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मार्क्स की 205वीं जयंती : शासक वर्ग ने धर्म का इस्तेमाल हमेशा अपने वर्चस्व के लिए किया

"धर्म के संबंध में मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति 'धर्म जनता के लिए अफ़ीम है' के बारे में बहुत ज़्यादा ग़लत समझा गया है।"
marx

पटना : सर्वहारा के महान चिंतक कार्ल मार्क्स की 205 वीं जयंती केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान द्वारा मनाई गई। इस कार्यक्रम के लिए विषय था " धर्म के संबंध में मार्क्स का दृष्टिकोण और शासक वर्ग'। जयंती कार्यक्रम में पटना शहर के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, रंगकर्मी, ट्रेड यूनियन तथा वामपंथी दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए। स्वागत वक्तव्य केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान के सचिव अजय कुमार ने किया।

प्रारंभिक संबोधन में अशोक कुमार सिन्हा ने कहा, "धर्म प्राकृतिक शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए कई किस्म के त्याग की बात करता है जबकि मार्क्सवादी लोग प्राकृतिक शक्तियों को कार्य-कारण संबंध के आधार पर समझने की कोशिश करता है। सिर्फ प्रचार करने से, जो धार्मिक भावनाएं, लोगों के दिमाग में हैं, उनको दूर नहीं किया जा सकता। जो धार्मिक लोग हैं उनको सामाजिक-राजनीतिक संघर्षो में कैसे खींचा जाए यही सबसे आवश्यक है। यदि हम आम लोगों के प्रश्नों पर उन्हें ले आएं जब वे संघर्ष के पातों में वे शामिल हो जाएं तब उनसे धर्म की नकारात्मक भूमिका की चर्चा करें।"

इस दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सर्वोदय शर्मा ने कहा, "धर्म के संबंध में मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति 'धर्म जनता के लिए अफीम है' के बारे में बहुत ज्यादा गलत समझा गया है। इस पंक्ति को हमेशा संदर्भ से काटकर देखा गया है। दरअसल कम्युनिस्ट लोगों में भी बहुत भ्रम की स्थिति है। धर्म को मार्क्सवादियों ने प्रकृति के संबंधों के संदर्भ में देखा। जैसे-जैसे विज्ञान का विकास हुआ तब बहुत सारी चीजें समझी जा सकी। लेकिन कुछ चीजों को अब तक नहीं समझा जा सका है। आदिम युग से आज तक सरपल्स की अवधारणा आई। मानव समाज के इस स्टेज में धर्म को आदिम युग से आज तक शोषण के औजार के रूप में देखा गया। यह मुट्ठी भर लोगों के वर्चस्व के रूप में काम करता है। जिन सामाजिक शक्तियों ने एकलव्य को विद्या से वंचित किया इसके लिए धर्म दोषी नहीं, उन सामाजिक व्यवस्था को जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिए। धर्म शोषक व शोषित दोनों को शांति का अवसर प्रदान करता है। धर्म मनुष्य को नहीं बनाता बल्कि मनुष्य धर्म को बनाता है। धर्म को वर्ग संघर्षो के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। यह इतना टची मुद्दा है जिसपर लापरवाह ढंग से बात नहीं करना चाहिए। कहा जाता है कि भगवान को याद करो तो इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में लाभ मिलेगा दूसरी ओर धनी लोगों को कहता है कि थोड़ा पुण्य कर लो। उसको भी लगता है कि अगले जन्म में लाभ मिलेगा। समाज़वाद की स्थापना हो जाए तो भी धर्म की जरूरत बनी रहेगी। 1988 में मुझे मास्को जाने का मौका मिला वहां मैंने सैंकड़ों लोगों को चर्च में शामिल होते, ईश्वर में आस्था को देखा। धर्म मानवीय सभ्यता व संस्कृति का हिस्सा है। सबसे प्रमुख विचारधारा धर्म है। अतः हमें कोई भी विश्लेषण ठीक से करना चाहिए। छोटी सी लापरवाही हमारे दुश्मनों को मौका दे सकता है।"

अवकाशप्राप्त प्रशासनिक पदाधिकारी तथा उपन्यासकार व्यास जी मिश्रा ने 'पुराण', 'ओल्ड टेस्टामेंट, 'कुरानशरीफ' आदि का उदाहरण देते हुए कहा " पहले माना जाता था कि ईश्वर ने अचानक फैसला किया और धरती का निर्माण कर दिया। ऐसी -ऐसी कहानियां इन ग्रंथों में वर्णित हैं जिसपर विश्वास करना कठिन होता है लेकिन आज भी उन कहानियों के पात्रों के नाम पर लोग अपने बाल- बच्चों के नाम रखते हैं। जब मैंने पहली बार अमेरिका की यात्रा की तो पृथ्वी के एक ओर अंधेरा तो एक ओर उजाला रहता है। इस बात को इसे साइंस से आधार पर समझा जबकि धर्मग्रंथों में इस बात को रहस्यमय ढंग से बताया गया है। 296 वर्षो तक क्रूसेड चलता रहा है ताकि जेरुसेलम पर कैसे कब्जा किया जाए। यदि धर्म का वह पक्ष नफ़रत नहीं फैलाता तो उससे कोई दिक्क़त नहीं। धर्म सिर्फ व्यक्तिगत आस्था की चीज रहें तो किसी को कोई दिक्क़त नहीं होगी। यदि ईश्वर ने पृथ्वी को बनाया है तो एक दूसरे से नफ़रत की बात नहीं होनी चाहिए। कुरान ज़ब आया तब अरब के देशों में बदअमनी फैली थी। कोई सेंट्रल पावर नहीं था। संप्रदायवाद ले लड़ने का तरीका धर्म को गाली देना नहीं है, मनुष्य को अपने विश्वासों से मिलती है उससे अलग नहीं हो पाता। रोमन साम्राज्य के समय से ही धर्म हमेशा राजा के पक्ष में काम करता है।"

सामाजिक कार्यकर्ता अनिल कुमार राय एक कहानी का उदाहरण देते हुए कहा, "जब मानवीय शक्तियां हार जाती है तो वह दैवीय शक्तियों पर यकीन करने लगता है। साम्राज्यवाद की अवधारणा काफी पहले समय से है लेकिन मार्क्स ने वैज्ञानिक समाजवाद की बात की है। मार्क्स ने धर्म को 'ह्रदयहीन संसार का ह्रदय' कहा है। साथ ही इसे अफीम भी कहा है। अफीम खाते हैं तो वह हमें भ्रम होता है, जो रहता है वह कुछ और दिखाई पड़ता है। शासक वर्ग को दोष न देकर भगवान को दोष देने लगते हैं। शासक वर्ग धर्म की आड़ में अपना बचाव करने लगता है।"

पटना विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन के अध्यापक सुधीर कुमार ने कहा, "मार्क्स में वैज्ञानिक समाजवाद की चर्चा की है ज़ब मार्क्स को 1841 में डॉक्टरेट की उपाधि मिलती है और शोध प्रबंध का विषय धर्म ही था। उपभोक्तावादी संस्कृति को धर्म के माध्यम से ले जाया गया है। शासक वर्ग द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रस्तुत किया गया है। शासक वर्ग अपने वैचारिक आधार मज़बूत करने के लिए प्रशासनिक ढांचे को मज़बूत कर रही है। इसलिए शिक्षा की स्वतंत्रता को नष्ट किया जा रहा है।"

सभा को सामाजिक कार्यकर्ता उदयन, ट्रेड यूनियन नेता डीपी यादव, गोपाल शर्मा, चंद्रबिंद सिंह ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम में सुमंत, रविकिशन, एटक महासचिव गज़नफ़र नवाब, रामलला सिंह, इन्द्रनाथ झा, उमा कुमार, मंगल पासवान, कारू प्रसाद, बिट्टू भारद्वाज आदि मौजूद थे। 

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