लॉकडाउन के बावजूद मध्य प्रदेश में गेहूंं की दुगुनी खरीद की गुत्थी सुलझ चुकी है
इस साल कुछ दिनों पहले सनसनीखेज खबर यह सुनने को मिली कि मध्य प्रदेश ने इस साल पंजाब की तुलना में कहीं अधिक गेहूंं की खरीद का कीर्तिमान बनाया है, जबकि पंजाब लम्बे अर्से से भारत में गेहूंं के मुख्य प्रदाता के तौर अभी तक मशहूर रहा है। निस्संदेह मध्य प्रदेश के लिए यह किसी अभूतपूर्व कामयाबी से कम नहीं, जो आज से एक दशक पूर्व तक अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए केंद्र से गेहूंं के आवन्टन पर निर्भर रहने के लिए जाना जाता था। इस कहानी का एक स्वाभाविक विस्तार यह भी है कि देशभर में गेहूंं की कुल खरीद भी इस साल 389 लाख टन के रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुँच चुकी है, जोकि पिछले साल की तुलना में 48 लाख टन (तकरीबन 14%) अधिक है।
यह खुशखबरी और भी अधिक उत्साहवर्धक इस मायने में साबित हुई क्योंकि इस साल गेहूंं की कटाई, प्रसंस्करण और बिक्री का काम देशव्यापी लॉकडाउन के बीच में जाकर सम्पन्न हुआ था। हालाँकि खेतीबाड़ी से सम्बन्धित कार्यों के लिए मोदी सरकार की ओर से छूट मिली हुई थी, लेकिन आवागमन पर तमाम तरह के प्रतिबन्ध लागू थे और मई में जाकर ही इनमें कुछ ढील दी गई थी।
लेकिन जैसा कि देखने में आ रहा है कि यहाँ चक्के के अंदर चक्के मौजूद हैं। केंद्र सरकार द्वारा मप्र सरकार को कुछ छूट अलग से भी दी गई थी, जिसके पीछे राज्य में खरीद को प्रोत्साहन देने का एक लम्बा इतिहास शामिल है।
राज्यवार गेहूंं की खरीद
लेकिन सबसे पहले राज्यवार खरीद के आंकड़ों पर नजर डालते हैं, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दर्शाया गया है, जिसे कि हर महीने खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग द्वारा प्रकाशित फ़ूड ग्रेन बुलेटिन से लिया गया है। इसमें 30 जून 2020 तक सभी राज्यों से गेहूंं की अंतिम खरीद के आँकड़े दिए गए हैं।
जिन पांच राज्यों द्वारा केंद्र के खजाने में गेहूंं का करीब-करीब सारा स्टॉक मुहैय्या कराया जाता है, इनमें से तीन राज्यों में यह खरीद पिछले साल की तुलना में गिरी है। हरियाणा में यह (19 लाख टन), पंजाब में (2 लाख टन) और यूपी में (2 लाख टन) की खरीद कम हुई है। वहीँ राजस्थान में खरीद में 8 लाख टन की बढ़ोत्तरी हुई है।
लेकिन यह मध्य प्रदेश में गेहूंं खरीद में आये बड़े उछाल का ही कमाल है, जिसके चलते कुल खरीद में यह रिकॉर्ड देखने को मिला है। दूसरे राज्यों में लॉकडाउन के कारण आ रही मुश्किलों को देखते हुए, पहले से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे, उसी के अपेक्षित या तो खरीद में गिरावट देखने को मिली है या मामूली बढ़ोत्तरी हुई है।
अब अब देखने वाली बात यह है कि पिछले साल के 67 लाख टन की तुलना में इस साल रिकॉर्ड स्तर पर जो 129 लाख टन गेहूंं की खरीद हुई है, वह मध्य प्रदेश में संभव कैसे हो सकी है? केवल एक वर्ष में 62 लाख टन की असाधारण छलांग, और वह भी लॉकडाउन के बीच में कर पाना किसी अनहोनी घटना से कम नहीं है।
बर्बाद हो चुके अनाज की खरीद का मामला
केंद्र सरकार ने गेहूंं की खरीद को लेकर गुणवत्ता के सम्बंध में एक विस्तृत नियमावली को निर्दिष्ट कर रखा है। इसमें विभिन्न किस्म की बर्बादी को- जिसमें दाने में चमक की कमी, सिकुड़ जाना या टूटन, नमी, बाहरी कण के तत्व जैसे तत्वों को बाकायदा निर्दिष्ट किया गया है। इसके बारे में यह भी नियम है कि निश्चित सीमा तक के नुकसान को ध्यान में रखते हुए कीमतों में कमी की जा सकती है। एक निर्दिष्ट सीमा से अधिक यदि गेहूंं क्षतिग्रस्त होता है तो, नहीं खरीदे जाने को लेकर भी स्पष्ट दिशानिर्देश हैं।
हालाँकि इस वर्ष सम्बन्धित विभाग की ओर से फरवरी और मार्च में शुरुआती बारिश के चलते उत्तरी हिस्से में गेहूंं की फसल को नुकसान पहुँचने की आशंका को देखते हुए कुछ छूट दी गई थी। वहीँ मध्य प्रदेश के मामले में केंद्र सरकार ने अन्य जगहों की तुलना में गेहूंं की फसल में “चमक की कमी” को स्वीकार करने को लेकर काफी हद तक ढील दी है। गेहूंं के दानों में जो विशिष्ट चमक देखने को मिलती है, इस बार उसमें कमी को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।
फसलों को हुए नुकसान के चलते ऐसा होता है और इसकी वजह से गेहूंं की सेल्फ लाइफ भी काफी कम रह जाती है और ऐसे में कीड़े-मकौडों से हमले का खतरा काफी बढ़ जाता है।
आमतौर पर इस प्रकार के गेहूंं की खरीद के सम्बन्ध में छूट का प्रावधान मौजूद है, जिसमें “चमक खोने” की मात्रा 10% तक हो। दूसरे राज्यों में इसी नियम का पालन किया गया। लेकिन एमपी में इसको लेकर छूट काफी ज्यादा ही देखने को मिली है। 18 जिलों में 10% तक “चमक में कमी” से गेहूंं में हुई बर्बादी से कीमतों में कोई कटौती नहीं की गई है।
अन्य राज्यों में भी ऐसा ही हुआ, जहाँ किसान यूनियनें कीमतों में कटौती के खिलाफ लड़ रहे थे। अन्य 18 जिलों में 30% तक क्षतिग्रस्त गेहूंं की खरीद को स्वीकृति प्रदान कर दी गई थी। और बाकी के बचे 16 जिलों में 30% से लेकर 80% तक क्षतिग्रस्त गेहूंं की फसल की खरीद की गई है। इन मामलों में किसानों की ओर से कीमतों में कटौती को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन वे पहले से ही अपनी फसल को एमएसपी से निचली दरों पर बेचने के लिए तैयार थे, अन्यथा वे इस फसल को किसी भी सूरत में बेच पाने में नाकाम होते। ये सभी विवरण भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के उपायुक्त द्वारा मप्र सरकार के प्रधान सचिव को भेजे गए संचार में उपलब्ध हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार मप्र जितना गेहूंं ख़रीदा गया है, उसका तकरीबन 70% हिस्सा “अंडर रिलैक्स्ड स्पेसिफिकेशन” (यूआरएस) श्रेणी में ख़रीदा गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये वो क्षतिग्रस्त गेहूंं है, जिसे आमतौर खरीदे जाने की अनुमति नहीं है, लेकिन इस साल इसकी खरीद की गई है।
इस साल मप्र में गेहूंं की इस असाधारण खरीद के पीछे की कहानी के पीछे का स्पष्टीकरण है। यह तर्क दिए जा सकते हैं कि यदि गेहूंं की खरीद को नकार दिया जाता तो किसान बर्बाद हो जाते। जहाँ इस बात में दम है लेकिन वहीँ इस बात को भी रेखांकित किये जाने की आवश्यकता है कि पीएम फसल बीमा योजना के तहत मुआवजा पाने के एक और रास्ते को भी अपनाया जा सकता था। हो सकता है, यदि ऐसा होता तो निजी बीमा कम्पनियाँ इस क्षतिपूर्ति की भरपाई को लेकर नाराज हो सकती थीं। लेकिन यह भी सच है कि बीमा अपने आप में एक जोखिम भरा व्यवसाय है, और इसके बारे में भलीभांति जानते हुए ही ये कम्पनियाँ इस व्यवसाय में कूदी होंगी।
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इस क्षतिग्रस्त अनाज को अब बेहद सावधानीपूर्वक पक्के वेयरहाउसों में स्टोर करके रखे जाने की तत्काल आवश्यकता है। साथ ही इस अनाज को तत्काल खपत के लिए आमतौर पर उपयोग में लाये जाने वाले माध्यमों से निपटाया जाना चाहिए। जबकि आज की तारीख में स्थिति यह है कि मध्य प्रदेश सरकार के पास इतनी विशाल मात्रा में अतिरिक्त अनाज के लिए पर्याप्त मात्रा में भंडारण की कोई व्यस्था नहीं है। वहीँ पहले से ही भारी बारिश में अनाज सड़ने की खबरें आ रही हैं। इस पहेली को मप्र सरकार किस प्रकार से सुलझाने जा रही है, यह किसी को नहीं मालूम।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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