मोदी सरकार का आर्थिक प्रोत्साहन: सरकारी फ़ंड से निकला सिर्फ़ 10 प्रतिशत, जनता तक पहुँचा सिर्फ़ 4 प्रतिशत
24 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने के बाद, मोदी सरकार ने कई घोषणाएं कीं हैं, जो महामारी के फैलने और उसके परिणामस्वरूप हुए लॉकडाउन के कारण भारी कठिनाईयों का सामना कर रहे लोगों को राहत और कल्याणकारी उपायों के रूप में सामने आईं हैं। इन पैकेजों की कुल राशि 20.97 लाख करोड़ रुपये हैं, जो कि जीडीपी के लगभग 10 प्रतिशत के बराबर है और इसे एक ऐतिहासिक आर्थिक प्रोत्साहन पेकेज़ के रूप में घोषित किया गया है।
हालांकि, दिल्ली स्थित थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी’ (CBGA) द्वारा किए गए एक विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि इस घोषित 10 प्रतिशत पैकेज का देश राजकोष पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है, खासकर जो हिस्सा सरकारी धन से आता है। इसका घोषित राशि का बड़ा हिस्सा बैंकों द्वारा दिए जाने वाले सभी ऋण, विभिन्न दरों में कटौती और रिज़र्व बैंक द्वारा उठाए जाने वाले अन्य मौद्रिक नीतिगत कदम से आता हैं। अगर आप ध्यान दें तो, सरकार ने वास्तव में अपने फंड में से इस पैकेज के लिए जीडीपी का मात्र 1 प्रतिशत दिया है।
इसे अगर दूसरे तरीके से देखें तो, केवल लगभग 2.21 लाख करोड़ रुपये (या कुल धन का 10 प्रतिशत) का राजकोषीय खजाने पर इसका प्रभाव पड़ेगा जबकि बाकी 18.76 लाख करोड़ रुपये सभी किस्म की बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से दिए जाएंगे। [इसके लिए नीचे चार्ट देखें]
सीबीजीए अध्ययन के इस निराशाजनक निष्कर्ष पर पहुंचने का पता विशेषज्ञों द्वारा किए गए विभिन्न विश्लेषणों से लगता है। यह एक अन्य चिंताजनक आयाम का भी खुलासा करता है: वह यह कि जो कुल राशि सीधे लोगों के पास जाएगी, वह के अनुमान के अनुसार मात्र 76,500 करोड़ रुपये होगी। यानि सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.38 प्रतिशत और कुल पैकेज का सिर्फ 4 प्रतिशत। जनता को सीधे राहत देने वाले इस पेकेज़ में सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा दी जा रही मुफ्त खाद्य सामाग्री भी शामिल हैं, और जन धन खाताधारकों को प्रति माह 500 रुपये का प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण आदि भी इसका ही हिस्सा है।
कई अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर लगातार जोर दिया है कि लोगों के हाथों में सीधे धन देने से बड़े पैमाने पर न केवल संकट थम जाएगा बल्कि अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। इसलिए, जब तक लोगों के हाथों में खरीदने की ताक़त देकर बाज़ार में मांग पैदा नहीं की जाएगी, तब तक उद्योग को कितना भी कर्ज़ बांट लो उससे उत्पादन या रोजगार बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी। उद्योगपति चाहे बड़े हों या छोटे – क्यों अपना उत्पादन शुरू करेंगे या उसमें बढ़ोतरी करेंगे जब उनके उत्पादों को खरीदने वाला कोई खरीदार ही नहीं होगा?
हालाँकि, मोदी सरकार ने इस बेकार की कवायद को अभी भी जारी रखा हुआ है, सह तो यह है कि इन पैकेजों के खोखलेपन ने हुकूमत की बेअसर नीतियों का खुलासा कर दिया है।
इस बारे में पूछे जाने पर कि एमएसएमई क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रुपये का क्रेडिट वह भी बिना किसी कोलेटरल के उपलब्ध कराना, ऐसे नीतिगत उपायों का वित्तीय व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? सीबीजीए के कार्यकारी निदेशक सुब्रत दास ने न्यूज़क्लिक को बताया कि ऐसे मामलों में वित्तीय प्रभाव केवल तभी पड़ेगा जब लेनदार ऋण चुकाने में चूक करेगा।
“यहाँ बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने कुल मिलाकर 3 लाख करोड़ रुपये तक का उधार का प्रावधान किया है। इन ऋणों की अदायगी के लिए 12 महीने की मोहलत के साथ-साथ चार साल का समय मिलेगा। हालांकि, कोलाट्रल-मुक्त ऋणों के हस्तक्षेप का वित्तीय प्रभाव कम होगा (मुक़ाबले वृद्धिशील ऋणों की कुल राशि 3 लाख करोड़ रुपये के), क्योंकि यह उस राशि पर निर्भर करेगा जिसके द्वारा ऋणों के पुनर्भुगतान के मामले में उद्यम विफल हो जाते हैं। इसके अलावा, चूंकि कार्यकाल चार वर्ष का है, इसलिए राजकोषीय प्रभाव भी बहुत बाद में आएगा; उन्होंने यह भी कहा कि वित्त वर्ष 2020-21 में सरकार के राजकोषीय अंकगणित पर इसका तत्काल कोई प्रभाव नहीं है।
कर्ज़ अदायगी में चूक की दरों के पिछले रिकॉर्ड के आधार पर लगाए गए अनुमानों के अनुसार, सीबीजीए ने 20.97 लाख करोड़ रुपये के कुल राजकोषीय प्रभाव का आकलन किया है, जो 1.94 से 2.21 लाख करोड़ रुपये के बीच बैठता है। यह सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1 प्रतिशत और कुल पैकेज का मात्र 10 प्रतिशत ही बैठता है। [विवरण के लिए नीचे दी गई तालिका देखें]
जैसा कि देखा जा सकता है, भारतीय रिज़र्व बैंक की पहल पर शुरू किए गए सभी उपायों में, केवल 8 लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि को शून्य राजकोषीय प्रभाव के तौर पर आँका गया है। दूसरी ओर, प्रवासी श्रमिकों को 5 किलो खाद्यान्न के मुफ्त प्रावधान (लगभग 3500 करोड़ रुपये की लागत) या ग्रामीण नौकरी गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) के लिए 40,000 करोड़ रुपये का ताजा आवंटन जैसे उपायों को राजकोषीय प्रावधानों के रूप में चिह्नित किया जाता है क्योंकि यह धन सीधे सरकारी खाते से जाएगा।
शोधकर्ताओं के एक समूह द्वारा अपने एक वैश्विक अध्ययन में 168 देशों की सरकारों द्वारा दिए गए आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों को इकट्ठा कर उनका विश्लेषण किया है। इसका अद्यतन डाटा (वेबसाइट पर उपलब्ध है) भारत के राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज़ को सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3.8 प्रतिशत पर आँकता है। लेकिन इसका बढ़ा हुआ भाग मौद्रिक उपायों (जैसे कि आसान ऋण) और राजकोषीय उपायों और कुछ राज्य सरकार की योजनाओं को शामिल करने के कारण है जो इस पैकेज़ का स्थायी ग्रे ज़ोन है। जैसा कि इससे लग सकता है, कि भारत अभी भी जापान, अमेरिका, स्पेन, फ्रांस, ब्राजील आदि जैसे कई अन्य देशों से काफी नीचे के रैंक पर है। विशेष रूप से, इनमें से अधिकांश देशों में ऐसे श्रमिकों को जिनकी कोई आय नहीं है या फिर बेरोजगार हैं या उनकी नौकरियां छूट गई है, को प्रत्यक्ष आय सहायता मिलना शामिल है, खासतौर पर महामारी के बाद प्रशासनिक उपाय जैसे लॉकडाउन के बाद ये राहतें दी गई हैं। भारत हालांकि जन धन खाताधारकों को हर महीने 500 रुपये के हस्तांतरण के अलावा इस तरह की कोई भी सुरक्षात्मक आय सहायता देने में विफल रहा है।
सीबीजीए का विश्लेषण, इस बात की तरफदारी करता है कि यदि भारत के दुखी और आर्थिक रूप से ध्वस्त लोगों को कुछ राहत दी जानी है तो इसके लिए अधिक से अधिक राजकोषीय खर्च करना होगा, और ऐसा इसलिए भी करना होगा ताकि भविष्य में अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की संभावनाओं को बढ़ाया जा सके।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Modi Government’s Economic Stimulus: Only 10% from Government Funds, Only 4% in People’s Hands
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