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'अमृतकाल' में ग़रीबों को मिला बेरोज़गारी और तंगहाली का विष

जान देने वाले लोग उसी वर्ग से हैं जिसपर नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन की मार सबसे ज़्यादा पड़ी। भाजपा सरकार की आर्थिक कुनीतियों ने अमीरों को तो और अमीर बनाया, लेकिन आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

देश की अधिकांश जनता के लिए आर्थिक संकट भले ही जानलेवा हो चुका हो, लेकिन सरकार ने इस दौर को 'अमृतकाल' नाम दिया है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि पिछले आठ साल में आत्महत्या करने वाले दिहाड़ी मज़दूरों की संख्या लगभग तीन गुना हो गई है। 2021 में भारत में रिकॉर्ड 1 लाख 64 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की। यह संख्या 1967 के बाद सबसे ज़्यादा है। इसमें एक चौथाई संख्या दिहाड़ी मजदूरों की है और दो तिहाई लोग ऐसे हैं जो सालाना एक लाख रुपये या इससे कम कमा रहे थे। इसके अलावा, आत्महत्या करने वालों में ग़रीबों, मज़दूरों और छोटे व्यापारियों की संख्या सबसे ज़्यादा है। आत्महत्या के इन मामलों में सबसे प्रमुख कारण आर्थिक है। यह कैसा अमृतकाल है जिसमें लोग तंगहाली के चलते जान दे रहे हैं!

अगर आप आर्थिक आंकड़ों पर ग़ौर करें तो ये जान देने वाले लोग उसी वर्ग से हैं जिसपर नोटबंदी, जीएसटी और तालाबंदी की मार सबसे ज़्यादा पड़ी। भाजपा सरकार की आर्थिक कुनीतियों ने अमीरों को तो और अमीर बनाया, लेकिन आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। सरकार निर्मित महंगाई और बेरोज़गारी आम जनता पर क़हर बनकर टूट रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाजपा की कॉरपोरेट-परस्त नीतियां ग़रीबों की जान ले रही हैं।

देश में व्याप्त आर्थिक विसंगति और ग़ैर-बराबरी कितनी तेज़ी से बढ़ रही है, इसका अंदाज़ा सिर्फ़ दो उदाहरणों से लगाया जा सकता है। पहला, 2020 से 2021 के बीच देश में 23 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे चले गए। लेकिन इस दौरान एक पूंजीपति ने अमीरी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। 2014 में गौतम अडानी की कुल संपत्ति 40,000 करोड़ रुपये थी जो आज बढ़कर लगभग 11 लाख करोड़ पहुंच गई है। ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के मुताबिक़, इस साल यानी जनवरी से अगस्त 2022 तक अडानी की संपत्ति में 60.9 अरब डॉलर का इज़ाफ़ा हुआ है। 31 अगस्त को बताया गया कि पिछले 24 घंटों में अडानी की संपत्ति 42,000 करोड़ रुपये बढ़ गई। एक तरफ आम लोग आत्महत्या कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश का संसाधन एक व्यक्ति के पास इकट्ठा हो रहा है।

नोटबंदी के बाद से ही देश में छोटे और मझोले व्यापार पूरी तरह चरमरा गए हैं। निम्न-मध्यवर्गीय कामगार जनता के आय के साधन एक-एक कर छिन रहे हैं। आम जनता के पास न रोज़ी-रोज़गार है और न भविष्य में कोई आशा है। ऊपर से आसमान छू रही महंगाई और 45 साल की चरम बेरोज़गारी में लोगों के पास जीवनयापन का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। आत्महत्या कर रहे मज़दूरों और ग़रीबों की संख्या इस बात की तस्दीक करती है कि देश में आर्थिक संकट लोगों की जान ले रहा है और निकट भविष्य में इसे लेकर कोई उपाय नज़र नहीं आता।

दूसरी तरफ जो पढ़ी-लिखी कुशल कामगार आबादी है, उसकी दशा और भी ख़राब है। सरकार ने संसद में बताया कि पिछले आठ सालों में 22.05 करोड़ युवाओं ने नौकरी के लिए फॉर्म भरे, जिनमें से मात्र 7 लाख को नौकरी मिल पाई। यानी 22 करोड़ में से 21 करोड़ 93 लाख युवा न चाहते हुए भी बेरोज़गार हैं। इसी से जुड़ा़ दूसरा आंकड़ा सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) का है जो कहता है कि 45 फ़ीसदी लोगों ने निराश होकर काम की तलाश ही छोड़ दी है। इस आंकड़े से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि देश में कैसी भयानक बेरोज़गारी और आम जनता में कितनी निराशा है।

आज सेना से लेकर बैंक, रेलवे और सभी सरकारी विभागों में ठेका प्रथा लागू करने का अभियान चल रहा है। लोगों से सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा छीनी जा रही है। निजीकरण का जिन्न भाजपा सरकार के सिर ऐसा चढ़ा है कि इसके ख़तरे के प्रति आगाह करने वाले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को अपनी सलाह 24 घंटे में वापस लेनी पड़ी जिसमें उसने कहा था कि तेज़ी से निजीकरण के परिणाम ख़तरनाक हो सकते हैं। सरकार संस्थाओं के मुंह पर ताला लगा रही है, लेकिन निजीकरण से पीछे हटने को तैयार नहीं है। देश की संस्थाएं समझ रही हैं कि निजीकरण के चलते देश का भविष्य बेरोज़गारी और महंगाई के दलदल में फंसने जा रहा है लेकिन निरंकुश सरकार संस्थाओं को बोलने और सलाह देने तक से रोक रही है।

आज देश 45 साल की रिकॉर्ड बेरोज़गारी का सामना कर रहा है। उस पर महंगाई ऐतिहासिक रूप से बढ़ गई है जो आरबीआई के मानकों और नियंत्रण से बाहर है। इस वक्त देश में पहली ऐसी सरकार है जिसने रोज़गार देने की बात तो दूर, पहले से मौजूद रोज़गार या तो बंद कर दिए या फिर अपनी नीतियों के ज़रिए छीन लिए। इसी का परिणाम है कि दो करोड़ रोज़गार सालाना देने का वादा करके सत्ता में आई भाजपा सरकार 8 साल में 8 लाख नौकरी भी नहीं दे सकी है।

असली सवाल है कि ऐसी नौबत क्यों आई? क्योंकि देश ज़बरदस्त तरीक़े से और लगातार आर्थिक कुप्रबंन की मार झेल रहा है, जिसके चलते रोज़गार बचा ही नहीं है। एक तरफ देश के बड़े-बड़े संस्थानों को धड़ल्ले से बेचा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ नोटबंदी, जीएसटी, तालाबंदी और ऐसे ही अन्य फ़ैसलों ने प्राइवेट सेक्टर, छोटे और मझोले उद्योगों को तोड़कर रख दिया है। इसी का नतीजा है कि देश भयानक बेरोज़गारी का सामना कर रहा है, अर्थव्यवस्था संकट में है, महंगाई आसमान पर है और भाजपा के पास इन समस्याओं से निपटने का कोई उपाय मौजूद नहीं है।

असल सवाल ये है कि दिनो दिन बढ़ता यह संकट क्या हमें किसी गंभीर संकट की तरफ ले जा रहा है? यह भयानक ग़ैर-बराबरी और बेरोज़गारी हमारे भविष्य के लिए बेहद ख़तरनाक है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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