विश्लेषण : मोदी सरकार और सोशल मीडिया कॉरपोरेट्स के बीच ‘जंग’ के मायने

ट्विटर के साथ मोदी सरकार की लड़ाई
24 अप्रैल 2021 को दिल्ली पुलिस के आतंकवाद-विरोधी दस्ते को ट्विटर कार्यालय पर छापा डालने भेजा गया। यह एक अविश्वसनीय दुस्साहसिक कदम था। इसके बाद से वाक-यंद्ध भी आरंभ हो गया।
27 अप्रैल को ट्विटर का बयान आयाः
‘‘हम हाल की घटनाओं को देखते हुए भारत में अपने कर्मचारियों के बारे में चिंतित हैं और जिन लोगों को हम सेवा प्रदान करते हैं उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भी। भारत और विश्व भर में नागरिक समाज के साथ-साथ हमें भी चिंता है कि हमारे ग्लोबल सेवा शर्तों को लागू करने के बहाने पुलिस धमकियों का सहारा ले रही है। हम नए आई टी नियमों की मूलभूत तत्वों पर भी चिंतित है।’’
उसी दिन ट्विटर को एक पत्र में सरकार ने कहाः
‘‘ट्विटर का बयान विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने शर्तां के संबंध में हुक्म देने का प्रयास है। अपनी कार्यवाहियों और जाने-समझी अवमानना के माधम से वह भारत की न्याय व्यवस्था को कमजोर करना चाहता है। ट्विटर अब उन इन्टरमीडियरी गाइडलाइन्स के उन नियमों को मानने को तैयार नहीं है जिनके आधार पर वह भारत में अपराधिक जिम्मेदारी या क्रिमिनल लायबिलिटी से सुरक्षा लेने का अधिकार जताता है।’’
एक प्रमुख अमरीकी एकाधिकार सोशल मीडिया कॉरपोरेट के विरुद्ध ऐसा उतावला कदम व कठोर शब्दों का प्रयोग सचमुच अविश्वसनीय है। कौन सी ऐसी बात थी जिसके कारण ऐसा कदम उठाया गया?
जब किसान आन्दोलन चल रहा था, 31 जनवरी को सरकार ने ट्विटर को आदेश दिया कि वह 257 हैन्डल और ट्वीट ब्लॉक करे। पुनः 4 फरवरी को एक और आदेश दिया गया जिसमें 1,100 ट्विटर अकाउन्ट्स को बन्द करने को कहा गया।
ट्विटर ने यह कहते हुए इन आदेशों को नज़रअंदाज़ कर दिया कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने बुनियादी उसूल के प्रति वफादार रहेगा। झगड़ा यहीं से शुरू हुआ।
18 मई 2021 को भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने ट्वीट किया कि कांग्रेस के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी को बदनाम करने के लिए एक टूलकिट निर्मित किया है। कांग्रस ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और प्रवक्ता सम्बित पात्रा के विरुद्ध दिल्ली पुलिस में जालसाज़ी यानी फोरजरी का मुकदमा दायर कर दिया। जांचने के बाद ट्विटर को पता लगा कि कथित टूलकिट किसी कांग्रस नेता के ट्विटर हैंडल से या एआईसीसी के रिसर्च विंग से नहीं आया था, जैसा कि संबित पात्रा ने दावा किया। तो अपने नियमों के अनुसार ट्विटर ने मेसेज को ‘मैनिपुलेटड मीडिया’’का नाम दे दिया। यद्यपि संबित पात्रा एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता थे, भारत सरकार ने अपने आईटी मंत्रालय के माध्यम से आधिकारिक नोटिस भेजी कि इस लेबल को हटा दे। ट्विटर ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया। इसलिए मोदी सरकार ने दिल्ली और गुड़गांव में ट्विटर के कार्यालयों पर छापा डलवाया।
इस दमनकारी कदम की विश्व भर में निंदा हुई। यदि भारत सरकार को लगता था कि उसके प्रवक्ता के ट्वीट को ‘‘मैनिपुलेटेड मीडिया’’ कहना गलत था, तो भाजपा को ऐसा कोई अकाट्य साक्ष पेश करना चाहिये था जिससे वह ट्विटर को समझा पाता, बजाय इसके कि सरकारी एजेंसी का गलत इस्तेमाल कर छापा पड़वाता।
भारत सरकार ने तो ट्विटर पर आरोप लगाया था कि वह इंटरमीडियरी गाइडलाइन्स के ‘सोशल मीडिया इंटरमीडियरी प्रोटेक्शन फ्रॉम लायबिलिटी’(Social Media Intermediary Protection from liability) धारा का प्रयोग करते हुए भी सरकार के आदेशों की अवमानना करता है। पर सच बात तो यह है कि इस बाबत सरकार खुद इस विरोधाभास की दोषी है। भारत सरकार के नए आईटी नियमों के अनुसार सभी सोशल मीडिया संस्थानों को अपने यहां शिकायत दर्ज करने की क्रियाविधि तैयार करनी होगी। यद्यपि ट्विटर ने नए नियमों को क्रियान्वित करने के लिए 3 माह का समय मांगा था, उसने पहले ही शिकायत सेल बना लिया था। बजाए इसके कि सरकार रेड करने के लिए पुलिस भेजती, भाजपा शिकायत सेल के माध्यम से संबंधित मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज कर सकती थी।
भारत के पास फेक न्यूज़ और गलत सूचना के विरुद्ध कोई कानून नहीं है। पर अन्य कानून हैं, जिनके तहत मानहानि या डिफेमेशन एक अपराध है यद्यपि संज्ञेय नहीं है। संबंधित पार्टी कोर्ट में केस दर्ज कर सकती है पर पुलिस न ही इस मामले में एफआईआर दर्ज कर सकती है न ही किसी को तब तक गिरफ्तार कर सकती है जब तक कोर्ट का आदेश न हो। आईटी कानून 2000 में धारा 66ए के तहत प्रावधान है कि सरकारी नौकरशाहों के पास यह अधिकार होगा कि वे किसी भी ऐसे ऑनलाइन समाचार को प्रतिबंधित कर सकते हैं जो उनकी नज़र में सामाजिक समुदायों के बीच बैर पैदा कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जा सके। यहां तक कि मोदी सरकार के अपने सोशल मीडिया इंटरमीडियरी गाइडलाइन्स (Social Media Intermediary Guidelines) में तक प्रावधान है कि प्रभावित पक्ष शिकायत सेल में अपनी शिकायत दर्ज कर सकता है; और उसने ट्विटर को सुरक्षा प्रदान करने की बात भी कही यदि वे ‘‘मैसेज को हटा दें’’। बजाय इस प्रक्रिया को अपनाने के, मोदी सरकार ने पुलिस भेजने का अविवके दिखाया। भाजपा के कथन और कार्यवाही में भारी अंतरविरोध है!
अन्य डिजिटल कॉरपोरेट्स के संग मोदी सरकार का संघर्ष
मोदी सरकार केवल ट्विटर से नाराज नहीं है। सरकार ने नए आईटी नियम 2021 तैयार किये और इन्हें 26 मई से लागू भी कर दिया गया। ये नियम केवल सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि डिजिटल मीडिया न्यूज़साइट्स और समाचार व मनोरंजन स्ट्रीमिंग (streaming) सेवाओं पर भी लागू होंगे, और इनका मकसद है संपूर्ण डिजिटल मीडिया को टार्गेट करके उनके माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना।
नए आई टी नियमों के तहत बड़े सोशल मीडिया कम्पनियों को निर्देश दिया गया कि वे शिकायत निवारण तंत्र बनाएं जिसके अंतर्गत किसी को भी किसी मैसेज की वजह से किसी प्रकार की चोट पहुंचे तो वह कम्पनी के पास शिकायत दर्ज कर सकता/सकती है और कम्पनी को जांच करने के बाद मैसेज या समाचार को हटा देना होगा यदि यह पाया जाता है कि वह चोट पहुंचाती है। सरकार कम्पनी से उसे हटाने को निर्देशित कर सकती है। डिजिटल मीडिया आउटलेट और ऐक्टिविस्टों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि ये नियम गैरकानूनी हैं क्योंकि उन्हें कार्यपालिका ने बिना संसद में पास किये बनाया है, जबकि मूल आईटी ऐक्ट में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
खैर, ये नियम 26 मई को प्रभाव में आए, पर कई अनिच्छुक सोशल मीडिया कम्पनियों ने ऐसे शिकायत तंत्रों का निर्माण नहीं किया था; तो सरकार ने उन्हें 26 मई को नोटिस जारी की कि वे सरकार को रिपोर्ट करें कि उन्होंने शिकायत तंत्र निर्मित किया या नहीं। सबसे पहले दबाव के कारण फेसबुक ने घुटने टेक दिये और कहा कि उनका अनुपालन करने का लक्ष्य है; फिर गूगल ने भी बयान जारी किया कि वे भी अनुपालन करेगा। ट्विटर ने अनुपालन करने के लिए तीन महीने का समय मांगा। हमने देखा कि एक के बाद एक सभी कम्पनियों दबाव के आगे झुक गईं, क्योंकि वे नहीं चाहती थीं कि उन्हें भारत में बैन कर दिया जाए, क्योंकि भारत उनके लिए एक बहुत विशाल बाज़ार है।
परंतु सोशल मीडिया जगत के छोटे खिलाड़ी, जैसे डिजिपब की चेयरपर्सन और द न्यूज़ मिनिट, (TNM) की प्रधान संपादक सुश्री धन्या राजेंद्रन, द वायर के संस्थापक संपादक एम के वेणु और फाउन्डेशन ऑफ इन्डिपेंडेंट जर्नलिज़्म संगठन तथा वाट्सऐप ने दिल्ली उच्च न्यायालय में केस फाइल किये हैं; उनका तर्क है कि ऐसे नियम गैर-कानूनी और असंवैधानिक हैं।
दूसरा मामला है खास तौर पर फेसबुक का। इस साल के प्रारंभ में फेसबुक ने कुछ कमजोर किस्म की निजता नीति घोषित की है। इस नीति के अनुसार फेसबुक ने कहा कि वह किसी वाट्सऐप यूज़र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी नहीं हासिल करेगा, जैसे कि परिवार के सदस्यों या मित्रों के साथ बातचीत आदि। पर वह व्यवसायिक आदान-प्रदान के बारे में सूचना एकत्र करेगा, जैसे ई-कॉमर्स ऑर्डर या ऑनलाइन शॉपिंग के बारे में और उसे अपने विज्ञापन संबंधित काम में लगाएगा। फेसबुक ही वाट्सऐेप का मालिक है। भारत सरकार ने इसपर अपनी सहमति नहीं दी और यह सरकार की ओर से सही कदम था। फेसबुक को इसपर पीछे हटना पड़ा है।
सोशल मीडिया कम्पनियां और अन्य डिजिटल ऑनलाइन कॉरपोरेट्स क्या करते हैं? वे अपने प्रयोगकर्ताओं के कुछ व्यक्तिगत सूचनाएं एकत्र करते हैं, जैसे उनकी खरीद की पसंद, उनका लोकेशन आदि और इन सूचनाओं को बड़े कॉरपोरेट घरानों को बेचती हैं और ये कम्पनियां इनका इस्तेमाल ग्राहकों पर विज्ञापनों का बौछार करने व अपना सामान बेचने के लिए करती हैं। इसको करने के लिए वे व्यक्तिगत डाटा को आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (AI) के माध्यम से डाटा ऐनैलिटिक्स इस्तेमाल करके पता लगाते हैं कि किस भौगोलिक क्षेत्र और किस सामाजिक समुदाय अथवा किस आयु वर्ग के लोगों में सबसे बेहतर मार्केटिंग की सम्भावना है। वे ग्राहकों की पसंद और प्रथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने विज्ञापन निर्मित कर सकते हैं। राजनीतिक दल भी ऐसे डाटा को वोटर ऐनेलिटिक्स के वास्ते खरीद सकते हैं।
यद्यपि व्यक्तिगत डाटा बेचना गैरकानूनी है, कम्पनियां इसे काफी चालाकी से कर लेती हैं। वे न्यूनतम खर्च पर सोशल मीडिया कम्पनियों के यहां कुछ विज्ञापन डाल देते हैं। फिर इन विज्ञापनों पर लोगों के फीडबैक देने के नाम पर सोशियल मीडिया कम्पनियां उन्हें इसका संक्षिप्त विवरण दे देते हैं कि किन लोकेशन्स से कितने लोगों न उनके विज्ञापन के पेज को विज़िट किया। यह सच है कि वे व्यक्ति का नाम, पहचान आदि निजी डाटा नहीं देते क्योंकि यह गैरकानूनी होगा, पर वे डाटा का सार दे देते हैं, जो शुद्ध रूप से ‘‘बिज़नेस ट्रैन्सैक्शन” की श्रेणी में आता है। इसमें काफी पैसा है।
सरकार ने भले ही फेसबुक को ना कह दिया, पर सभी अन्य सोशल मीडिया नेटवर्क और ऐप निजी डाटा का सार एकत्र करते और बेचते हैं। सरकार ने अब तक न ही इस संबंध में कोई नीति बनाई है न कोई कानून लाया है ताकि इस प्रथा पर रोक लग सके। पर जनता का सरकार पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि इसकी रोक-थाम हो।
तीसरा मामला है सरकार और गूगल के बीच का। नीति आयोग ने अपनी साइट पर आर्टिफिसियल इंटेलिजेन्स के प्रयोग पर एक डिस्कशन पेपर जारी किया जिसमें उसने अर्टिफिसियल इंटेलिजेन्स पर भारत सरकार की आगामी नीति को रेखांकित किया। नीति आयोग के पेपर का जोर इस बात पर था कि सरकार आर्टिफिसियल इंटेलिजन्स के इस्तेमाल को कैसे नियंत्रित करेगी। अनायास ही पिछले हफ्ते डिजिटल महाशक्ति गूगल ने अपनी आधिकारिक प्रतिक्रिया जाहिर की। यद्यपि गूगल ने सीधे नीति आयोग के पक्ष की आलोचना नहीं की, उसने तर्क प्रस्तुत किये कि सभी कम्पनियों को एक ही डंडे से नहीं हांका जा सकता। उसका मतलब था कि एआई का इस्तेमाल कर रही सभी कम्पनियों या ऐप्स के लिए एक सामान्य नियंत्रक क्रियाविधि नहीं होनी चाहिये, बल्कि अलग-अलग काम के लिए प्रयुक्त ऐप्स के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण होना चाहिये। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार कुछ राजनीतिक रूप से आलोचनात्मक सामग्री देने वाले साइटों को प्रतिबंधित या नियंत्रित कर सकती है पर गूगल जैसे शुद्ध रूप से व्यवसायिक कम्पनियों को बख्श सकती है। खैर, 2 जून को गूगल ने सरकार के आइटी नियमों के विरुद्ध कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है।
पर विडम्बना यह है कि न तो नीति आयोग और न ही गूगल असली सवालों का हल बता रहे हैं। भारतीय जनमानस का परिप्रेक्ष्य देखें तो प्रमुख मुद्दा है कि कैसे आम लोगों को निःशुल्क एआई आधारित सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं? दूसरा मुद्दा है एकाधिकार नियंत्रण का। वैश्विक तौर पर कुछ ही बड़ी डिजिटल मीडिया कम्पनियां, मस्लन माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, ऐप्ल और कुछ अन्य ही एआई आधारित संवाओं पर एकाधिकार कायम किये हुए हैं। यदि ऐसी एकाधिकार (monopoly) कम्पनियां शेयर बाज़ारों व अन्य वित्तीय बाज़ारों में निवेशकों को निवेश संबंधी दिशानिर्देश दें और धनाड्यों से भारी शुल्क लेते तो यह एक बात होती। पर यदि वे मिट्टी, मौसम और जर्मप्लाज़्म डाटा पर भी एकाधिकार कायम कर लें और किसानों को ‘स्मार्ट फारमिंग’(smart farming) संबंधी दिशानिर्देश ऊंचे दाम पर दें तो इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। इसी तरह यदि वे मरीजों के स्वास्थ्य-संबंधी डाटा को फार्मा कम्पनियों को बेचें ताकि वे नई औषधियों और इलाज बाज़ार में ला सकें तो इसे भी अनुमति नहीं मिलनी चाहिये। जनता के हक में डिजिटल कम्पनियों पर नियंत्रण जरूरी है। पर अपनी प्रतिक्रिया नोट में गूगल चुप रहा और यह समझ में आता है; वह अपने लिए लॉबिंग कर रहा था कि उसके लिए उदार और लचीले नियंत्रण के मापदंड हों। खैर, यह एपिसोड मोदी सरकार और टेक कम्पनियों के बीच उभरते विवाद क्षेत्र की ओर इशारा करता है।
प्रगतिशील एक्टिविस्ट इसपर एक सामान्य दृष्टिकोण नहीं अपना सकते, उन्हें केस के मेरिट के हिसाब से चीज़ें तय करनी होगी। एकाधिकार कायम की हुईं डिजिटल कम्पनियां भी दूध की धुली नहीं हैं। उदाहरण के लिए फेसबुक जिस तरह से एक कमजोर निजता नीति लाना चाह रहा था उसका विरोध समस्त लोकतंत्र-पसंद लोगों को करना चाहिये। लोगों का व्यक्तिगत डाटा कॉरपोरेटों द्वारा हथियाने और बेचने के लिए नहीं है। इस मामले में एक्टिविस्ट सरकार से एक उपयुक्त नीति और कानून की भी मांग कर सकते हैं। पर जहां सरकार सोशल मीडिया के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना चाहती है, जैसा कि आईटी नियम 2021 के माध्यम से किया जा रहा है, इसका जमकर विरोध करना चाहिये।
सभी निरंकुश सरकारें सोशल मीडिया की बड़ी कम्पनियों के खिलाफ काम करती हैं।
ट्विटर, फेसबुक और गूगल या यूट्यूब जैसी बड़ी डिजिटल मीडिया कम्पनियों ने आम तौर पर संचार और खास तौर पर राजनीतिक संचार में क्रान्तिकारी बदलाव ला दिया है। आज की तारीख में सोशल और डिजिटल मीडिया की मदद के बिना राजनीति या व्यापक उपभोक्ता सामग्री व्यवसाय हो ही नहीं सकते। विश्व पैमाने पर फेसबुक के 150 करोड़ से अधिक यूज़र हैं और ट्विटर के भी 30 करोड़ एक्टिव यूज़र हैं। जो बाइडेन, शी जिनपिंग और पुतिन, जो विश्व के तीन सबसे शक्तिशाली देशों के राष्ट्रपति हैं, ट्विटर अकाउन्ट होल्डर हैं और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व तुर्की और ब्राजील के मुखिया भी। सभी प्रतिदिन कई ट्वीट करते हैं।
भारत में ही, सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 53 करोड़ वाट्सऐप यूज़र हैं; यह फेसबुक का ऐप है। फिर, 44.8 करोड़ यूट्यूब यूज़र हैं; यह गूगल का है। 41 करोड़ फेसबुक सब्सक्राइबर हैं और 21 करोड़ इंस्टाग्राम यूज़र हैं; यह भी फेसबुक का है। इसके अलावा 1.75 करोड़ ट्विटर पर सक्रिय हैं। कू के भी लगभग 60 लाख यूज़र हैं। यानी पिछले कुछ ही वर्षों में एक शान्तिपूर्ण क्रान्ति हो चुकी है।
सभी सरकारें सोशल व डिजिटल मीडिया से आतंकित रहती हैं। चीनी सरकार ने ट्विटर को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया था पर ट्विटर ने पहले अवमानना की, फिर बाद में आंशिक रूप से समझौता कर लिया। ट्विटर और फेसबुक ने यूएस की सरकारों की अवमानना तब की थी जब उनसे यूएस सरकार के सर्विलियेंस प्रोग्राम प्रिज़्म के लिए निजी संचार के रिकार्ड मांगे गए। सोशल व डिजिटल मीडिया कम्पनियों ने कई बार निरंकुश सरकारों की अवमानना की है, जैसे फिलिपीन्स, इन्डोनेसिया, पाकिस्तान, आरमीनिया की सरकारों की, जिन्होंने उन्हे धमकाने की कोशिश की। अब भारत सरकार भी इसी खेमे में शामिल हो गई है।
वामपंथियों ने हमेशा कहा कि हर रंग की सरकार बड़े कॉरपोरेट्स के जेब में रहती है और उनकी गुलामी करती है। तब यह क्या है कि लगभग सारे टेक-मेजर और प्रमुख सरकारों के बीच युद्ध जारी है? टकराव इतना तीखा कैसे हो जाता है कि सरकार सोशल मीडिया कम्पनी के कार्यालय पर पुलिस भेज देती है और उसे प्रतिबंधित करने की धमकी देती है? वामपंथी इस अंतरविरोध को कैसे समझाएंगे?
इस पर लेखक ने न्यूज़क्लिक के लिए बेंगलुरु के एक उत्साही मार्क्सवादी अध्येता व विचारक पीआरएस मणि से बात की। उन्होंने अंतरविरोध को इस प्रकार समझायाः ‘‘संपूर्ण विश्व और वैश्विक संचार पर पूंजीवाद का कब्जा है। सत्ताधारी वर्ग जो पूंजीवाद के अंतर्गत राज करता है, ‘बुर्जुआ’ वर्ग है। दरअसल, सरकारें बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक नेतृत्व के प्रतिनिधि होतीं हैं। पर मार्क्सवाद ने स्वीकार किया है कि कई बार सत्ताधारी वर्ग के बीच अंतरविरोध होते हैं और इसी वर्ग के कुछ हिस्सों व उनकी राजनीतिक प्रतिनिधि संस्थाओं, यानी सरकारों के बीच भी अंतरविरोध होते हैं। फिर बुर्जुआ वर्ग के संपूर्ण हितों और आंशिक हितों के बीच भी अंतरविरोध होते हैं, बुर्जुआ वर्ग के व्यक्तिगत हितों और वर्ग हितों के बीच या तात्कालिक हितों और दीर्घकालिक हितों के बीच भी अंतरविरोध होते हैं। क्योंकि आम तौर पर सरकार बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व करती है, उसे इन अंतरविरोधों का समाधान करना ही होता है। पर कभी-कभी सरकार का इस वर्ग, उसके किसी हिस्से या फिर किसी व्यक्ति से टकराव हो जाता है, जिसका कारण होता है शासकों या इस वर्ग के किन्ही सदस्यों द्वारा अतिवादी कार्यवाही। लेकिन समग्र वर्ग हित ही सर्वोपरि रहेंगे, तो मोदी जैसे नेता यदि वर्ग हितों से ऊपर उठकर कुछ करना चाहेंगे तो उन्हें अंत में मुंह की खानी पड़ेगी। वर्ग ही हर हाल में सर्वोवरि है, कोई नेता नहीं।’’
तो चलिए हम भी प्रतीक्षा करें और देखें बड़ी टेक कम्पनियों के साथ युद्ध में मोदीजी का क्या हश्र होता हैं।
(लेखक राजनीतिक व अर्थिक मामलों के विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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