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आधुनिकता का मतलब यह नहीं कि हिजाब पहनने या ना पहनने को लेकर नियम बनाया जाए!

हिजाब पहनना ग़लत है, ऐसे कहने वालों को आधुनिकता का पाठ फिर से पढ़ना चाहिए। 
Hijab

कोई क्या पहनता है? क्या खाता है? इस पर फैसला करने का अधिकार ना समाज को मिला है। ना धर्म को मिला है। ना जाति को मिला है। ना किसी संस्था को मिला है। भारत का संविधान कहता है कि कोई क्या पहनता है और क्या खाता है? जैसे सवालों का जवाब व्यक्ति का निजी अधिकार है। निजता के अधिकार के तहत संविधान के अनुच्छेद 21 में गरिमा पूर्ण जीवन जीने के अधिकार के तौर पर शामिल है। 

इसलिए कर्नाटक में हिजाब को लेकर जो बहस छिड़ी है, उस बहस में हिजाब पहनने और ना पहनने का फैसला करने का अधिकार ना हमें मिला है, ना आपको मिला है, ना ही हिंदू धर्म को मिला है और ना ही मुस्लिम धर्म को मिला है। यह अधिकार लड़की और औरत का है कि वह अपने पहनावे को लेकर क्या फैसला करती हैं? 

अधिकारों के साथ सबसे मुश्किल भरी बात यह है कि केवल किताब में लिख देने से यह अधिकार किसी को मिल नहीं जाते है। केवल सिद्धांत गढ़ देने से किसी को हासिल नहीं हो जाते हैं।

अधिकार चूंकि व्यक्ति से जुड़े होते हैं। व्यक्ति समाज का अंग होता है। समाज की प्रथाएं मान्यताएं परंपराएं व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर की बात होती है। व्यक्ति के बिना इजाजत ही उसे रच गढ़ रही होती है। इसलिए अधिकार इस्तेमाल करने से पहले व्यक्ति का सशक्त होना जरूरी है। अंग्रेजी में कहें तो एंपावरमेंट होना जरूरी है। जो सशक्त नहीं होता है, वह अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर पाता है। जब तक कोई जागरूकता और आर्थिक हैसियत के धरातल आत्मनिर्भर नहीं बनता तब तक वह सशक्त नहीं हो पाता है। इस आधार पर मुस्लिम औरतों की हिजाब पहनने और ना पहनने से ज्यादा बड़ा सवाल उनका सशक्त होना है। समाज सरकार और राज्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी हिजाब पहनने और ना पहनने पर विचार करना नहीं बल्कि मुस्लिम औरतों को सशक्त करना है।

अब अगर मुस्लिम औरतें सशक्त भी हो जा रही हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि मुस्लिम औरतें हिजाब पहनना छोड़ देना चाहिए।अधिकारों का इस्तेमाल करने का मतलब यह नहीं है कि किसी को निर्देश और दिया जाए कि कि वह क्या पहने? यह नहीं जो प्रचलित है कि उसे ही अपना लिया जाए।

अगर पहनावे के संदर्भ में देखा जाए तो अधिकारों का इस्तेमाल करने का मतलब यह है कि किसी के पास चुनने की स्वतंत्रता हो। चुनने के वक्त ऐसी बाधाएं ना हो कि उसका चुनना प्रभावित करें। बिना किसी दबाव और बाधा के जब चुनना संभव हो पाए तब यह कहा जाएगा कि उसने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया। ऐसे में अगर कोई मुस्लिम औरत चाहती है कि वह हिजाब ना पहने तो वह ना पहने। उसे पहनने के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता है। अगर मुस्लिम औरत चाहती है कि वह हिजाब पहने तो हिजाब ना पहनने से जुड़ा जैसा मर्जी वैसा तर्क हो, वह कोई मायने रखता। 

मुस्लिम समाज के भीतर इसके उदाहरण तो है ही कि सामाजिक मान्यताओं और प्रथाओं की वजह से ढेर सारी औरतों के लिए हिजाब पहनना सामान्य सी बात है। लेकिन इसके साथ मुस्लिम समुदाय के भीतर वैसी औरतें भी हिजाब पहनती हैं जो पढ़ी लिखी हैं, नई तकनीक का इस्तेमाल करती हैं, भारत और भारत से बाहर दुनिया के विकसित मुल्कों में अच्छे खासे पद पर मौजूद हैं, जिन पर हिजाब पहनने का कोई दबाव नहीं होता। लेकिन फिर भी वह हिजाब पहनती है। यह उनका चुनाव है। 

समाज और संस्कृति के जानकार इस तरह के चुनाव को दो तरह से देखते हैं - पहला यह कि पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर के एक तरह का अलगाव का भाव है। उसके धर्म को लेकर के कई तरह के नकारात्मक प्रचार हैं। तो पढ़े लिखे नौजवान अपने धर्म को लेकर नकारात्मक प्रचार को खारिज करने के लिए अपनी वैसी धार्मिक अभिव्यक्ति को नहीं छोड़ते जिससे दूसरों का नुकसान न होता हो। ऐसा दिखाने की कोशिश में कि उन्हें अपने मजहब पर पूरा भरोसा है कई सशक्त मुस्लिम मर्द कुर्ता पजामा पहनते हैं तो कई सशक्त मुस्लिम महिलाएं हिजाब ओढ़ती है।दूसरा यह कि ढेर सारे समाजों में पढ़े-लिखे नौजवानों की तरफ से यह बगावत की जा रही है कि पूरी दुनिया अंग्रेजों की संस्कृति की गुलाम बनती जा रही है। हमें पता नहीं चलता है लेकिन हमारा खाना पीना, ओढ़ना बिछौना, भाषा, आदत, व्यवहार, पहनावा जैसे तमाम विषय अंग्रेजों की नकल होते हैं। हम अपनी विशिष्ट संस्कृति को पूरी तरह से छोड़कर अंग्रेजों की नकल बनते जा रहे हैं। दुनिया की सभी संस्कृति से सीखना चाहिए। उसे अपनाना चाहिए।लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी विशिष्टता को भी नकार दे। आधुनिकता का आधार तर्क है। इसलिए आधुनिक बनने का मतलब यह नहीं कि हम तर्क करने की बजाय नकल करें। अपनी सांस्कृतिक विरासत में मौजूद खूबियों और विशेषताओं को छोड़कर दुनिया के प्रचलन और एकरूपता के गुलाम बनाते जाए। इसलिए कई पढ़े-लिखे नौजवान बगावती अंदाज में जींस पैंट की जगह कुर्ता पैजामा पहनते हैं। गमछा डालते हैं। यह बगावती भाव मुस्लिम समाज के भीतर भी है।

भारत के भीतर बहुसंख्यक वाद कट्टरता के हद तक हावी हो चुका है। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक के लिए उसका मजहब उसका आश्रय स्थल भी बन जाता है। जहां पर वह मनोवैज्ञानिक किस्म की मजबूती हासिल करता है। क्रूर किस्म का बहुसंख्यकवाद कभी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए ऐसा माहौल नहीं पैदा करता जिस माहौल के भीतर रहकर पहचान से जुड़ी हर तरह की अभिव्यक्तियों की शिनाख्त की जाए। क्रूर बहुसंख्यक वाद का माहौल बहुसंख्यकों को तो इंसानी धरातल से काटता ही है साथ में अल्पसंख्यकों को भी धर्म से भी तार्किक किस्म की दूरी बनाने का मौका नहीं देता। मौजूदा भारत की यह सबसे बड़ी परेशानी है। यही सबसे बड़ी परेशानी हिंदुत्व की पहचान के आधार पर राजनीति करने वाले भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा हथियार है। 

इसी हथियार के सहारे उत्तर भारत के चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के तटीय इलाके से ऐसे मामले को उछालने में सफल हो जाती है जो पूरे भारत को उद्वेलित कर दे। लोग भी गलती कर बैठते हैं। सूक्ष्मता से घटना का विश्लेषण नहीं कर पाते। जय श्री राम को अपमानित करते हुए गुंडों की झुंड हिजाब पहने मुस्लिम लड़की को डराती है तो यह कट्टरता और आतंक का उदाहरण हुआ। वहीं पर मुस्लिम लड़की जब अल्लाह हू अकबर कहते हुए झुंड का प्रतिकार करती है तो यह धर्म से मिले साहस का उदाहरण हुआ। गमछा पहने नौजवानों की झुंड ने अपराध किया था तो लड़की ने अपराध से बचने का अपना तरीका निकाला था। क्रिया और प्रतिक्रिया को अलग अलग तरीके से देखा जाना चाहिए था। लेकिन फिर भी लोगों ने दोनों को एक तराजू में रखकर खुद को उसी जाल में फंसा दिया जिस जाल को भाजपा ने लोगों पर फेंका था।

इसके बाद चर्चा हिजाब पहनने और ना पहनने पर छिड़ गई। जब भी चर्चा का बिंदु केवल यह होना चाहिए था कि क्या जो हिजाब पहनकर आएं उन्हें पढ़ने से रोकना चाहिए? अगर इस बिंदु से सोचा जाता तो पढ़ाई और हिजाब के बीच के रिश्ते पर सोचा जाता। यह बात समझ में आती कि हिजाब और पढ़ाई-लिखाई के बीच कोई संबंध नहीं है। ऐसा कतई नहीं है कि जो हिजाब पहनकर आता है वह ठीक से पढ़ नहीं पाता है। स्कूल और कॉलेज में टीचर उसको ढंग से पढ़ा नहीं पाते है। हिजाब पढ़ने में किसी भी तरह की बाधा नहीं पैदा करता है। इसलिए पढ़ाई को रोकने को लेकर के हिजाब पहनने और ना पहनने पर बात करना पूरी तरह से गलत है। भारत जैसे समाज में औरतों का पढ़ना जरूरी है। अगर मुस्लिम समुदाय की औरतें हिजाब पहनकर घर से बाहर निकलने की समाज से इजाजत हासिल कर लेती हैं तो उनका हिसाब पहन कर घर से बाहर निकलना जरूरी है। जब वाह पड़ेगी तब सशक्त होंगी। सशक्त होंगी तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनेंगी। जब ऐसा होगा तो वह खुद इसका चुनाव कर लेंगे उन्हें क्या पहनना चाहिए? मतलब यह कि अगर किसी भी धर्म के भीतर थोपी गई प्रथाएं हैं तो वह तभी बाहर निकलेंगे जब पढ़ने दिया जाएगा। पढ़ना और जागरूक होना थोपी गई प्रथाओं को हटाने का सबसे सशक्त तरीका है। इसलिए ऐसा तो कभी नहीं होना चाहिए कि हिजाब पहनने की वजह से लड़कियों की पढ़ाई लिखाई रोकी जाए।

जो लोग आधुनिकता के आधार पर हिजाब को खारिज कर रहे हैं वह ढंग से आधुनिकता का मतलब नहीं समझ पा रहे।आधुनिकता का मतलब अगर तार्किक जीवन पद्धति से है तो कोई भी तर्क यह नहीं कहता कि वैसा पहनावा पहनने से किसी को रोका जाए जिससे दूसरों को कोई नुकसान नहीं होता है। पहनावे को लेकर आधुनिकता का तर्क केवल यहीं तक सीमित है कि व्यक्ति को जो मर्जी सो पहनने की स्वतंत्रता हो और पहनावा ऐसा ना हो कि दूसरों को नुकसान पहुंचे। आधुनिकता का मतलब एकरूपता का अनुकरण नहीं। पश्चिम का अनुकरण नहीं। इसलिए हिजाब पहनना कहीं से भी गैर आधुनिक बात नहीं है। 

चलते चलते यूनिफॉर्म को ले कर बात कर लेते हैं। सबसे पहली बात कि कुछ जगहों पर यूनिफॉर्म की सख्त जरूरत होती है। काम की प्रकृति ही ऐसी होती है कि यूनिफार्म के बिना काम नहीं चल सकता। जैसे सेना में यूनिफॉर्म की अहमियत के बारे में सोचा जाए तो काम की प्रकृति की वजह से एक तरह के ड्रेस कोड का होना जरूरी है। लेकिन आम जन जीवन में और स्कूलों में तो किसी भी तरह के ड्रेस कोड की जरूरत नहीं है। लेकिन फिर भी ड्रेस कोड का चलन चला है। जब हम किसी तरह के यूनिफॉर्म पर विचार करते हैं तो जाने अनजाने में हम उसी संस्कृति के पहनावे को यूनिफॉर्म के तौर पर अपनाते हैं जिसकी समाज में सबसे मजबूत मौजूदगी होती है। जिस संस्कृति की औकात सबसे मजबूत होती है। पूरी दुनिया में पश्चिम की संस्कृति की औकात सबसे मजबूत है। इसलिए भारत के आदिवासी इलाकों में स्कूलों में टाई बेल्ट पहनने का चलन है। जिसका कोई औचित्य नहीं। 

कर्नाटक की एक प्रोफेसर ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा है। उस लेख में उन्होंने बहुत ही मारके की बात की है। उनका कहना है कि विविधता केवल भारत की आत्मा नहीं है बल्कि इस दुनिया को अपनाने के लिए विविधता को अपनाना जरूरी है। एकरूपता के सहारे इंसान नहीं तैयार होते हैं। इंसान तभी तैयार होते हैं जब विविधता का महत्व समझ पाते है। जब वह इस बात को समझ पाते हैं कि सबकी अलग-अलग पृष्ठभूमिया है। सबके सोचने का अलग-अलग नजरिया है। उन सबके बीच तभी पुल बन पाएगा जब उनके नजरिए का सम्मान हो पाएगा। हिजाब और पहनावा तो बहुत स्थूल किस्म की बहस है। मैं शिक्षक हूं। मैं जानती हूं कि मेरे क्लास में बैठा हर एक बच्चे की आदतें अलग हैं। वह अलग-अलग परिवारों से आते हैं। कई तरह की जातियों और धर्मों की सामाजिक परंपराओं में पले बढ़े होते हैं। उनकी पसंद और नापसंद अलग अलग है। जब मैं उन्हें सिखाती हूं तो मैं यह जानती हूं कि मेरी कही गई बात का सब अपनी जिंदगी से अलग-अलग अनुवाद कर रहे हैं। उसे अलग तरीके से महसूस करने के बाद सब के साथ उसे जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में मेरी क्लास में हिजाब पहनकर कर आए तो मुझे कोई दिक्कत नहीं। मेरी असली चिंता तो इस बात की है कि वह अपनी जिंदगी में अनेकता और विविधता का सम्मान समझ जाए।

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