुनिश्चित सिंचित खेती है। यह ठीक वही क्षेत्र है जो कॉरपोरेट्स के लालच का कारण है। यही वजह है की तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन ने देश भर में एमएसपी के महत्व के बारे में जागरूकता फैला दी है।

किसान अब मांग कर रहे हैं कि सरकार सभी फसलों के लिए एमएसपी प्रदान करने के लिए कानूनी या वैधानिक गारंटी दे। इसका तात्पर्य क्या है?

सरकार हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है। इनमें सात अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ), पांच दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), सात तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, रेपसीड-सरसों, तिल, सूरजमुखी, नाइजरसीड और कुसुम) शामिल हैं। और चार व्यावसायिक फसलें (गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट।) भी इसमें शामिल है। 

सरकार इन सभी फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह प्रत्येक फसल की पूरी उपज खरीदती है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में, प्रत्येक फसल की कुछ उपज सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदी जाती है। वह लक्षित खरीद कहलाती है।

लक्षित ख़रीद का क्या अर्थ है?

उदाहरण के लिए, सरकार घोषणा कर सकती है कि उसे 25 टन फसल की जरूरत है। फिर अरकार बाजार में प्रवेश करती है और लक्ष्य तक पहुंचने के बाद खरीदारी बंद कर देती है। हालांकि, इससे भी किसानों को मदद मिलती है, क्योंकि इससे उन्हें कीमत को "खोजने" करने में मदद मिलती है।

खोज से आपका क्या मतलब है?

अनिवार्य रूप से, जब कोई किसान बाजार में प्रवेश करता है तो उसे नहीं पता होता है कि उसे अपनी उपज किस कीमत पर बेचनी चाहिए। हालांकि, जब सरकार बाजार में प्रवेश करती है, तो यह किसानों के लिए एक बेंचमार्क बन जाती है। मान लें कि गेहूं के लिए एमएसपी 2,000 रुपए है। यहां तक कि जिन राज्यों में गेहूं की खरीद नहीं हो रही है, वहां भी एमएसपी 2,000 रुपए की कीमत निर्धारित करने में मदद करती है। व्यापारी, उन्हें भुगतान करते वक़्त ज्यादा से ज्यादा 100 या 200 रुपए कम देंगे। यही कारण है कि मीडिया का दावा है कि एमएसपी से बड़ी संख्या में किसानों को मदद नहीं मिलती है, जोकि गलत है। इस "कीमत की खोज" और "मूल्य प्राप्ति" तंत्र के माध्यम से उनमें से बड़ी संख्या में अप्रत्यक्ष रूप से खरीद में मदद होती है।

यदि किसानों की एमएसपी को कानूनी गारंटी देने की मांग को स्वीकार कर लिया जाता है, तो क्या इसका मतलब यह होगा कि सरकार को उसके लिए लाई गई सभी उपज उस न्यूनतम कीमत पर खरीदनी होगी?

हां, इसका मतलब तो यही है। लेकिन निजी व्यापारियों को भी खाद्यान्न खरीदने की अनुमति होगी।

अगर कानूनी गारंटी दी जाती है, तो क्या इसका मतलब यह होगा कि व्यापारियों को तय  एमएसपी पर फसल खरीदनी होगी?

हां, व्यापारी तब एमएसपी से नीचे खरीदारी नहीं कर सकते हैं।

किसानों का कहना है कि सभी फसलों पर एमएसपी होना चाहिए। "सब" का क्या अर्थ है?

यहां दो अवधारणाएं हैं। प्रारंभ में, मेरे द्वारा ऊपर सूचीबद्ध 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करने की मांग की गई थी। चूंकि दिल्ली में आंदोलन में शामिल होने के लिए भारत के सभी हिस्सों से किसान प्रतिनिधि आए थे, इसलिए मांग उठी कि सभी फसलों के लिए एमएसपी प्रदान की जानी चाहिए। 23 के अलावा, हमारे पास बागवानी उत्पाद-सब्जियां और फल- और मांस, मछली, अंडे और डेयरी उत्पाद जैसे पशुधन उत्पाद हैं।

सब्जियों और फलों के साथ-साथ पशुधन उत्पाद अत्यधिक खराब होने वाले उत्पाद हैं। हमारे पास इनके लिए पर्याप्त भंडारण की क्षमता नहीं है। हालाँकि, केरल सरकार ने हाल ही में सब्जियों के लिए सी2 प्लस 20 प्रतिशत की एमएसपी की घोषणा की है। हालांकि इसके प्रभाव का अध्ययन नहीं किया गया है, फिर भी इसकी घोषणा से पता चलता है कि सब्जियों के लिए एमएसपी प्रदान की जा सकती है।

वर्तमान में, भारत में खाद्यान्न की भंडारण क्षमता 88 मिलियन टन है। इसके अलावा, 13 मिलियन टन खुले में जमा किया जाता है, जिसमें तिरपाल से उन्हें ढकते हैं। राष्ट्रीय किसान आयोग ने 2006 में सिफारिश की थी कि हर पांच किलोमीटर के दायरे में एक एपीएमसी मंडी होनी चाहिए। इसका मतलब है कि भारत में 42,000 एपीएमसी मंडियां होनी चाहिए थीं।

भारत में वर्तमान में कितनी मंडियां हैं?

जो होना चाहिए था उससे सिर्फ 7,000, या छह गुना कम। जाहिर है इसके लिए सरकार दोषी है।

खैर, इसके लिए भारी निवेश की आवश्यकता है। सरकार का कहना है कि उसके पास पैसे नहीं हैं।

युद्धों के बीच [1962 में चीन के खिलाफ और 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ], हमने हरित क्रांति की शुरूआत के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण किया था। 1960 के दशक में कृषि विश्वविद्यालयों की बढ़ती संख्या भी देखी गई। यह इस बारे में है कि भारतीय राष्ट्र अपनी प्राथमिकताओं को कैसे तय करता है। आज निजी क्षेत्र की सहायता पर अनुचित जोर दिया जा रहा है, जिसे हमारी सभी बीमारियों का रामबाण मान लिया जाता है। लेकिन क्या कॉरपोरेट अपने फंड को परियोजनाओं में निवेश करते हैं? वे ज्यादातर बैंकों से उधार लेते हैं, जिनके पास लोगों का पैसा है। अगर अंबानी और अदानी जैसे कुछ निजी खिलाड़ी कृषि में निवेश कर सकते हैं, तो सरकार क्यों नहीं कर सकती है?

सार्वजनिक निवेश को केवल व्यय के रूप में नहीं देखा जा सकता है। यह रोजगार पैदा करता है, आय बढ़ाता है और अर्थव्यवस्था को चलाता है। हमारा उद्योग इतना यंत्रीकृत है कि ग्रामीण भारत से उखड़े हुए लोगों को अवशोषित नहीं कर सकता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि अधिक से अधिक लोग कृषि से विस्थापित न हों। इसलिए एमएसपी कोई सरकारी तौफा नहीं है। किसानों को तबाही और बदहाली से बचाने के लिए यह न्यूनतम है। यह भविष्य की अराजकता के खिलाफ एक बीमा है।

एमएसपी की मांग के केंद्र में यह बहस है कि क्या हुकूमत या कॉरपोरेट को अर्थव्यवस्था का चालक बनना चाहिए?

हां, ऐसा अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को स्वीकार करने और लोगों, विशेषकर गरीबों के प्रति उनकी जिम्मेदारी को समझने के बारे में है।

मुख्यधारा का मीडिया एमएसपी का इतना विरोध क्यों कर रहा है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि कॉरपोरेट मीडिया वैश्विक पूंजीपतियों के हाथ में है, जो भारत के कृषि क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं।

(एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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