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कोविड-19 : विश्वविद्यालयों में नहीं बनने चाहिए क्वारंटाइन सेंटर

भारत सरकार अपने विश्वविद्यालयों को कोविड-19 के इंक्यूबेशन की जगह मान सकती है, लेकिन दरअसल यह पहला नहीं आख़िरी उपाय होना चाहिए।
Maulana Azad National Urdu University
Image Courtesy: Wikipedia

19 मार्च को, तेलंगाना सरकार ने मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय (MANUU), के परिसर पर क़ब्ज़ा जमाने का इरादा जताया, जिसके तहत परिसर को विदेशी यात्रियों के लिए क्वारंटाइन केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, जो शायद कोविड-19 या नोवेल कोरोनावायरस संक्रमण से ग्रसित होंगे। यह निर्णय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 30 के तहत लिया गया है। गुरुवार की रात तक, इमारत को क़ब्ज़े में नहीं लिया गया था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन को इत्तला दे दी गई कि बिल्डिंग को कभी भी लिया जा सकता है। यह निर्णय कई स्तरों पर परेशानी भरा है।

सबसे पहले तो यह जान लें कि मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय (MANUU), हैदराबाद की घनी आबादी वाले गाचीबोवली उपनगर के टेलिकॉम नगर के भीतर स्थित एक छोटा आवासीय विश्वविद्यालय है। लगभग 200 एकड़ में फैले इस विश्वविद्यालय के छात्र, कर्मचारी और शिक्षक अक्सर कम जगह को लेकर संघर्ष करते रहे हैं। [इसकी तुलना हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से करें, जो 15 मिनट की दूरी पर है और 2,300 एकड़ में फैला हुआ है]। मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय (MANUU) की अकादमिक इमारतों के अलावा, शिक्षण और ग़ैर-शिक्षण कर्मचारियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी इस छोटे से परिसर में रहता है, और छात्र इसके छात्रावास में रहते हैं।

दूसरा, अगर सैद्धांतिक बात मानी जाए तो नोवेल कोरोनावायरस से लड़ने में विश्वविद्यालय को इस्तेमाल करना एक विवादास्पद निर्णय है। यह ज़रूर हो सकता है कि सरकार विश्वविद्यालय  को अंतिम उपाय के रूप में रखे, न कि पहले उपाय के रूप में। जैसा कि गुरुवार से ही विश्वविद्यालय के छात्र कह रहे हैं, कि वे कोई डिस्पोज़ेबल पदार्थ नहीं हैं जिन्हें संकट के समय निकाल बाहर किया जाएगा।

यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने 16 मार्च को फ़ैसला किया था कि छात्रों को 20 मार्च यानी शुक्रवार तक छात्रावास को खाली कर देना चाहिए। इसने पहले से ही एक संकट पैदा कर दिया क्योंकि छात्रों को वैकल्पिक आवास खोजने में ख़ासी दिक़्क़त हो रही है - कई तो इसमें असफल रहे। फिर भी, यह एक एहतियाती कदम था जिसके माध्यम से विश्वविद्यालय के आसपास भीड़ भरे इलाक़े और संक्रमण फैलने के जोखिम को ध्यान में रखा था।

अब, सरकार पूरी तरह से परिसर को क़ब्ज़ाने की तैयारी कर रही है, हॉस्टल को पूरी तरह से ख़ाली करना होगा, जिससे कुछ छात्रों को भी ख़ुद को आइसोलेट करने के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी। सवाल यह है कि जिन छात्रों को आवास नहीं मिला, वे कहां जाएंगे? और इस आवासीय संस्थान के परिसर में रहने वाले ग़ैर-शिक्षण और शिक्षण स्टाफ़ और उनके परिवारों का क्या होगा? अगर ठीक उनकी नाक के नीचे एक क्वारंटाईन केंद्र स्थापित किया गया है तो क्या वे अधिक जोखिम में नहीं पड़ जाएंगे?

संदिग्ध केसों और रोगियों को स्थानांतरित करने और एक आवासीय विश्वविद्यालय के परिसर में इंक्यूबेशन सेंटर बनाने से परिसर में रहने वाले प्रत्येक परिवार के स्वास्थ्य और सुरक्षा को जोखिम बढ़ सकता है और आसपास के क्षेत्र में भी इसके परिणाम भयानक हो सकते हैं। संयोग से, सरकारी आदेश में उल्लिखित एकमात्र विशिष्ट कारण है कि यह विश्वविद्यालय ही क्यों एक उपयुक्त स्थान है, वह इसलिए कि यहाँ "वाहनों की पार्किंग के लिए पर्याप्त स्थान" है। इस कारण के लिए विश्वविद्यालय को लेना एक अतार्किक क़दम है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कह रहे हैं कि नोवेल कोरोनावायरस की इंक्यूबेशन यानी उसके पूरी तरह से परिपक्कव होने की अवधि 14 दिन की है। फिर भी, यह संकट अभी भी नया है, और यह भी निश्चित नहीं है कि वायरस मानव शरीर के बाहर कितने समय तक सक्रिय रह सकता है, और यह भी कि कब तक इसे इंक्यूबेट करेगा। बाहर के केसों में ऐसे मामले रहे हैं, जिनमें वायरस को इंक्यूबेट करने में 27 दिन लग गए। इस वायरस की प्रकृति के बारे में अनिश्चितताओं के कारण विश्वविद्यालय के छात्र चिंता में पड़े हैं कि वापस लौटने के बाद भी उनका परिसर लंबे समय तक सुरक्षित स्थान नहीं होगा, और इस चक्कर में उनका एक शैक्षणिक सत्र मारा जाएगा।

कोविड-19 के मामले में, अक्सर यह होता है कि यह एक ऐसी बीमारी है जो वृद्धों पर सबसे  अधिक हमला करती है। यह सच है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसका युवाओं पर कोई असर नहीं पड़ता।

ऐसा लगता है कि सरकार के फ़ैसले में जो चीज़ ग़ायब है, जो इस बात की पुष्टि भी करता है कि इस फ़ैसले में जोखिमों से दो-चार करने वाली नीतियों को एक आपदा या संभावित आपदा के अंतर प्रभाव और परिणाम को ध्यान में रखते हुए उसके कमज़ोर आबादी पर प्रभाव का भी आकलन करना चाहिए, जैसा कि सरकारी आकलन में नज़र नहीं आता है। आपदा प्रबंधन में यह "भेद्यता का परिप्रेक्ष्य" तेजी से एक प्रमुख दृष्टिकोण के रूप में उभर रहा है।

प्रबंधन उपकरण, जनसंख्या घनत्व और सामाजिक आचार-विचार पर शोध के आधार पर, भेद्यता परिप्रेक्ष्य यह निर्धारित करता है कि एक वास्तविक आपदा [केवल] तब होती है जब वह ग़रीब आबादी पर हमला करती है। इसलिए, सरकार को पूरी आबादी और सामाजिक रूप से कमज़ोर तबकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों के बीच एक संतुलन सुनिश्चित करना चाहिए जो इस तरह की नीति का हिस्सा हो। दूसरे शब्दों में, आपदा के वक़्त कार्रवाई करना है, लेकिन कदम उठाते समय सभी समुदायों को साथ लेकर चलने की ज़रूरत है। सरकार का कोई भी क़दम, कमज़ोर तबके (इस मामले में छात्रों और एमएएनयूयू के आसपास रहने वाले लोगों) को उनके सबसे कमजोर क्षणों में शोषण नहीं लगना चाहिए। छिपे या स्पष्ट तौर पर आपदा प्रबंधन का यह काम है कि वह इन कमजोरियों को ध्यान में रखे।

यह बात सही है कि तेलंगाना समेत भारत की स्वास्थ्य आपातकाल के पैमाने को कम करके नहीं आंकना चाहिए। भारत को इस संकट से लड़ने के लिए खुद को तैयार करना होगा। लेकिन हमारे प्रयासों को आनुपातिकता के सिद्धांत द्वारा लिया जाना चाहिए। इसलिए सरकार को पहले सभी उपलब्ध सार्वजनिक और निजी अस्पतालों और क्लीनिकों पर विचार करना चाहिए और उन्हें नोवेल कोरोनवायरस के संदिग्ध केसों के क्वारंटाईन करने और रोगियों के इलाज़ के लिए तैयार करना चाहिए। एक विश्वविद्यालय को क्वारंटाईन केंद्र में बदलना सरकार और प्रशासन की गलत प्राथमिकताओं को दर्शाता है। सरकार ने हैदराबाद शहर की सीमा पर कोई स्थान क्यों नहीं चुना? मैरिज हॉल जैसी सुविधाओं को लिया जा सकता है और हैदराबाद में ऐसी इमारतों की कोई कमी नहीं है, जिनमें कुछ तो स्वास्थ्य सेवा और चिकित्सा विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में लगी हुई हैं।

सरकार को एमएएनयूयू के प्रशासन से भी इजाज़त लेनी चाहिए, जिसने इसे अपने छात्रों के स्वास्थ्य के प्रति एक गंभीर जोखिम माना है और इसलिए कक्षाएं नहीं लगाई थी। नोवेल कोरोनावायरस आपदा न तो कोई भूकंप है और न ही बाढ़। सबसे सर्वोपरि महत्व यह है कि इससे निबटने के लिए काफी बड़ा स्थान चुना जाए, और वह अलग हो ताकि उसमें महामारी फैलाने का जोखिम कम हो। इसके अलावा, सोशल इंटेलिजेंस के स्तर पर विश्वास का निर्माण किया जा चाहिए। इस मामले में सरकार की सामाजिक बुद्धिमत्ता में काफ़ी कमी है, क्योंकि इसने अल्पसंख्यक छात्रों और कर्मचारियों के प्रभुत्व वाले संस्थान को अपने क़ब्ज़े में लेने का फैसला किया है। यह विश्वासघात की भावना को बढ़ावा दे सकता है।

तेलंगाना सरकार की पहल अन्य राज्य सरकारों और केंद्र को भी इसका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। अतीत में कई स्वास्थ्य से जुड़े संकटों में, उसका इलाज़ सरकार और लोगों के बीच के सहयोग का परिणाम था। अब भी, सरकार को कोविड-19 को ढोने वाले संदिग्ध यात्रियों को ठीक करने के लिए अन्य स्थानों को खोजना होगा, न कि विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों को - जब तक कि वे हमारी रक्षा की अंतिम सहारा न हों।

तारुशिखा सरवेश अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की सहायक प्रोफ़ेसर हैं और अब्दुल हाफ़िज़ गांधी, यूनिटी पीजी डिग्री और लॉ कॉलेज, लखनऊ में क़ानून के सहायक प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Build Quarantine Centres Anywhere, Not in Universities

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