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ममता बनर्जी के कांग्रेस विरोधी सुर और भवानीपुर में बड़ी जीत के मायने क्या हैं? 

टीएमसी अन्य राज्यों में अपने पदचिन्हों को विस्तार देने के क्रम में लगी हुई है, लेकिन कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि सीएम के भतीजे के खिलाफ ईडी का मामला उनकी इस आक्रामकता को कुछ हद तक सीमित कर सकता है।
TMC

आने वाले दिनों में आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और इसकी सुप्रीमो ममता बनर्जी की क्या भूमिका होगी, इसका एक खाका उनके भवानीपुर विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान देखने को मिला था। जब वे ‘अनिर्वाचित’ मुख्यमंत्री विधायक बनने और नबन्ना में अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने की खातिर चुनाव लड़ रही थीं।

ममता बनर्जी का अपने घरेलू मैदान भवानीपुर में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की उम्मीदवार प्रियंका टिबरेवाल के खिलाफ 58,835 मतों के अंतर से जबर्दस्त तरीक़े से जीतना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसने पश्चिम बंगाल में उनके दबदबे में कोई इजाफा नहीं किया है, क्योंकि वे पहले से ही यहाँ की सबसे प्रमुख राजनीतिज्ञ हैं और अपनी पार्टी के मामलों को चलाने और मुख्यमंत्री की भूमिका में किसी तानाशाह की तरह कार्य कर रही हैं। प्रासंगिक प्रश्न यह बना हुआ है कि क्या यह जीत और मुर्शिदाबाद में जंगीपुर और शाशेरगंज में दो अन्य उपचुनावों में टीएमसी के उम्मीदवारों को मिली इस जीत से, देश भर में गैर-भाजपा स्थान को अपने पक्ष में हासिल करने की उनका क्षमता बढ़ने जा रही है या नहीं?

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कुछ हलकों में यह प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि क्या बनर्जी ने नई दिल्ली में 28 जुलाई को कार्यवाहक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी के साथ हुई बैठक से ‘पीछे हटने’ की कोशिश की है? इस बैठक को राजनीतिक गलियारों और मीडिया के द्वारा कांग्रेस और टीएमसी के बीच रिश्तों में बर्फ पिघलने के संकेत के तौर पर पढ़ा गया था, जिसने मार्च-अप्रैल विधानसभा चुनावों को कड़े प्रतिद्वंदियों के तौर पर लड़ा था। उन्होंने मीडिया के सामने इस बात की पुष्टि की थी कि विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ भाजपा विरोधी सभी ताकतों के एकजुट होने की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी। उन्होंने बताया था कि उनके बीच में इस बात पर भी चर्चा हुई थी कि 2024 का लोकसभा चुनाव भाजपा विरोधी दलों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच की लड़ाई होनी चाहिए। उनका कहना था कि बैठक ‘सकारात्मक’ रही।

मीडिया की ओर से पूछे गए सवालों के जवाब में कि यदि भाजपा विरोधी खेमा आकार ग्रहण करता है तो वे क्या भूमिका अदा करेंगी, पर उनका कहना था “मुझे इस अवधारणा को ठोस शक्ल देने में मदद करने में ख़ुशी महसूस होगी। मैं एक कार्यकर्ता के बतौर संतुष्ट रहूंगी।”

नई दिल्ली में हुई इस चर्चा के मात्र सात हफ़्तों बाद ही, जबकि कांग्रेस ने बनर्जी के खिलाफ भवानीपुर में अपना उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला लिया, वहीँ दूसरी तरफ टीएमसी ने यू-टर्न ले लिया। अभियान के साथ-साथ टीएमसी ने खुद बनर्जी के नेतृत्व में, उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी और पार्टी के मुखपत्र जागो बांग्ला द्वारा कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया है। पार्टी अध्यक्ष ने भाजपा विरोधी तेवर दिखाने के कार्यभार को अपने मंत्रियों फिरहद हकीम, सुब्रत मुखर्जी और पार्था चटर्जी को सौंप दिया है। टीएमसी के कांग्रेस विरोधी हमले के मुख्य बिंदु इस प्रकार से हैं- टीएमसी जहाँ भाजपा के खिलाफ लगातार सड़कों पर उतर रही है, वहीँ कांग्रेस सिर्फ भाजपा विरोधी बयान जारी करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही है। कांग्रेस ने खुद को “गंदगी से भरे तालाब” में समेट लिया है, राहुल गांधी अपनी नेतृत्व कर सकने की काबिलियत को साबित कर पाने में नाकामयाब रहे हैं, और इसलिये, वे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी गठन का चेहरा नहीं बन सकते हैं, केवल बनर्जी ही इस काम को कर सकती हैं और, इसलिए उन्हें विपक्ष का नेतृत्व करना चाहिए।

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बनर्जी ने यह भी कहा- “आखिर कैसे सिर्फ हमारे लोगों को ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के द्वारा लक्षित किया जा रहा है, जबकि कांग्रेस के किसी भी नेता के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। जाहिर है, भाजपा द्वारा प्रताड़ित किये जाने के भय से, कांग्रेस ने समझौता करने के विकल्प को चुना है....।” 

जैसा कि सभी को मालूम है कि ईडी द्वारा इन दिनों उनके भतीजे और उनकी पत्नी रुजिरा के खिलाफ तस्करी के आरोपों में शिकंजा कसा जा रहा है। राजनीतिक हलकों में टीएमसी के इस उग्र कांग्रेस-विरोधी रुख के समय को चुनने को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसों द्वारा पार्टी छोड़ने, पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के जबरन इस्तीफे के बाद के हालात, केरल, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आपसी घमासान और ग्रुप 23 (जी-23) द्वारा पत्र के द्वारा संदेश लगातार कांग्रेस नेतृत्व को परेशानी में डाल रहे हैं। और ऐसा तब है जब कांग्रेस पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में आने वाले महीनों में विधानसभा चुनावों का सामना करने के लिए कमर कस रही है। इसलिए, ऐसा लगता है कि बनर्जी ने शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस पर नपा-तुला हमला बोला है।

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काफी कमजोर कांग्रेस भी बनर्जी को टीएमसी के पदचिन्हों को विस्तारित करने का अवसर प्रदान करती है। आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस नाम होने के बावजूद, यह पार्टी अभी तक पश्चिम बंगाल-आधारित ईकाई ही बनी हुई है और चुनाव के मौके पर इसके कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की हिमाकत ने इसे अभी तक कोई फायदा नहीं पहुंचाया है।

इसलिए बनर्जी के लिए भाजपा विरोधी स्थान पर खुद को एक स्वीकार्य राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभारने के लिए टीएमसी को अपने पदचिन्हों को विस्तारित करने की आवश्यकता है। यह इसके ‘गंतव्य गोवा’ मुहिम को व्याख्यायित करता है। इसके कुछ नेता तो पहले से ही सुझा रहे हैं कि टीएमसी को गोवा में अकेले ही पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री लुइज़िन्हो फलेरियो के नेतृत्व में भाग लेना चाहिए और सभी 40 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए। वहां पर जल्द ही एक टीएमसी कार्यालय खुलने जा रहा है। हाल ही में टीएमसी सुप्रीमो ने यह भी संकेत दिया था कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में भी अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी।

जहाँ वाम मोर्चे ने आम तौर पर 28 जुलाई को सोनिया गाँधी के साथ हुई बनर्जी की बैठक के बाद के पलटने वाले रुख को नजरअंदाज करने को चुना है, वहीँ भाजपा की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाया जा सकता है। इसने घोषणा की कि सबसे पहले, मोदी 2024 में भी राजनीतिक गलियारे में हावी रहने जा रहे हैं। दूसरा, जहाँ बनर्जी नई दिल्ली पर अपनी नजरें गड़ाए बैठी हैं, वहीँ उनका भतीजा खुद को अगले मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहा है।

इस बीच बनर्जी ने कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी की तरफ से तीखी आलोचना को आकर्षित किया है, जो मुर्शिदाबाद जिले के बेरहामपुर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका कहना है कि बनर्जी का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को नुकसान पहुंचाना है, और इसलिए उनकी ये हरकतें और बयानबाजियां नरेंद्र मोदी और अमित शाह को खुश करने वाली हैं।

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चौधरी ने उन पर दुरंगी चाल चलने का आरोप लगाते हुए कहा है कि उनका पिछला रिकॉर्ड बताता है कि जब टीएमसी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा थी तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) की उदारतापूर्वक प्रशंसा की थी। एनडीए से नाता तोड़ने के बाद, बनर्जी ने मुस्लिम वोटों को हासिल करने के लिए आरएसएस और भाजपा दोनों को निशाना बनाना शुरू किया था। उन्होंने आरोप लगाया कि टीएमसी राजनीतिज्ञों को तोड़कर अपने में मिलाने के लिए और मंत्रालयों को अस्थिर करने के लिए चार्टर्ड उड़ानों पर भारी-भरकम रकम खर्च करती है।

लेकिन ये विचार करने वाली बात है कि क्या बनर्जी किसी मजबूरी के तहत मोदी-शाह की जोड़ी की आलोचना के सुरों को मंद किये हुई हैं? यहाँ के राजनीतिक हलकों में कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा वे मजबूरी वश कर रही हैं, और यह उनके भतीजे से संबंधित है। प्रवर्तन निदेशालय जिस निरंतरता के साथ अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी के खिलाफ तस्करी से संबंधित मामले की छानबीन में जुटी है और पूछताछ के लिए उनकी उपस्थिति की मांग कर रही है, ने इस जांच की परिणिति उनकी गिरफ्तारी में जाकर खत्म होने की संभावना के चलते उन्हें आशंकित बना डाला है। यदि ऐसा होता है तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ी शर्मिंदगी वाली बात होगी। क़ानूनी राहत मांगने का प्रश्न तो बाद में जाकर आता है। संभव है बनर्जी को मोदी-शाह की जोड़ी के खिलाफ अपने हमले को संयत रखने की सलाह दी गई हो, जैसा कि उन्होंने ग्रीष्मकालीन चुनावी अभियान के दौरान किया था।

आख़िरकार, चुनाव आयोग ने राज्य में अन्य उप-चुनावों को लंबित रखकर, भवानीपुर उप-चुनाव को पहले आयोजित कराने की सहमति देकर बनर्जी को उपकृत करने का काम किया है, ताकि वे संवैधानिक तौर पर नियत तारीख 5 नवंबर से पहले एक विधायक बन पाने में कामयाब हो सकें। यह एक अलग विषय है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 28 सितंबर के अपने आदेश में राज्य के मुख्य सचिव हरि कृष्ण द्विवेदी को चुनाव आयोग से, जाहिरा तौर पर मुख्यमंत्री के कहने पर, उप-चुनाव को जल्दी कराने का आग्रह करने पर कड़ी फटकार लगाई है।

उच्च न्यायालय के आदेश में कहा गया है: “भले ही कुछ भी हो, सबसे आक्रामक हिस्सा मुख्य सचिव के आचरण में देखने को मिला है, जिन्होंने खुद को एक लोक सेवक के बजाय सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी के नौकर के रूप में कहीं ज्यादा पेश किया है, जहाँ पर उन्होंने कहा है कि भवानीपुर निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव आयोजित नहीं किये जाने की स्थिति में एक संवैधानिक संकट खड़ा हो जायेगा, जहाँ से प्रतिवादी संख्या 5 (ममता बनर्जी) चुनाव लड़ना चाहती हैं।”

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इस बीच, अभी तक कुछ राजनीतिक हलकों में जो संभावनाएं दिख रही हैं वे इस प्रकार से हैं- अगर बनर्जी कुछ अन्य राज्यों में टीएमसी के पैर जमा पाने में सक्षम रहती हैं और कुछ गैर-भाजपा दलों के बीच में अपनी स्वीकार्यता को बढ़ा पाने और साथ ही कांग्रेस को कुछ और कमजोर कर पाने में सफल रहती हैं तो हो सकता है कि बाद में वे एक बार फिर से गठबंधन के लिए वामपंथ की ओर मुड़ें।

लेकिन कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इस संभावना को दरकिनार कर दिया है। क्योंकि, कई राज्यों में अपनी सार्थक उपस्थिति को स्थापित कर पाना बहुत ही अधिक समय लगाने वाली कवायद है। कांग्रेस की ताकत में काफी हद तक सेंध लगने के बावजूद यह एकमात्र दल है जिसकी अखिल भारतीय स्तर पर उपस्थिति बनी हुई है। वे हाल ही में कांग्रेस में शामिल होने के दौरान युवा नेता कन्हैया कुमार द्वारा उठाये गए बिंदु का हवाला देते हैं। कन्हैया का कहना था कि लोकसभा की कुल 545 सीटों में से 200 ऐसी सीटें हैं जहाँ पर सिर्फ कांग्रेस उम्मीदवारों को उतार सकती है।

इसलिये, परिस्थितयां ऐसी नहीं हैं जो बनर्जी को देश में भाजपा विरोधी स्थान पर नेतृत्व की भूमिका से कांग्रेस को अपदस्थ करने की अनुमति देने जा रही हों। जैसा कि हाल के दिनों में देखने को मिला है, वे अपनी कट्टर कांग्रेसवाद विरोधी रुख को नर्म कर सकती हैं, और इसकी शुरुआत वे अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए कांग्रेस से चुनावी राज्यों में कुछ सीटें छोड़ने के लिए मोलभाव करने से शुरू कर सकती हैं।

लेखक कोलकाता के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए क्लिक करें-

Mamata Wins Big in Bhowanipore, but can she Dislodge Congress as Key Anti-BJP Force in Country

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