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प्रवासी मज़दूरों ने अधिकांश रेल मंत्रियों को चुना, लेकिन सब बेकार गया

इसे विडंबना ही कहेंगे कि ज़्यादातर प्रवासी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से आते हैं, जबकि यहीं से भारी संख्या में सांसद चुनकर केंद्र में भेजे जाते हैं।
प्रवासी मज़दूर
प्रतीकात्मक तस्वीर।

वर्तमान में जारी प्रवासी संकट के मद्देनज़र कोई भी इस विडंबना को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल ये वे क्षेत्र हैं जो सारे भारत में सबसे अधिक श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले क्षेत्र के तौर पर जाने जाते हैं। और मज़े की बात ये भी है कि पिछले 73 वर्षों के दौरान जिन 38 रेल मंत्रियों की नियुक्ति हुई उनमें से आधे मंत्री इन्हीं क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते थे। इसी तरह यदि 1980 और 2010 के बीच के तीन दशकों पर नज़र डालें तो इस सघन आबादी वाले पूर्वी भारत के राजनेताओं का इस मंत्रालय पर एक तरह से पूरी तरह कब्ज़ा था। इतना ही नहीं, बल्कि बड़ी आबादी वाले राज्य होने के चलते इन राज्यों से भारी तादाद में संसद सदस्य भी चुने जाते हैं। हर पांच साल में उत्तर प्रदेश से 80, पश्चिम बंगाल से 42 और बिहार से 40 सांसद चुनकर भेजे जाते हैं। अर्थात जितने भी सांसद चुनकर केंद्र में जाते हैं, उनका तकरीबन एक तिहाई हिस्सा अधिक प्रवास करने वाले इन राज्यों से आता है।

कमलापति त्रिपाठी, एबीए गनी खान चौधरी और जॉर्ज फर्नांडीस से लेकर रामविलास पासवान-नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी-दिनेश त्रिवेदी-मुकुल रॉय की तिकड़ी के रूप में इन क्षेत्रों से आने वाले प्रमुख नेताओं ने नई दिल्ली के भारतीय रेलवे के मुख्यालय – रेल भवन पर अपना दबदबा बनाए रखा है। (लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम और ललित नारायण मिश्र के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं है।)

यह भी सच है कि त्रिपाठी, मिश्रा, फर्नांडीस, चौधरी और बिहार-बंगाल की तिकड़ियों ने अपने-अपने राज्यों में कुछ बड़ी रेल परियोजनाओं की शुरुआत की थी। इनके कार्यकाल में कुछेक नए रेलवे ज़ोन भी बनाए गए और रेलवे ने बड़े पैमाने पर रेल लाइनों के ब्रॉड गेज रूपांतरण को भी अंजाम दिया था, खासकर उत्तर बिहार में। इसके बावजूद दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन प्रवासी मज़दूरों ने इन नेताओं को चुनकर भेजा, आज वही लोग इस संकट की घड़ी में भयानक कष्टों में हैं।

एक समय इस बात को इस रूप में प्रोजेक्ट किया गया था कि यदि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र से लेकर उत्तरी बिहार के मिथिलांचल और सीमांचल इलाक़ों तक रेलवे के बुनियादी ढांचे में बदलाव कर दिया जाता है तो इन "दूर-दराज" के क्षेत्रों में औद्योगिक निवेश की संभावना को अच्छा ख़ासा बल मिलेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में गेज-रूपांतरण का काम वास्तव में पूरा हो चुका है, जिसके चलते अरुणाचल प्रदेश को देश के रेलवे के मानचित्र पर दर्ज किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो सका है। इसने पूर्वी भारत से माल और यात्रियों की आवाजाही के प्रवाह को भी सुचारू बना दिया है।

रेलवे में किए गए इस सुधार के साथ-साथ सड़कों के ज़रिए बेहतर कनेक्टिविटी में निवेश के बावजूद पूंजी निवेश के बजाय इसने मुख्य रूप से देश के कोने-कोने तक यहां के श्रमिकों के जाने को सुलभ बनाने का काम किया है।

किशनगंज का ही उदाहरण ले लें जो कि उत्तर-पूर्वी बिहार का औद्योगिक तौर पर सबसे पिछड़ा शहर है, जो नेपाल और बांग्लादेश की सीमा से सटा भारतीय सीमावर्ती ज़िला है। यहां से आप भारत के क़रीब-क़रीब किसी भी शहर या क़स्बे के लिए सीधी ट्रेन पकड़ सकते हैं। किशनगंज तो मात्र एक उदाहरण भर है। पूर्वी भारत के हर रेलवे स्टेशन से गुजरने वाली रेलगाड़ियां लगभग सालभर ठसाठस भरी रहती हैं, ये हमेशा की तरह श्रमिकों से भरी रहती हैं जो दूर-दराज के औद्योगिक इलाकों और शहरी केंद्रों में काम की तलाश में निकल पड़ते हैं।

इससे पहले ऐसी मान्यता थी कि यदि ट्रेनों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर दी जाए तो इससे यात्रियों के लिए आरक्षित सीटों की सहूलियत हो सकेगी। लेकिन इसने भी सिर्फ भीड़ बढाने में ही मदद की है: समय के साथ-साथ सिर्फ टिकटों की मांग ही बढ़ी है। उपलब्ध डेटा भी इस प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।

जून 2014 में जहां ट्रेनों में सफर का आंकड़ा 858.030 करोड़ लोगों के अपने अब तक के सर्वाधिक स्तर पर पहुंच गया था, वहीँ अप्रैल 2020 में यह रिकॉर्ड -79.20 मिलियन कम पर दर्ज किया गया है, क्योंकि लॉकडाउन ने रेलवे को पूरी तरह से ठप करके रख दिया था, इससे पहले ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला था। इस साल के जनवरी माह में 71.50 करोड़ से अधिक यात्रियों ने (उपनगरीय और मेट्रो ट्रेनों सहित) रेल की सवारी की थी, जो कि व्यापक तौर पर कई दशकों के आम ट्रेंड को ही दर्शाता है। इसलिए, भले ही सड़क यात्रा के बढ़ते विकल्पों और ऐसे लोगों की संख्या में इज़ाफा होता चला गया है जो अपने गंतव्य के लिए हवाई सफर को वरीयता देते हैं, लेकिन आज भी रेलवे के ज़रिए यात्रियों की आवाजाही का क्रम मोटे तौर पर बरक़रार है।

यह पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार के क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। देश के इन हिस्सों में कुछ संसदीय क्षेत्र बेहद प्रतिष्ठित रहे हैं जिनका प्रतिनिधित्व देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्तित्व करते आए हैं।

भौगौलिक दृष्टि से देखें तो पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तर बिहार और उत्तर बंगाल के क्षेत्र मुख्य तौर पर खेती कार्य के लिए अनुकूल रहे हैं और बाढ़ वाले क्षेत्र में पड़ने के कारण यहां पर बाढ़ का ख़तरा बना रहता है। इसके साथ ही ये क्षेत्र देश के प्रमुख खनन-औद्योगिक बेल्टों से भी काफी दूरी पर हैं। इसलिए यहां से पलायन के रुझानों और रेल यात्री यातायात के आंकड़ों के आधार पर ऐसा भी कहा जा सकता है कि रेलवे के बुनियादी ढांचे में किए गए बदलाव से इन घनी आबादी वाले क्षेत्रों के औद्योगिकीकरण का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सका।

हालांकि पहले से बेहतर सिंचाई सुविधाएं, अच्छी उपज वाले बीजों और उर्वरकों तक पहुंच बन जाने के साथ-साथ बिजली उत्पादन में बढ़ोत्तरी की वजह से इस क्षेत्र की कृषि उत्पादकता पहले से बेहतर हुई है, लेकिन औद्योगिक मोर्चे पर दशा वैसी ही ख़राब बनी हुई है जैसा कि 20वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों के दौरान देखने को मिलता था। यह हाल तब हैं जब इस इलाक़े में कई प्रधानमंत्रियों और अन्य वीआईपी सांसदों जैसे कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अन्य लोगों ने अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में कुछ औद्योगिक इकाइयों को स्थापित कराया है।

अब चूंकि इस क्षेत्र में कृषि क्षेत्र के काम से सम्बद्ध श्रमिकों की संख्या यहां की ज़रूरत से अधिक होने लगी थी, इसलिए इस क्षेत्र से पहले-पहल पलायन करने वाली श्रम-शक्ति खेतिहर मज़दूरों की ही थी। उन्होंने पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों का रुख किया, जिन्होंने 1970 के दशक की शुरुआत से ही हरित क्रांति प्रोजेक्ट को अपना लिया था।

इसके बाद जैसे-जैसे सड़क और रेलवे नेटवर्क में सुधार हुए तो उसने बाकी के अन्य श्रेणी के श्रमिकों के पलायन की इबारत लिखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इन मज़दूरों की मेहनत के पसीने ने शहरियों की क़िस्मत को संवारने में अमूल्य योगदान दिया है। जैसे उदाहरण के लिए, बिजली उत्पादित करने वाले कारखानों के निर्माण में ये प्रवासी श्रमिक, औद्योगिक मजदूरों के रूप शामिल थे। राष्ट्रीय थर्मल पावर कॉरपोरेशन के इन्फ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने का सवाल हो या अन्य बिजली संयंत्रों के निर्माण का काम, इन सबके पीछे अगर इन प्रवासी श्रमिकों की भूमिका नहीं थी तो फिर किसकी थी?

2001 में प्रकाशित जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें, जो हमें भारत में प्रवास के रुझानों के बारे में जानकारी देते हैं। 2001 में जोकि करीब 20 साल पहले की बात है उसके आंकड़ों पर नज़र दौडाने पर हम पाते हैं कि बाहर से राज्य में आने वालों की सूची में 23.8 लाख प्रवासियों के साथ महाराष्ट्र का नंबर सबसे ऊपर था, इसके बाद दिल्ली (17.6 लाख), गुजरात (6.8 लाख) और हरियाणा (6.7 लाख) थे। यहां तक कि उस समय भी उत्तर प्रदेश से (26.9 लाख) और बिहार से (17.2 लाख) की संख्या के साथ ये दो ऐसे राज्य थे, जहां से सबसे अधिक संख्या में लोग पलायन कर रहे थे। इसमें यदि एक ब्यौरा और जोड़ दें कि 1991-2001 के दौरान अकेले ग्रेटर मुंबई क्षेत्र ने लगभग 24.9 लाख प्रवासियों को अपनी ओर आकर्षित किया था। इसलिए ऐसा हो ही नहीं सकता कि भारतीय प्रशासन को, वो चाहे केंद्र हो या राज्य, उनको अपने क्षेत्रों के विकास में इन प्रवासी मज़दूरों की बड़ी भूमिका के बारे में कोई ख़बर ही न हो या उनकी वास्तविक जीवन स्थितियों का उन्हें अंदाजा न हो।

इस बात को भी याद रखा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक दृष्टि से प्रवास की घटना भारत में कोई नई परिघटना नहीं है। स्वतंत्र भारत में श्रमिकों का पलायन स्वाभाविक तौर पर एक बेहद भिन्न परिघटना है जो कि 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20 वीं शताब्दी में बिहार के भोजपुर क्षेत्र और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों से कोलकाता और झारखंड तक हुई थी। आज़ादी से पहले के दौर में भी ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों की एक बड़ी संख्या विदेशों में ले जाई गई थी। ब्रिटिश शासकों ने गिरमिटिया मज़दूरों के तौर पर काम करने के लिए लाखों मज़दूरों को दक्षिण अफ्रीका, कैरेबियाई और हिंद महासागर के अन्य द्वीपों, जैसे मॉरीशस और फिजी में ले जाकर बसाया था।

इस संदर्भ में 2011 की जनगणना पर विचार करें। क़रीब एक दशक पुरानी हो चुकी इस रिपोर्ट के अनुसार "भारत के अन्य राज्यों के प्रवासियों" की एकल श्रेणी में 4,23,41,703 या 4.23 करोड़ लोग शामिल हैं, जो कि देश की कुल प्रवासी आबादी का 13.8% है।

लेकिन इसके बाजवूद, जैसे-जैसे घटनाएं सामने आ रही हैं, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि 24 मार्च के प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन की घोषणा से पहले तक नीति-निर्माताओं में से किसी ने भी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि जिन लाखों मज़दूरों ने भारत के हर नुक्कड़ कोनों को अपने हाथों से निर्मित किया है, उन्हें ही उन्हीं ट्रेन की पटरियों पर पैदल ही घर वापसी के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जिसने उन्हें कभी उनके गांव देहातों से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया था।

इनमें से कुछ प्रवासियों ने पुलिस की ज़्यादती और बर्बरता से बचने और विभिन्न राज्य सरकारों की ओर से अपनी राज्य की सीमाओं पर लगाए गए प्रतिबंधों से बचने के लिए इन रेल मार्गों को चुना। किसी तरह से अपने अपने घरों तक पहुंचने की जद्दोजहद में लगे इन मज़दूरों में से कुछ को दुखद घटनाओं से दो-चार होना पड़ा है। लॉकडाउन के इन डेढ़ महीनों के दौरान सड़कों और रेलवे की पटरियों पर ऐसी कई दुर्घटनाए हो चुकी हैं जिनमें कई लोगों को अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ा है।

8 मई की सुबह महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मध्य प्रदेश के 16 मज़दूरों के ट्रेन से कटने की घटना ने पूरे देश को सदमे में डाल दिया था। हालांकि ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं है जो इस घटना पर मीडिया की ओर से की जा रही रिपोर्टिंग पर यकीन करते हुए जले पर नमक छिडकने का काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि ये पीड़ित मज़दूर लोग थककर पटरी पर ही टांग पसारकर बैठ गए होंगे और थकान के मारे उन्हें झपकी लग गई होगी। लेकिन चूंकि इस घटना ने राज्य सरकार और केंद्र दोनों को ही कठघरे में ला खड़ा कर दिया है, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि इस घटना के पीछे की सच्चाई शायद ही कभी जानने को मिल सके।

रेलवे ट्रैक पर बिखरे खून ने लॉकडाउन के साथ-साथ भारत के औद्योगिकीकरण के दुखद पहलुओं को भी बेपर्दा करके रख दिया है। असल में इन 20 मज़दूरों (इनमें से चार मजदूर बच गए हैं) का समूह जालना के किसी स्टील प्लांट में काम करता था। यदि आप सरकारी नज़रिए से भी सारे घटनाक्रम पर नज़र डालते हैं तो इसका दुःखद पहलू ये है कि जो रेलगाड़ियां इन मज़दूरों के शवों को इनके घरों तक छोड़ने के लिए इस्तेमाल में लाई गईं, वही रेलगाड़ियां उन्हें उनके घरों तक सकुशल पहुंचाने के लिए इस्तेमाल में लाई जा सकती थीं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Migrant Workers Elected Most Railway Ministers, but in Vain

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