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10 मई विशेष: 1857 के महान मूल्य हैं फ़ासीवादी राष्ट्रवाद की त्रासदी का जवाब

राष्ट्रवाद का यह रूप जो आज हमारे देश में कहर बरपा कर रहा है, जिसने एक आधुनिक राष्ट्र के बतौर भारत की संकल्पना की बुनियाद ही हिला दी है, जिसने हमारी 130 करोड़ जनता के जीवन, स्वास्थ्य, आजीविका को ही खतरे में डाल दिया है, वह 1857 के राष्ट्रवाद के निषेध पर खड़ा है।
10 मई विशेष: 1857 के महान मूल्य हैं फ़ासीवादी राष्ट्रवाद की त्रासदी का जवाब
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: गूगल

"गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,

तख़्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।"

10 मई! 1857 में इसी दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हमारी आज़ादी की पहली जंग शुरू हुई थी। मेरठ से देशभक्त सैनिकों ने बगावत कर सीधे दिल्ली का रुख किया और लाल किले पहुंचकर उन्होंने बहादुर शाह ज़फर को अपना नायक घोषित कर हिंदुस्तान की आज़ादी का एलान कर दिया। पूरे देश मे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का आगाज़ हो चुका था।

लड़ाई का रूप जरूर बदला, लेकिन 1947 तक चली भारत की आज़ादी की पूरी लड़ाई के दौरान 1857 के वीर नायकों की शौर्य गाथाएं, उनका बलिदान, उनकी स्पिरिट स्वतंत्रता-सेनानियों की प्रेरणा बनी रही।

हमारे महान शहीदों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आज़ाद भारत में, वह भी 75 साल बाद कभी ऐसा समय भी आएगा जब यह देश बेगुनाह भारतवासियों की लाशों से पट जाएगा, उन्हें अनायास इस तरह मौत के मुहाने में झोंक दिया जाएगा और हमारा स्वाभिमानी देश  प्राणवायु और प्राणरक्षक दवाओं के लिए पूरी दुनिया के सामने भीख का कटोरा लिए खड़ा होगा, जबकि 20 हजार करोड़ खर्च कर शहंशाह का अय्याशगाह बन रहा होगा।

कवि नवारुण ने किसी और परिस्थिति के लिए जो दुःस्वप्न देखा था, वह आज हकीकत में बदल गया-

" यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश

यह जल्लादों का उल्लासमंच नहीं है मेरा देश

यह विस्तीर्ण श्मशान नहीं है मेरा देश

......................

मैं छीन लाऊंगा अपने देश को और सीने में छिपा लूंगा! "

आज हमारा राष्ट्र जिस अभूतपूर्व संकट से रूबरू है, उसका उत्स राष्ट्रवाद का वह साम्प्रदायिक फॉसीवादी मॉडल है, जो 1857 के राष्ट्रवाद के सपने के ध्वंसावशेषों पर खड़ा हुआ।

1857 की उस जंग के रहनुमाओं के मन में अपनी लड़ाई को लेकर क्या vision था, उसकी एक झलक हम उस जंग के प्रमुख रणनीतिकार कैप्टन अज़ीमुल्ला खां द्वारा, जो नाना साहब के सलाहकार थे, लिखे गये कौमी तराने में देख सकते हैं-

हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,

पाक  वतन है क़ौम का, जन्नत से भी प्यारा.

ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा,

इसकी रूहानी से  रौशन है जग सारा.

कितना क़दीम, कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा,

करती है ज़रखेज़ जिसे, गंग-जमन की धारा.

ऊपर बर्फ़ीला पर्वत, पहरेदार हमारा,

नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा.

इसकी खानें उगल रहीं, सोना, हीरा, पारा,

इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा.

आया फिरंगी दूर से, ऐसा मन्तर मारा,

लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा.

आज शहीदों ने है तुमको, अहले-वतन ललकारा,

तोड़ो गुलामी की ज़न्जीरें, बरसाओ अंगारा.

हिन्दु-मुसल्मां, सिक्ख हमारा, भाई प्यारा-प्यारा,

यह है आज़ादी का झण्डा, इसे सलाम हमारा.’

ऐसा कहा जाता है कि जिस पत्र 'पयाम-ए-आज़ादी' में यह तराना छपा था,1857 के विद्रोह के बाद जिन-जिन घरों में उसकी प्रतियां मिलीं थीं, उन घरों के सभी पुरुषों को सार्वजनिक फांसी दे दी गई थी।

यह राष्ट्रगीत हमारी पहली जंगे आज़ादी के स्वप्न को, उसकी स्पिरिट को सृजनात्मक ढंग से पेश करता है। एक सच्चे देशभक्त की तरह अपने महान देश के प्रति गौरवबोध के साथ, उसके सौंदर्य और समृद्धि का बखान करते हुए, यह हमारी अकूत प्राकृतिक संपदा और राष्ट्रीय सम्पत्ति को लूटने वाले अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुल्क की आज़ादी के लिए देश की सभी धर्मों की जनता से एकताबद्ध होकर जंग में उतरने का आह्वान करता है।

भ्रूण रूप में यहां हम आधुनिक राष्ट्रवाद- आर्थिक राष्ट्रवाद और राजनीतिक आज़ादी- की संकल्पना देख सकते हैं। यह राष्ट्रवाद न किसी संकीर्ण धार्मिक पहचान पर खड़ा था, न दूसरों पर धौंस-धमकी करने वाला अंधराष्ट्रवाद था, यह साम्राज्यवादी लूट और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ प्रगतिशील राष्ट्रवाद था जो आज भी उसके नवउपनिवेशवादी स्वरूप के ख़िलाफ़ उतना ही प्रासंगिक है। 

लेकिन राष्ट्रवाद का यह रूप जो आज हमारे देश में कहर बरपा कर रहा है, जिसने एक आधुनिक राष्ट्र के बतौर भारत की संकल्पना (Idea of India) की बुनियाद ही हिला दी है, जिसने हमारी 130 करोड़ जनता के जीवन, स्वास्थ्य, आजीविका को ही खतरे में डाल दिया है, वह 1857 के राष्ट्रवाद के निषेध पर खड़ा है।

यह अनायास नहीं है कि संघ के बुद्धिजीवी 1857 के बारे में वही मूल्यांकन करते हैं जो अंग्रेज़ों ने किया। वे इसे ईसाई मिशनरियों और कम्पनी के अधिकारियों के हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हमले के खिलाफ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लड़ाई मानते हैं, ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज़ इसे चर्बी वाली कारतूस के खिलाफ उन सिपाहियों का ग़दर (mutiny) साबित करते रहे, जिनकी धार्मिक भावनाएं उससे आहत हुई थीं। 

यह RSS के मिशन के अनुरूप इतिहास का मिथ्याकरण है, यह झूठा विमर्श गढ़ा जा रहा है।

सच्चाई तो यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पूरा खेल ही divide and rule के अंग्रेज़ों के उस शातिर प्रोजेक्ट का हिस्सा था, जो उन्होंने 1857 में परवान चढ़ी चट्टानी हिन्दू-मुस्लिम एकता को ध्वस्त करने के लिए लॉन्च किया।

इसी परियोजना के तहत, जिस देश में देशभक्त हिंदू सैनिकों ने बहादुर शाह ज़फर को जंगे-आज़ादी का रहनुमा घोषित किया था, वहां सावरकर ने "पितृभूमि और पुण्यभूमि" पर आधारित दो राष्ट्र का सिद्धांत ( Two Nation Theory ) गढ़ दिया और मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग से बहुत पहले सैद्धांतिक सूत्रीकरण कर दिया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं, उनका एक राष्ट्र में एक साथ सह-अस्तित्व सम्भव नहीं। 

इसे और विकसित करते हुए गोलवलकर ने हिटलर के नाज़ी जर्मनी के राष्ट्रवाद से प्रेरणा लेते हुए मुसलमानों के लिए नस्ली सफाया या अधिकारविहीन दोयम दर्जे की नागरिकता, एकमात्र विकल्प घोषित कर दिया। उन्होंने मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को ब्रिटिश शासकों के मुकाबले हिंदुओं का ज्यादा बड़ा दुश्मन करार दिया। मनुस्मृति और वर्णव्यवस्था के पैरोकार गोलवलकर के इस राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट में महिलाओं, दलितों, आदिवासियो का क्या स्थान होगा, यह स्वतः स्पष्ट है। ( सावरकर ने 1857 को भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम जरूर कहा था, पर यह अंग्रेज़ों से माफी मांगने और वजीफा पाने से बहुत पहले की, उनके पहले अवतार की पुरानी बात थी,  उस पर भी  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा की छाप थी, जिसे उन्होंने बाद में पूरी तरह विकसित किया)

यह अनायास नहीं है कि संघ आज़ादी की लड़ाई से न सिर्फ अलग रहा, बल्कि उसके तमाम नेताओं का गद्दारी और माफी मांगने का इतिहास है।

1857 का राष्ट्रवाद और संघ का राष्ट्रवाद एक दूसरे से 180 डिग्री उलट (diagonally opposite) हैं। 1857 के आधुनिक समावेशी प्रगतिशील राष्ट्रवाद की अवधारणा पर अंग्रेजों के संरक्षण में पले बढ़े फासीवादी राष्ट्रवाद ने अपने 100 साल के इतिहास में लगातार प्रहार किया और उसे  क्षत-विक्षत किया है, लोकतान्त्रिक राष्ट्र के बतौर इसकी अग्रगति  में अपूरणीय बाधा पहुंचाई और उसे रास्ते से भटका दिया, स्वतंत्रता के पूर्व और उसके बाद। इसमें आज़ादी के पहले उसका पूरक बना मुस्लिम राष्ट्रवाद और अलगाववाद।

पहले देश का धर्म के आधार पर विभाजन, गाँधीजी की हत्या, आज़ादी के बाद देश जैसे ही एकताबद्ध लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में जरा संभलने लगा,  मंदिर-मस्जिद, दंगों की बाढ़ और अब पिछले 7 साल से  फासीवाद का नँगा नाच।

1857 की गंगा-जमनी तहज़ीब की बुनियाद पर लड़ी गई, साझी शहादत की वह विरासत आगे बढ़ती तो न अंग्रेजों की "फूट डालो, राज करो" की सियासत परवान चढ़ती, न संकीर्ण साम्प्रदायिक फासीवादी तथा धार्मिक अलगाववादी संगठनों को उर्वर जमीन मिलती, न धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होता! हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान न होता तो पाकिस्तान-विरोध से खुराक पाती अंधराष्ट्रवादी साम्प्रदयिक उन्माद की हवा निकल जाती !!

लेकिन ऐसा न हो सका, यह हमारी आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद के दौर की राष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी थी जिसका फायदा उठाकर नफरत, विभाजन, विनाश की राजनीति की यह विषबेल आज लहलहा रही है।

दरअसल, 1857 को औपचारिक रूप से बाद में भले ही सबने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मान लिया, लेकिन इसकी क्रांतिकारी, प्रगतिशील अन्तर्वस्तु को आमतौर पर न तो मन से स्वीकार किया गया, न आत्मसात किया गया।

1857 का चरित्र-निर्धारण (characterisation) करते हुए इसे ढहते हुए सामन्ती समाज की प्रतिक्रिया घोषित कर दिया गया और यह निष्कर्ष पेश कर दिया गया कि अंग्रेज़ उच्चतर (पूंजीवादी) उत्पादन पद्धति का प्रतिनिधत्व कर रहे थे, इसलिए वे इन पिछड़ी हुई सामन्ती प्रतिक्रिया की ताकतों को पराजित करने में सफल हो गए। पर यह मूल्यांकन सतही और गलत था। किसी युद्ध में पराजय तो अनेक कारणों से हो सकती है, वह किसी सामाजिक शक्ति के पिछड़े होने का प्रमाण नहीं है, इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।

सच्चाई यह है कि, ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना इस लड़ाई का मुख्य लक्ष्य था और लड़ाई की असली कमान उन सैनिकों के हाथ में थी जिन्हें मार्क्स ने बिल्कुल सटीक संज्ञा दिया "वर्दीधारी किसान"। अवध समेत पूरे देश में इस जंग में  किसानों की जबरदस्त भागेदारी हुई और लाखों किसानों ने शहादत दी। 1861 में House of Commons में अवध पर, जो 1857 की लड़ाई का सबसे बड़ा केंद्र था, बोलते हुए सर चार्ल्स वुड ने स्वीकार किया, " अवध के इलाके में आम किसान हमारे खिलाफ लड़े और उन्होंने ताल्लुकदारों से हाथ मिला लिया।" 

तलमिज खाल्दून ने लिखा है कि "सिपाहियों के विद्रोह के पीछे मूल कारण था आर्थिक शोषण और अन्यायपूर्ण जमीन बंदोबस्त।" उनके अनुसार सैन्य परिषद ने "जमीन जोतने वालों को" ( Land to the tiller ) का नारा बुलंद किया था। उन्होंने जमींदारी के उन्मूलन तथा असली खेतिहरों-हल जोतने वालों- को जमीन का मालिकाना हक सौंपने का आदेश जारी किया था।"

जाहिर है इस लड़ाई के पीछे अंग्रेजी राज से मुक्ति की चाह के साथ साथ किसानों की जमीन और आज़ादी की आकांक्षा भी प्रमुख प्रेरक शक्ति थी। यह भ्रूण रूप में भारत की राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति  थी। लंदन से इस लड़ाई पर पैनी निगाह रखे कार्ल मार्क्स ने सबसे पहले इसे भारतीय जनता की राष्ट्रीय क्रांति ( National Revolt ) कहा था।

काश साम्राज्यवाद का नाश करते हुए ( radical rupture ), किसानों के बीच जमीन का वितरण करते हुए, परस्पर भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द पर आधारित राष्ट्रीय एकता के बल पर यह राष्ट्रीय क्रांति सफल हुई होती, तो 164 साल पहले बना ऐसा संप्रभु, समृद्ध, आधुनिक लोकतांत्रिक भारत आज दुनिया के राष्ट्रों की बिरादरी में किस उच्चतर मुकाम पर खड़ा होता, इसकी कल्पना मात्र से ही रोमांच होता है।

निश्चय ही वह ऐसा भारत होता जो Covid19 के सामने इतना बेबस-लाचार न होता, जहां ऐसी संवेदनहीन, क्रूर, नाकाम सरकार न होती जिसने देश की जनता को इस तरह मरने के लिए भाग्य-भरोसे छोड़ दिया हो!

ऐतिहासिक-राजनीतिक सन्दर्भ जरूर बिल्कुल अलग है, लेकिन पिछले 6 महीने से जमीन, फसल की वाजिब कीमत और लोकतंत्र के लिए कारपोरेट घरानों व वित्तीय पूँजी और उनकी पैरोकार हुकूमत के खिलाफ जारी  किसान आंदोलन, 1857 का उत्तराधिकारी है- अपनी बलिदानी भावना, टिकाऊपन और व्यापकता में ही नहीं, अपने समावेशी, बहुलतावादी चरित्र और रैडिकल लोकतांत्रिक दिशा में भी। 1857 के वर्दीधारी किसानों के बाद सम्भवतः पहली बार किसानों का इतना बड़ा घेरा दिल्ली पर पड़ा है। 

आज जरूरत है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान मूल्यों को पुनर्जीवित कर  फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में उन्हें अपना मार्गदर्शक बनाया जाय और बहादुर शाह जफर के अमर शब्दों में 1857 की spirit को जगाया जाय -

' गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,

तख़्त-ए-लन्दन  तक  चलेगी  तेग  हिंदुस्तान की!'

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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