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मध्य प्रदेश: खंडवा में जैविक खेती वाले गांव का उत्थान और पतन

खंडवा जिले के मालगांव में भयंकर सूखे के पड़ने के बाद खेती के लिए जैविक पद्धतियां अपनाई गई थीं, लेकिन जलवायु परिवर्तन और कीटों के हमलों के कारण चीजें काफी तेजी से खराब हो गईं, जिससे खेती करना मुश्किल हो गया है। 
Farmer
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार: फ़्लिकर

मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के मालगांव में कीटनाशकों की तेज, बर्दाश्त न होने वाली गंध और गाय के गोबर की मिट्टी की गंध के कारण सांस लेना भी दूभर हो गया है। 447 घरों और 2,488 निवासियों वाले इस गांव में एक भी खेत पूरी तरह से जैविक खेती का नहीं है, लेकिन 20 साल पहले ऐसा नहीं था।

उस समय, दीपक पटेल (37) का परिवार अपने खुद के संसाधनों का इस्तेमाल करके अपने खेत में तीन नाडेप संरचनाओं मतलब खाद बनाने के लिए बनाए गए गड्ढे का निर्माण करके और अपने घर के परिसर में तीन अन्य संरचनाओं का निर्माण करके जैविक पद्धतियों को अपनाने वाले पहले लोगों में से एक था। परिवार खाद बनाने के लिए साल भर इन मिट्टी के ढांचों में जैविक कचरा डालते रहे।

दीपक ने 101रिपोर्टर्स को बताया कि, “हमारी खेती केवल चार वर्षों तक पूरी तरह से जैविक रही। जलवायु परिवर्तन और बढ़ते कीटों के हमलों के कारण, हमें कीटनाशकों का इस्तेमाल करने पर मजबूर होना पड़ा।” यह स्वीकार करते हुए कहा कि जैविक खेती सबसे अच्छा विकल्प है, बशर्ते किसानों को उनकी उपज के लिए बेहतर कीमत मिले। वह रसायन आधारित खेती से दूर जाना चाहते हैं, इसलिए उनके खेत में इस्तेमाल होने वाले कुल कीटनाशकों में से 40 फीसदी अब जैविक हैं। 

तेमीकला स्थित जगन्नाथ कनाडे (75) पिछले 60 वर्षों से किसान हैं। उनका कहना है कि अगले दिन के मौसम की भविष्यवाणी करना भी इन दिनों एक कठिन काम है। “कभी-कभी गर्मी जैसा महसूस होता है, फिर अचानक बारिश हो जाती है या कोहरा छा जाता है। इन सबके कारण फसलों में कीटों का हमला बढ़ गया है। इन्हें नियंत्रित रखने के लिए हमारे पास कीटनाशकों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

कनाडे के मुताबिक, किसान अब अपनी फसलों पर पहले की तुलना में तीन गुना ज्यादा पैसा खर्च करते हैं क्योंकि रसायन आधारित खेती बहुत महंगी है। दरअसल, बीज की तुलना में उर्वरकों और कीटनाशकों पर अधिक पैसा खर्च किया जा रहा है, जिससे अंततः मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है।

यहां तक कि मौसम पूर्वानुमान ऐप भी उनकी सहायता नहीं करता है। दुर्गाराम पटेल (35) का कहना है कि किसानों को ऐप पर मौसम की जानकारी मिल जाती थी, लेकिन एक समस्या थी। “ऐप साफ़ मौसम दिखाएगा, लेकिन बाहर बारिश हो रही होगी। उन्होंने पूछा कि, आप मुझे बताएं कि ऐसी स्थिति में हम कैसे कुछ भी तय कर सकते हैं।''

दुर्गाराम के खेतों से पहले 20 बोरी गेहूं निकलता था। लेकिन पिछले पांच साल में उन्हें सिर्फ पांच से सात बोरी ही मिल रही है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, "अगर यही स्थिति रही तो किसानों को अपनी आजीविका कमाने के लिए अन्य साधन खोजने होंगे।"

किसान इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि कीटनाशकों के लगातार इस्तेमाल से भविष्य में उनकी जमीन बंजर हो जाएगी, लेकिन उनका कहना है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। “जैविक खेती छोड़कर हमने अपना ही नुकसान किया है। अब जैविक तरीकों की ओर वापस जाना कठिन है। किसान कुछ जैविक तैर तरीकों को शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं, जैसे 20 फीसदी जैविक आदानों का इस्तेमाल करना। टेमीकला के किसान कमलेश पटेल (36) कहते हैं, ''पूर्ण बदलाव आसान नहीं है, लेकिन हमारी जमीन को बचाने के लिए इसकी आवश्यकता होगी।''

मालगांव के किसान हुकुमचंद पटेल (57) 101रिपोर्टर्स को बताते हैं कि गांव में 2000 से 2005 तक केवल जैविक खेती होती थी। “दूर-दूर से लोग जैविक खेती के बारे में जानने के लिए यहां आते थे। मैंने उस दौरान जैविक खेती भी की और अच्छे परिणाम मिले। बाद में उत्पादन घट गया और मौसम ने साथ नहीं दिया। चूंकि गांव ऊंचाई पर है, इसलिए पानी की कमी थी। हमने इस कमी को कीटनाशकों से पूरा किया। कुछ ही समय में स्थिति बदल गई और पूरे गांव में रसायन आधारित खेती बढ़ गई।” 

जिला पंचायत के तत्कालीन मुख्य कार्यपालन अधिकारी राजेश गुप्ता ने मालगांव को जैविक ग्राम और तोरानी को जल ग्राम के रूप में विकसित करने में विशेष रुचि ली थी। स्वर्गीय हुकुमचंद पटेल गांव में जैविक खेती शुरू करने वाले पहले किसान थे। उन्होंने अन्य ग्रामीणों को भी इसके दीर्घकालिक लाभों के बारे में बताया और उन्हें भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया था। पटेल ने अपने खेतों और घर से निकलने वाले कचरे को गाय के गोबर से लपेटकर जैविक खाद बनाने में इस्तेमाल करना शुरू किया था।

2002 में, जब मालगांव पूरी तरह से जैविक गांव था, तब जल संरक्षण के लिए काम शुरू किए गए थे। समतल भूमि से बहने वाले वर्षा जल और पोषक तत्वों को गांव के खेतों के आसपास 7,000 पानी के गड्ढों में संग्रहित किया जाता था। जब ये गड्ढे भर जाते थे तो अतिरिक्त पानी गांव के कुओं की ओर मोड़ दिया जाता था। सिंचाई के दौरान जल दक्षता सुनिश्चित करने के लिए ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर विधियों को अपनाया गया था।

पहले, ऊंचाई और पथरीली ज़मीन के कारण अच्छी बारिश भी इस जगह को पानी की कमी से नहीं बचा पाती थी। उस समय 505 हेक्टेयर भूमि पर खेती होती थी। वहां 275 सिंचाई वाले कुएं थे, लेकिन केवल 20 में ही पर्याप्त पानी था। 1998 और 2000 के बीच पड़े भीषण सूखे ने किसानों को अपनी कृषि पद्धतियों को बदलने की आवश्यकता के बारे में जागरूक किया। उन्होंने मिट्टी की नमी बनाए रखने में ह्यूमस और खाद की विशेष भूमिका को समझा, जिससे उन्होंने जैविक खेती की ओर रुख किया।

गांव के बड़े किसानों ने अपने घरों में बायोगैस प्लांट लगाए और पड़ोसियों व रिश्तेदारों को कनेक्शन दिए। 2002 में गांव में पांच बड़े और 12 छोटे बायोगैस संयंत्र बनाए गए थे। 2012 में, गांव के लोगों ने रियायती दरों पर 218 अन्य बायोगैस संयंत्र बनाए गए। गांव में मवेशियों की संख्या में कमी को देखते हुए घरेलू शौचालयों को भी प्लांट से जोड़ा गया।

गोबर बायोगैस से लगभग 10 टन, नाडेप से 8.9 टन और वर्मीकम्पोस्ट से 10.12 टन जैविक खाद प्राप्त की जा सकती है। नाडेप संरचनाओं में खाद सुनिश्चित करने के लिए, पंचायत की मदद से गांव में 25 संग्रह केंद्र स्थापित किए गए। इन्हीं प्रयासों के चलते मालगांव को 2009 में निर्मल ग्राम पुरस्कार मिला था।

हालांकि, पशुपालन में और कमी आने और लोगों द्वारा कृषि के लिए रासायनिक उर्वरकों की ओर लौटने से बायोगैस संरचनाएं धूमिल हो गई हैं। बायोगैस प्लांट गोबर और कूड़े के नीचे दबे पड़े हैं, जबकि नाडेप का एक भी ढांचा यहां नजर नहीं आता है। अब किसान खुले में गोबर इकट्ठा करते हैं और उसे खाद में बदलते हैं। आज गांव में केवल दो बायोगैस संयंत्र चालू हैं।

एक अनुमान के मुताबिक, मालगांव में सालाना 806 क्विंटल यूरिया, 407 क्विंटल सुपर फॉस्फेट, 125 क्विंटल पोटाश और 446 क्विंटल डायमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) का इस्तेमाल किया जाता है। कैटरपिलर और अन्य कीड़ों को मारने के लिए कीटनाशकों का भी इस्तेमाल  किया जाता है।

भगवंतराव मंडलोई कृषि महाविद्यालय, खंडवा के मौसम विज्ञानी डॉ. सौरभ गुप्ता, 101रिपोर्टर्स को बताया की, “सावधानी का समय बीत चुका है, अब हमें जो बचा है उसे बचाना शुरू कर देना चाहिए। खंडवा के खेतों में अधिक मात्रा में कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है। यह अंधाधुंध इस्तेमाल मौसम को खराब करने के लिए एक हथियार के रूप में काम करता है।”  

इसी कॉलेज के कीटविज्ञानी डॉ. सतीश परसाई चेतावनी देते हैं कि कीट इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि उन्हें कीटनाशकों से भी मारना मुश्किल है। इसलिए, पारंपरिक तरीके अधिक उपयुक्त हैं।

"अगर किसान अब भी सतर्क नहीं हुए और पुराने तरीकों पर नहीं लौटे तो कृषि का भविष्य और भी चुनौतीपूर्ण होगा।" 

मालगांव सेवा सहकारी समिति किसानों को सरकार द्वारा अनुमोदित यूरिया, डीएपी और पोटाश वितरित करती है। खेतों और मिट्टी की बिगड़ती सेहत को देखते हुए सरकार ने नैनो फर्टिलाइजर बाजार में उतारा है। सोसायटी अधिकांश किसानों को यह भी उपलब्ध कराती है।

“गांव में 500 हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई होती है। समिति में 105 किसान पंजीकृत हैं, जो उन्हें 320 बैग यूरिया, 400 बैग डीएपी, 150 बैग फॉस्फेट और 70 बैग पोटाश वितरित करती है। सहकारी समिति के क्लर्क कृष्णकांत सोहनी कहते हैं, ''गांव के बाकी किसानों को बाजार से चार गुना अधिक कीमत पर उर्वरक खरीदना पड़ता है।'' 

मोहम्मद आसिफ सिद्दीकी मध्य प्रदेश स्थित स्वतंत्र पत्रकार और 101रिपोर्टर्स के सदस्य हैं, जो जमीनी स्तर के पत्रकारों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।
 

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