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मध्य प्रदेश में सोयाबीन की खेती छोड़ रहे किसान; महाराष्ट्र, तेलंगाना व कर्नाटक बढ़ रहे आगे

41 वर्षों के इतिहास में सोयाबीन की खेती को लेकर मध्य प्रदेश सबसे ख़राब दौर से गुजर रहा है। कम समय में भारी बारिश और लंबे समय तक बारिश नहीं होना प्रमुख वजह है।
Soybean

मप्र सोयाबीन की खेती में अग्रणी राज्य रहा है लेकिन अब यहां के किसान निराश हो गये हैं। ये सोयाबीन की खेती छोड़ रहे हैं, नए किसान इस फसल को अपनाना नहीं चाहते।

ऐसा क्यों और कब से हो रहा है? तो इसका जवाब है कि "कम समय में अधिक बारिश हो जाती है। बीते खरीफ सीजन में भी ऐसा ही हुआ है। जिसकी वजह से खेतों में पानी भर गया था। पहले जड़ें सड़ी और फिर पत्तियां पिली पड़ गई थी। खेतों में खड़ा था तो केवल सोयाबीन का डंठल (तना)। बोया बीज नहीं हुआ। मवेशियों को खिलाने योग्य भी नहीं बचा। बखरनी में अलग रुपये लगते हैं। लगातार घाटे में जा रहे थे इसलिए धान की खेती अपना ली। फायदा नहीं हुआ तो नुकसान तो होता ही नहीं है। यदि मौसम ने साथ दे दिया तो न्यूनतम 20 क्विंटल प्रति एकड़ से लेकर 25 क्विंटल तक धान पक जाती है। इतने में गुजारा हो जाता है। हां, पहले की तुलना में धान पर भी लागत बढ़ गई है लेकिन अब कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है।"

ऐसा किसान रूपसिंह राजपूत कहते हैं। वह नर्मदापुरम की डोलरिया तहसील के रोहना गांव में रहते हैं। पांच एकड़ जमीन के किसान है, चार एकड़ में धान और बाकी में जैविक फसल-सब्जी व अनाज पैदा करते हैं। 10 वर्ष पहले तक सोयाबीन की फसल लगाते थे।

जी, हां, यह हाल उस मप्र का है, जिसके बूते भारत दुनिया में सोयाबीन उत्पादन करने वाले देशों की सूची में पांचवे पायदान पर है।

एक तरफ भारत में सोयाबीन की खेती का रकबा व उत्पादन दोनों बढ़ रहा है। खरीफ के बीते सीजन की बात करें तो 119.982 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बोवनी हुई थी और 118.888 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था। औसतन उत्पादकता प्रति हेक्टेयर 991 किलोग्राम रही थी।

मध्य प्रदेश में अलग स्थिति है। यहां सोयाबीन की खेती को लेकर ठहराव की स्थिति पैदा हो गई हैै। उत्पादन और उत्पादकता दोनों घटी है।

कृषि एवं सहकारिता विभाग और कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि 1980-81 में मध्य प्रदेश 454.8 हजार हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती करता था, तब उत्पादन मिलता था 350.0 हजार मीट्रिक टन। उस समय उत्पादकता थी प्रति हेक्टेयर 769.6 किलोग्राम। यह शुरूआती दौर था।

मप्र तब से लेकर सोयाबीन की खेती में लगातार कीर्तिमान गढ़ता गया। 2012-13 में तो रकबा 6031.7 हजार हेक्टेयर, उत्पादन 7800.1 हजार मीट्रिक टन और उत्पादकता 1293 प्रति किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पहुंच गई थी।

इसके बाद 2020-21 में रकबा तो बढ़कर 6674.0 हजार हेक्टेयर पहुंचा लेकिन उत्पादन 3370.0 व उत्पादकता 1000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही रह गई। मप्र कृषि विभाग की रिर्पाेट में तो उत्पादकता 500 से 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक आ गई है।

यानी, मप्र में सोयाबीन की खेती के 41 वर्ष के इतिहास में शुरू के 32 वर्ष तो मप्र ने पीछे मुड़कर देखा ही नहीं। बचे हाल के 9 वर्षों में यह राज्य लड़खड़ा सा गया है। कभी रकबा घटता है तो कभी उत्पादन घटता है। ठहराव की स्थिति है लेकिन उत्पादकता साफ-साफ गिरती हुई नजर आ रही है। जबकि महाराष्ट्र, तेलंगाना व कर्नाटक जैसे राज्यों में यह खेती जोर पकड़ रही है।

आखिरकार मप्र के किसान सोयाबीन की खेती क्यों छोड़ रहें? इस सवाल पर और आगे बात करने पर विदिशा जिले के किसान संदीप देवलिया 28 वर्ष से सोयाबीन की खेती करने का अपना अनुभव बताते हुए मायूस हो जाते हैं। कहते हैं, तब एक हेक्टेयर में न्यूनतम 20 से 25 क्विंटल उत्पादन होता था। अब 10 से 15 क्विंटल भी नहीं होता। बीते वर्ष तो 3 से 4 क्विंटल ही हुआ था।

कहते हैं 10 वर्ष पूर्व 5 से 7 हजार रुपये हेक्टेयर खर्च आता था। अब 15 से 25 हजार आ रहा है। पहले दाम प्रति क्विंटल 2500 से 3500 रुपये मिलते थे। अब 5500 से 7000 रुपये मिलते हैं। पहले 2500 से लेकर 4000 रुपये में अच्छा बीज मिल जाता था, अब 11 हजार रुपये तक चुकाने पड़ते हैं।

संदीप के पास 11 हेक्टेयर जमीन हैं, वह कहते हैं इसमें से 90 प्रतिशत जमीन में सोयाबीन की खेती लेते थे लेकिन कम समय में अधिक बारिश ने कहीं का नहीं छोड़ा। बीते वर्षों में कुछ मौके तो ऐसे भी आए कि बगैर कटाई किए ही खेत बखरना पड़ा। अब वह धान पर शिफ्ट हो रहे हैं।

वैसे तो पूरा मालवा क्षेत्र सोयाबीन की खेती के लिए जाना जाता है। इसी का हिस्सा है सिवनी मालवा तहसील। यहां 90 प्रतिशत किसान सोयाबीन की फसल ही लेते आ रहे हैं। घाटा हो रहा है, तब भी ले रहे हैं।

इसकी वजह पूछने पर चापड़ाग्रहण के किसान सुरजबली जाट कहते हैं, पहले तो सोयाबीन ठीक-ठाक पक जाती थी। बीते तीन वर्ष से तो हुई ही नहीं है। खेत बखरने पड़े हैं। वे असामान्य मौसम को जिम्मेदार बताने के साथ-साथ प्राकृतिक प्रकोप को भी दोष देते हैं। कहते हैं वर्ष 2021 में 10 एकड़ में बोवनी की थी, कुछ नहीं पका। वर्ष 2022 में 35 एकड़ में बोवनी की थी, फिर वही हाल हुआ। पता है कि मौसम साथ नहीं दे रहा है, तब भी यही फसल ले रहे हैं, क्योंकि धान के लिए समतल जमीन चाहिए, जो हमारे क्षेत्र में कम है। जमीन भी भारीपन नहीं है, इसलिए मजबूरी बनी हुई है। उड़द व मूंग भी लेकर देख चुके हैं लेकिन नुकसान ही हुआ है।

प्रतिकूल मौसस जिम्मेदार

सोयाबीन की खेती से निराश होने वाले कारणों की वैज्ञानिक खोज की ओर बढ़ते हैं और जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि महाविद्यालय में पौध प्रजनन एवम् अनुवांशिकी विभाग के प्रोफेसर डॉ. मनोज श्रीवास्तव से समझते हैं तो उनका कहना हैं कि बीते कुछ वर्षों से मप्र में मौसम का व्यवहार ठीक नहीं है। खासकर सोयाबीन उत्पादन करने वाले नर्मदापुरम, विदिशा, सीहोर, खरगोन, खंडवा, इंदौर, धार,मंदसौर, रतलाम, उज्जैन, हरदा, बैतूल में कभी लंबे समय तक सूखा पड़ जाता है तो कभी कम समय में अत्यधिक बारिश हो जाती है। बीते 6 वर्षों से देखने में आ रहा है कि मालवा क्षेत्र में वर्षा के असामान्य वितरण ने अनेकों समस्याओं को जन्म दिया है।

इन सबसे अलग वे और कारणों से भी पर्दा उठाते हैं। कहते हैं, किसान मटर व आलू लेने के चक्कर में जल्दी बोवनी कर देते हैं, जिससे विषाणु रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है तथा समय पर बारिश नहीं होती तब भी फसल खराब हो जाती है। जब बारिश शुरू होती है तो दोबारा बोवनी का समय ही नहीं देती और खेत खाली रह जाते हैं या फिर धान लगानी पड़ती है। मप्र के पास सोयाबीन की खेती करने से जुड़ी लगभग सभी तकनीक है, परंतु बारिश के डर से किसान इनका उपयोग नहीं कर पाता या फिर उसे जानकारी ही नहीं है। वे परंपरागत खेती से आगे नहीं निकल पा रहे हैं। पहले जैसा मौसम नहीं रह गया है, इसलिए सोयाबीन की खेती करने वालों को अपडेट रहने की जरूरत है, जो कि ज्यादातर किसान नहीं कर पा रहे हैं। वह किसानों में जन जागरूकता की जरूरत महसूस करते हैं, आज भी अनेक उन्नतशील कृषक भाई उन्नत कृषि तकनीक को अपनाकर पर्याप्त उत्पादन ले रहे हैं। मौसम में सामान्य से अधिक बदलावों पर ध्यान देने की जरूरत लगती है। पहले एक दौर था जब रिमझिम बारिश होती थी, बीच-बीच में खुल जाती थी। इससे कीट एवं बीमारियों का फैलाव बहुत कम होता था। अब ऐसा नहीं रह गया है। इसकी तह तक जाने की जरूरत है। अतः कृषक भाई उन्नत तकनीक का पालन कर तथा उन्नतशील किस्मों का प्रयोग कर विपुल उत्पादन ले सकते हैं।

पीला मोजेक जैसी बीमारियों ने कम किया मनोबल

किसान कल्याण एवं कृषि विभाग में लंबे समय तक सेवा देने के बाद खेती की चिंता करने वाले ग्वालियर के रिटायर्ड एसडीओ आरएन निकरवार कहते हैं, मप्र में पहले जैसी बात नहीं रही। सोयाबीन की खेती में लागत बढ़ रही है, उतने दाम मिल नहीं रहे हैं। जोखिम बहुत बढ़ गया है। शाम को फसल अच्छी दिखती है और सुबह तक इल्लियों का प्रकोप बढ़ जाता है। कीटनाशकों के छिड़काव में जरा सी देरी करने पर खेत के खेत साफ हो जाते हैं। ऐसा किसानों के साथ हो चुका है। सबसे अधिक पीला मोजेक नामक बीमारी ने किसानों का मनोबल कम किया है। विकल्प के रूप में धान, उड़द, मूंग आ गई है।

लगातार एक ही फसल लेना और बीज की वरायटी नहीं बदलना भी है वजह

मप्र सोयाबीन की खेती में लगभग आधी सेंचुरी पूरी कर रहा है। बीते वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि इतने वर्षों के बाद अभी भी मध्य प्रदेश में खरीफ की मुख्य फसल सोयाबीन ही है। यानी अधिकतर किसान एक ही फसल मुख्य रूप से ले रहे हैं। खेती किसानी की पद्धति कहती है कि 2 से 4 साल में फसलें बदलते रहना चाहिए। लगातार एक ही फसल लेना उत्पादकता को प्रभावित करता है। यह तथ्य विभिन्न शोध में सामने भी आ चुकी है। यही मध्य प्रदेश के ज्यादातर किसान करते आ रहे हैं। कुछ तो ऐसे भी है जो बीज की वरायटी ही नहीं बदलते या फिर इन्हें अच्छी गुणवत्ता का बीज नहीं मिल पाता। इसमें जागरूकता की कमी भी मुख्य रूप से सामने आती रही है।

तो क्यों मप्र को पीछे छोड़ रहे हैं महाराष्ट्र, कर्नाटक व तेलंगाना

सोयाबीन का उत्पादन करने वाले 8 प्रमुख राज्य मप्र, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना व अन्य हैं। सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन सभी राज्यों में वर्ष 2007 में 88.496 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की बोवनी हुई थी और 96.421 लाख मीट्रिक टन उत्पादन रहा था। तब प्रति हेक्टेयर औसतन 1090 किलोग्राम उत्पादकता थी। इस वर्ष मप्र ने सभी राज्यों से अधिक 48.792 लाख हेक्टेयर में बोवनी की थी, 51.009 लाख मीट्रिक टन उत्पादन रहा था। तब उत्पादकता 1045 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी। इस वर्ष आंध्रप्रदेश ने प्रति हेक्टेयर 1275 किलोग्राम उत्पादकता लेकर चौका दिया था।

वर्ष 2021 में इन सभी 8 राज्यों व अन्य को मिलाकर 119.892 लाख हेक्टेयर में बोवनी हुई थी। 118.888 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 991 किलोग्राम थी। इन सभी राज्यों में सोयाबीन का रकबा और उत्पादकता दोनों बढ़ी है लेकिन मप्र में उत्पादकता गिरती जा रही है। रकबे में भी ठहराव जैसी स्थिति बनी हुई है। यहां उत्पादकता 929 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रह गई है।

अब सवाल उठता है कि क्या सोयाबीन के उत्पादन में मप्र को महाराष्ट्र, कर्नाटक व तेलंगाना जैसे राज्य पीछे छोड़ देंगे तो इसका सटीक जवाब नहीं है लेकिन हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि महाराष्ट्र ने सोयाबीन की फसल को लेकर सबक लिया है। तेलंगाना, कर्नाटक दो नए राज्य सोयाबीन पैदा करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र को लेकर चर्चा है कि यहां उत्पादकता 1100 से 1200 प्रति किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर वापस आ गई है। जिसकी वजह किसानों में जागरूकता, सोयाबीन के बीजों में नए-नए प्रयोग व उनकी उपलब्धता मुख्य है। यहां रकबे में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। यही हाल तेलंगाना व कर्नाटक का है।

यदि मप्र में सोयाबीन की खेती की और नहीं लौटे तो क्या होगा!

सोयाबीन प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत है। खासकर मप्र के सोयाबीन में तो अधिक प्रोटीन ही मिलता है। खाद्य तेलों की आपूर्ति में इसका बड़ा योगदान है। अब घरेलू उपयोग के उत्पादों में भी यह काम आ रहा है, जैसे सोयाबीन की बड़ी आदि कई उत्पाद इससे होने लगे हैं।

ऐसे में स्वभाविक है कि मप्र में सोयाबीन का उत्पादन गिरता है तो आम नागरिकों को महंगा खाद्य तेल खरीदना पड़ेगा। हालांकि वैसे ही खाद्य तेलों पर महंगाई की मार है। पुरानी कीमतों में 15 से 20 प्रतिशत तक का उछाल है। जनहित के मुद्दों पर काम करने वाले राजकुमार सिन्हा कहते हैं कि आम नागरिक पहले ही महंगा तेल खरीद रहे हैं। जब उत्पादन गिरेगा तो स्वभाविक है तेल आदि वस्तुओं पर महंगाई की मार बढ़ जाएगी।

नोटः ये आंकड़े आर्थिकी एवं सांख्यिकी निदेशालय, कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार से प्राप्त है। जिसमें रकबा हजार हेक्टेयर में है। उत्पादन हजार मीट्रिक टन में है और उत्पादकता प्रति किलोग्राम प्रति हेक्टेयर में है।

मप्र समेत प्रमुख राज्यों में सोयाबीन की उत्पादकता की स्थिति

नोटः ये आंकड़े सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक है। उत्पादकता प्रति किलोग्राम प्रति हेक्टेयर में है।

प्रमुख राज्यों में सोयाबीन का रकबा

नोटः ये आंकड़े सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक है जो कि लाख प्रति हेक्टेयर में है।

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