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क्या अब धर्म की आलोचना का सवाल एजेंडा पर नहीं आना चाहिए?

कुछ ‘अस्वाभाविक मौतें’ ऐसी होती हैं कि वह हमेशा के लिए रहस्य बनी रहती हैं। क्या बाघंबरी मठ, प्रयागराज के महंत नरेन्द्र गिरी की पिछले साल हुई मौत-जब वह अपने कमरे में फांसी पर लटके पाए गए थे, इसी दिशा में बढ़ रही है ? 
narendra giri

कुछ ‘अस्वाभाविक मौतें’ ऐसी होती हैं कि वह हमेशा के लिए रहस्य बनी रहती हैं।

क्या बाघंबरी मठ, प्रयागराज ( पहले का इलाहाबाद ) के महंत नरेन्द्र गिरी की पिछले साल हुई मौत - जब वह अपने कमरे में फांसी पर लटके पाए गए थे - इसी दिशा में बढ़ रही है ? 

औपचारिक तौर पर देखे तो उनके चंद शिष्यों - आनंद गिरी तथा दो अन्य - के खिलाफ महंत को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आरोपपत्र भी दाखिल किया गया है। चार्जशीट के मुताबिक अभियुक्तों ने किसी महिला के साथ महंत का कोई आपत्तिजनक विडियो तैयार किया था, जो कथित तौर पर संपादित था और उसे सार्वजनिक करने की उनकी योजना थी, जिसके चलते महंत मानसिक तनाव में थे।

इस संबंध में एक नया घटनाक्रम यह भी है कि महंत के दो करीबी सहयोगियों - अमर गिरी और पवन महाराज - ने टायल अदालत के सामने एक नयी अर्जी लगायी है, जिसमें बताया गया है कि उन्होंने जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की थी - उसमें न आत्महत्या या हत्या का उल्लेख था और न ही किसी के नाम का जिक्र था। जाहिर है इस अर्जी के बाद मुददे की जटिलता और बढ़ गयी है।

पृष्ठभूमि के तौर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि महंत ने सबसे पहले अपने वारिस के तौर पर बलबीर गिरी का नाम तया किया था, जिसके स्थान पर आनंद गिरी का नाम शामिल किया था और फिर बदल कर बलबीर गिरी को बनाया था।

गौरतलब है कि महंत नरेंद्र गिरी की अस्वाभाविक मौत को लेकर जारी विवाद  पिछले दिनों फिर सूर्खियां बना जब जांच दल ने स्म्रतिशेष नरेद्र गिरी के अपने कमरे को उनकी मौत के बाद पहली दफा खोला। जांच दल यह देख कर आश्चर्यचकित था कि उसे न केवल भारी मात्रा में नगदी मिली - कई करोड़ रूपयों की बरामदगी बतायी गयी, तथा करोड़ों के गहने और प्रापर्टी के कागजात भी मिले। एक अन्य रिपोर्ट में पांच लाख रूपए कीमत की इलेकिटक मसाज चेअर तथा कुछ राइफलो और कारतूसों की बरामदगी की बात भी कही गयी, लेकिन बाद में इसके बारे में कहीं अधिक उल्लेख नहीं आया।

इस पूरे प्रसंग के बारे में आखिरी समाचार यही था कि जांच दल ने यह सभी वस्तुएं महंत के नामांकित वारिस बलबीर गिरी को सौंप दी हैं और जिन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि जो चीजें महंत के कमरे से बरामद हुईं, वह इतनी अधिक मूल्य की नही थीं।

वास्तविक बरामदगी को लेकर जो अपारदर्शिता दिखती है, जो अखबारों मे ही प्रकाशित अलग अलग किस्म की रिपोर्टों मे साफ दिखती है, नए प्रश्न पैदा करती है। आखिर कितनी नगदी बरामद हुई ? क्या उसकी राशि तीन करोड रूपए थी या 8 करोड थी या ‘बहुत कम’ थी ?

क्या जांच दल ने इस बरामदगी का कोई पंचनामा किया ? और क्या उसे यह अधिकार मिला था कि बिना अदालती आदेश के कमरे में बरामद सामग्री को ‘वारिस’ को सौप दी जाए ? क्या जांच दल का यह जिम्मा नही था कि वह बरामद चीज़ों की ठीक से सूची बनाती और उस पर पंचों से दस्तख़त करवाती और वह सूची अदालत को सौंपती ?

 इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि महंत नरेंद्र गिरी न केवल विश्व हिन्दू परिषद बल्कि राज्य सरकार के करीबियों में थे, याद रहे कि महज एक रात पहले अपने ही आश्रम में उनकी मुलाक़ात सूबाई हुकूमत के एक सीनियर मंत्राी से हुई थी, और वह ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद - जो हिन्दू संतो और साधुओं के 14 अखाड़ों का केन्द्रीय निकाय है  - और जो इस पद पर दुबारा चुने गए थे, क्या इतनी उम्मीद की जा सकती है कि इस पूरे मामले में पारदर्शिता बरती जाएगी।

वैसे महंत के कमरे से कितनी भी नकदी बरामद हुई हो या कितने भी गहने / जिनका मूल्य एक रिपोर्ट में करोड़ों बताया गया है / मिले हों, इसके बावजूद यह प्रश्न अप्रासंगिक नहीं होता कि इस पैसे का स्त्रोत क्या था ? क्या कुछ धर्मादायी व्यक्तियो ने आश्रम को यह पैसा सौंपा और क्या इन सभी पैसों के आंकड़ें बहीखाते में दर्ज है ? क्या आश्रम का तथा उसके अंदर संचालित गतिविधियों को कोई सालाना ऑडिट होता था, क्या आश्रम को एक चैरिटेबल संगठन घोषित किया गया था तथा उसे इन प्रक्रियाओं से मुक्ति मिली थी।

वैसे यह सवाल पहली दफा नहीं उठ रहे हैं, अक्सर ऐसे सवाल उठते हैं जब इन आध्यात्मिक गुरूओं को लेकर - जो भारत में अक्सर सामूहिक धार्मिक आस्था की प्रतिमूर्ति / कोष माने जाते हैं -  कुछ विवाद खड़े होते हैं, फिर चाहे मसला संपत्ति हो या ऐसी गतिविधियां जो उनके बाहरी आवरण से प्रतिकूल होती है।

 बमुश्किल पांच साल पहले उड़िसा ऐसे कई बाबाओं के खिलाफ एक नयी तरह की सरगर्मी का गवाह बना। यह सिलसिला शुरू हुआ किन्हीं सन्तोष कुमार रौला उर्फ सारथी बाबा के खिलाफ जिनका उड़िसा के केन्द्रप्पा तथा आसपास के इलाकों में काफी प्रभाव रहा है, जब उनके बारे में किसी टीवी चैनल ने यह ख़बर चला दी कि वह हैद्राबाद के किसी पांच सितारा होटल में किसी कालेज युवती के साथ रूके हैं। सारथी बाबा को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने के दौरान हुई जनजाग्रति ने एक तरह से सुरा बाबा उर्फ सुरेन्द्र मिश्रा नामक बाबा के खिलाफ जनता के आक्रोश को सड़कों पर ला दिया, जिन्हें कुछ साल जेल में बीताने पड़े और जमानत पर रिहाई के कुछ समय बाद ही जिनका इन्तक़ाल हुआ; उसी किस्म का जनान्दोलन बाना बाबा के खिलाफ सड़कों पर दिखाई दिया और बाना बाबा को भी पुलिस को जेल भेजना पड़ा।

गौरतलब था कि जब सूबा उड़िसा में बाबाओं के खिलाफ जब यह सरगर्मियां बनीं, उन दिनों यह ख़बर भी आयी कि जनता के इस आक्रोश को देखते हुए उड़िसा में लम्बे समय से पैर जमाए कई बाबाओं ने राज्य की जनता के आंखों के सामने से रूखसत होना ही मुनासिब समझा था।

 बार बार यह बात सामने आ चुकी है कि कितने स्वामी/ साध्वियां अक्सर जांच एजेंसियों या खोजी पत्राकारों की रडार पर आते है जब वह  वह काले पैसे को वैध बनाने से money laundering लेकर अन्य तमाम अवैध कामों में लिप्त पाए जाते है। गौरतलब है कि केन्द्र में हिन्दुत्व वर्चस्ववादी हुकूमत के आगमन तथा समाज में भी बहुसंख्यकवादी चिन्तन को मिली स्वीकार्यता के चलते, तथा इन अधिकतर बाबाओं द्वारा मौजूदा हुकूमत के प्रति अपना समर्थन एव वफादारी के ऐलान के बाद विगत कुछ सालों से ऐसी जांच नहीं चलती दिख रही है, लेकिन एक बात तो तय है कि इसके पहले के दशक में प्रकाशित रिपोर्टें और इन आध्यात्मिक गुरूओं पर किए स्टिंग आपरेशन के जरिए जो तथ्य सामने आते हैं, उनसे इन बाबाओं की कार्यप्रणाली पर बखूबी रौशनी पड़ती है।

हम याद कर सकते हैं प्रशांति निलयम, जो पुदुकोटटी स्थित वह आश्रम है, जहां सत्य साई बाबा का निवास था - जिनका एक जमाने में बेहद जलवा था, लेकिन वह तमाम विवादों में भी ताउम्र घिरे रहे, जिसमें धनशोधन से लेकर हाथ की सफाई से लेकर बाल यौन उत्पीड़न जैसे आरोप भी थे उनकी मौत के कुछ दिन की बात है जब रिटायर्ड न्यायाधीशों, आयकर विभाग द्वारा नियुक्त किए गए आकलनकर्ता तथा बाबा के विश्वस्तों की मौजूूदगी में सत्य साई बाबा का निजी कक्ष - जिसे यजुर मंदिर कहा जाता था - खोला गया तब लोग भौचक्के थे कि वहां कितनी अधिक मात्रा में सोना, नकदी और चांदी रखी थी, जिसे ठीक से गिनने में ही जांच टीम को 36 घंटे का वक्त़ लगा। यह राशि 11.56 करोड़ रूपए, 95 किलोग्राम सोना और 307 किलोग्राम चांदी के रूप में थी। बाद की चंद रिपोर्टों में यह बताया गया कि और सोना मिला।)

आखिर एक आध्यात्मिक गुरू के पास इतनी सारी दौलत कहां से आ गयी ? और तमाम सरकारें इसके बारे में क्यों आंखें धरे बैठी रहीं ?

हम सीएनएन -आईबीएन और कोब्रापोस्ट द्वारा संयुक्त रूप से किए गए उस स्टिंग आपरेशन को भी याद कर सकते हैं जिसमे इन तमाम आध्यात्मिक गुरूओं को खुल्लमखुल्ला धनशोधन अर्थात काले धन को वैध बनाने के कारोबार में लिप्त दिखाया गया था, जिस काम को वह कमीशन लेकर अंजाम देते थे। इनमें से एक अग्रणी जो नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में पांच सौ साल पुरानी मस्जिद के ध्वस्तीकरण के आंदोलन में पूरी तरह सक्रिय थे, उन्होंने साक्षात्कारकर्ता को इतना तक बताया कि काले धन को सफेद धन में कमीशन लेकर बदलने के लिए उन्होंने एक अलग टस्ट भी बनाया है। यह आपरेशन जिसने इन गुरूओं के काले धंदों का पर्दाफाश किया था, वह यही उजागर कर रहा था कि लोगों को पापों से मुक्ति दिलाने का दावा करने वाले यह गुरू कैसे शैतानी कामो में लिप्त रहे है। 

कुछ साल बाद जब एक दूसरे टीवी चैनल पर एक अन्य कार्यक्रम चला जिसका शीर्षक था ‘हे राम’ इसमें इन तमाम गाॅडमेन और गाॅडवूमेन के अपराधियों के साथ कायम संबधों पर अच्छी रौशनी डाली थी।  ('Godmen's unholy link with criminals, Mailtoday, 11 Sep 2010).

निश्चित तौर पर यह सभी तथ्य बेहद बिखरे बिखरे हैं, लेकिन वह जनता की आस्था का दोहन करने में इन आध्यात्मिक गुरुओं की कार्यप्रणाली की अच्छी समीक्षा करते हैं और 21 वीं सदी की तीसरी दहाई में नीति निर्माताओं से और हुकूमत संभालने वालों से अलग किस्म की सक्रियता की मांग करते हैं।

 क्या इन बाबाओं को कानून के दायरे में नहीं लाया जा सकता  ?

इतने सारे प्रमाणों के बावजूद उन लोगों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती ? और क्यों उनका सम्मोहन बना रहता है?

अगर मध्यमवर्ग के तनखाशुदा व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि वह हर साल आयकर भरेगा, अगर समाजसेवा में लिप्त किसी संस्था के रेकार्ड अक्सर जांचे जाते हैं, उन्हें तमाम औपचारिक कार्रवाइयो से गुजर जाना पड़ता है तो आखिर ऐसे तमाम बाबाओं, आध्यात्मिक गुरूओं को क्यों बक्श दिया जाता है, ऐसे गुरू जिनकी वाणी एव काम का प्रभाव हजारों, लाखों लोगों तक पहुंचता हैै?

सरकारों की आंखें कब खुलेंगी ताकि ऐसे सभी स्वयंभू लोगों पर अंकुश लगाया जा सके। तय बात है कि राज्य की मशीनरी के विभिन्न अंगों को इस मसले पर सक्रिय होना पड़ेगा तथा ऐसे कदम उठाने होंगे ताकि इन स्वयंभू महात्माओं की गतिविधियों की पारदर्शिता के दायरे में लाया जा सके, ताकि वह जनता की आस्था के साथ खिलवाड़ न कर सकें, उनका किसी भी किस्म का दोहन न कर सकें।

आज की तारीख़ में जबकि राज्य खुद संकीर्ण किस्म की सियासत में उलझा हुआ है, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के तहत  राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट अलगाव सुनिश्चित करने के बजाय धर्म और राजनीति के संमिश्रण को वरीयता प्रदान कर रहा है, एक बहुधर्मीय, बहु आस्था वाले देश में एक संख्या के आधार पर एक खास धर्म को, उसके रीतिरिवाजों - परंपराओं को अहमियत प्रदान कर रहा है, ऐसे समय में इस बात की उम्मीद करना भी बेकार है कि वह ऐसे बाबाओं के कारोबार को पारदर्शी बनाने की कोशिश करेगा।

इस संबंध में ऐसी सक्रियताओं का महत्व बनता है जो जनजागृति मे लगी हों, महाराष्ट्र का अनुभव काबिलेगौर है, जहां डा नरेंद्र दाभोलकर की पहल पर बनी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की संगठित मुहिम के बाद काला जादू कानून बना था, वही कानून है जिसके निर्माण के लिए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने डेढ दशक से अधिक संघर्ष किया था और अतिवादियों द्वारा की गयी उनकी हत्या के बाद महाराष्ट विधानसभा ने इस कानून पर सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगा दी थी। ध्यान रहे कि इस कानून के तहत ऐसे तमाम बाबाओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजा जा चुका है, जो चमत्कार दिखा कर लोगों को गुमराह करा रहे थे।

 हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के संविधान की धारा 51 ए मानवीयता एवं वैज्ञानिक चिन्तन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती है, जो अनुच्छेद राज्य सोच को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी डालता है। निश्चित तौर पर देश के स्तर पर ऐसे कानून को लागू करने के रास्ते में काफी चुनौतियां हैं, लेकिन क्या अंतरिम कदम के तौर पर हमें इस दिशा में नहीं सोचना चाहिए।

अंत में, हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि आध्यात्मिक गुरूओं, बाबाओं के शोरगुल में तर्कशीलता की आवाज़ हल्की न पड़े। आज भले ही यह असंभव लगे कि लेकिन हमें धर्म की आलोचना के काम को आज नही तो कल हमारे हाथ मे लेना होगा, जिसकी बात मार्क्स  ने अपनी ऐतिहासिक किताब Introduction to A Contribution to the Critique of Hegel's Philosophy of Right" में की है:

The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo...

लेकिन इस पर विस्तार से बात फिर कभी!

(व्यक्त विचार निजी हैं।)

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