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कोविड-19
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
महामारी के मद्देनजर कामगार वर्ग की ज़रूरतों के अनुरूप शहरों की योजना में बदलाव की आवश्यकता  
दूसरे कोविड-19 लहर के दौरान सरकार के कुप्रबंधन ने शहरी नियोजन की खामियों को उजागर करके रख दिया है, जिसने हमेशा ही श्रमिकों की जरूरतों की अनदेखी की है। 
टी ललिता
22 Feb 2022
covid

महामारी की दूसरी लहर के दौरान मेडिकल ऑक्सीजन, अस्पताल में बिस्तरों, जरुरी दवाओं और समय पर चिकित्सा के अभाव के कारण लाखों की संख्या में हुई मौतों ने संकट के दौरान सरकार के कुप्रबंधन को पूरी तरह से उघाड़कर रख दिया है। उन शहरों में यह समस्या और भी अधिक गंभीर बनी हुई थी जहाँ पर वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर घनी आबादी वाली झुग्गी बस्तियां आबाद थीं। 

मजदूर वर्ग को इसकी मार बेदखली, बेरोजगारी, भुखमरी और स्वास्थ्य देखभाल एवं भोजन तक पहुँच की कमी के रूप में झेलने पड़ी। शहरों के विकास में अपना योगदान देने वाले निर्माण मजदूरों, घरेलू, आंगनबाड़ी, स्वास्थ्य कर्मी, रेस्टोरेंट और दुकान पर काम करने वाले कर्मचारियों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। 

वहीँ दूसरी तरफ, उच्च-मध्य वर्ग और उच्च वर्ग रैपिड एंटीजन टेस्ट (आरएटी) तक पहुँच और समय पर  चिकित्सा सहायता के साथ समस्या से निपटने के लिए काफी बेहतर स्थिति में था। तमाम महशूर हस्तियों, प्रभावकारी हस्तियों और राजनीतिज्ञों के द्वारा भारतीयों को आश्वस्त किया जा रहा था कि “हम सभी इस संकट की घड़ी में एक साथ हैं” और उन्हें सकारात्मक और शांति से काम लेना चाहिए।

कोविड-19 की दूसरी लहर को शासक वर्ग, योजनाकारों, तकनीकी विशेषज्ञों, वास्तुकारों और नीति निर्माताओं के द्वारा शहरों के ढहते बुनियादी ढांचे में सुधार लाने और कामगार वर्ग को बुनियादी अधिकारों को मुहैय्या कराने के लिए एक यादगार सबक के तौर पर देखना चाहिए।

संकट ने अर्थव्यवस्था के निजीकरण की विषाक्तता को उजागर कर दिया है। जहाँ एक तरफ पॉश मॉल, कैफ़े और फ़ूड जॉइंट्स उच्च-मध्य एवं उच्च वर्ग के लिए पूरी तरह से सर्व-सुलभ थे, वहीँ दूसरी तरफ उनके निर्माण में जिन्होंने कड़ी मेहनत की थी, को ऐसे संकट की घड़ी के दौरान अपनी आजीविका के नुकसान के साथ अकेला छोड़ दिया गया था। विख्यात डच समाजशास्त्री जां ब्रेमन, जिन्होंने भारत के श्रमिक वर्ग का अध्ययन किया है, विशेष रूप से गुजरात में, वे श्रमिकों को “शिकारी और काम जुटाने वाले” के तौर पर देखते हैं, जिनके पास खुद को बचाए रखने के लिए बदतर काम की स्थितियों के बीच में बेहद कम मजदूरी के बावजूद कोई भी काम करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है।

समय आ गया है कि शहरी योजनाकारों, वास्तुकारों, नीति निर्माताओं, नगर सभासदों, कार्यकर्ताओं और यूनियनें श्रमिक वर्ग की जरूरतों, आकांक्षाओं और अधिकारों को प्राथमिकता देते हुए शहरों की नए सिरे से परिकल्पना शुरू करें। इसके लिए लोगों के पोषण, आवास, परिवहन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ढांचागत दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता पड़ती है न कि सरकार के द्वारा अपनाई जाने वाली मरहमपट्टी करने वाला दृष्टिकोण किसी भी काम का है। इसके अलावा, ऐसे श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा ठेके पर कार्यरत है जिसके पास नौकरी की सुरक्षा, पर्याप्त मजदूरी/वेतन और सामाजिक सुरक्षा जैसे लाभ उपलब्ध नहीं हैं।

शहरी नियोजन एवं संकट प्रबंधन को लेकर समूचा नजरिया ही त्रुटिपूर्ण है। उदाहरण के लिए, एकीकृत बाल विकास सेवाओं (आईसीडीएस) के तहत – जो छह वर्ष तक के बच्चों के लिए पूरक पोषण, टीकाकरण, पोषण और शिक्षा मुहैय्या कराई जाती है – उसमें 2011 की जनगणना के मुताबिक आबादी का 32% हिस्सा शहरों में रहता है, उसके बावजूद देश में प्रत्येक 100 आंगनबाड़ी लाभार्थियों में से मात्र सात शहरी क्षेत्रों में रह रहे हैं।

शहरी क्षेत्रों में आंगनबाड़ी केन्द्रों की कमी का अर्थ है कि मौजूदा केंद्र भारी बोझ तले दबे हैं। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं एवं सहायिकाओं के द्वारा बाल मृत्यु दर और कुपोषण को करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद उन्हें सिर्फ मानदेय से संतोष करना पड़ता है। कई आंगनबाड़ी कार्यकर्ता संगठनों ने मांग की है कि उनके प्रयासों को मान्यता दी जाए और मुआवजा दिया जाए। बकाया पैसे का भुगतान न होने और बेहतर काम की परिस्थितियों एवं बीमा के अभाव के चलते वे कई बार काम ठप कर चुके हैं।

इसी प्रकार सहायक सेवा दाइयों (एएनएम), जो महत्वपूर्ण टीकों को लगाने का काम करती हैं और स्वास्थ्य शिक्षा प्रदान करती हैं, महामारी के दौरान संक्रमित लोगों की जांच और पड़ताल करने से लेकर उनकी जांच करने और दवाएं उपलब्ध कराने जैसे बेहद महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद कम वेतन और अनुबंध पर काम करने के लिए मजबूर हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली से झुग्गीवासियों को जोड़ने में एएनएम एवं मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं (आशा) की भूमिका बेहद अहम है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मुताबिक, प्रति 10,000 भारतीयों पर एक एएनएम होनी चाहिए। हालाँकि, बेंगलुरु जैसे मेट्रो शहरों में प्रति 29,000 भारतीयों पर एक एएनएम है, वहीँ अधिकांश शहरों में 30,000 से अधिक लोगों के लिए एक एएनएम जिम्मेदार है।  

2019 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढाँचे की स्थिति अत्यंत शोचनीय है। देश में सिर्फ 5,190 शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) मौजूद हैं। जब ये पीएचसी सर्व सुलभ या क्रियाशील नहीं होते हैं, तो स्थानीय औषधालय या निजी अस्पतालों के पास जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता है, जो मनमानी फीस वसूलते हैं। विशाल जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए सरकार को हर वार्ड या विधानसभा क्षेत्र में एक सामान्य अस्पताल का निर्माण करना चाहिए। 

प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को स्थानीय स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों, पीएचसी एवं उपकेंद्रों के जरिये विकेंद्रीकृत स्तर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि इसे आम जनता तक सुलभ बनाया जा सके। सार्वजनिक स्वास्थ्य और कामगार वर्ग के बीच की खाई को पाटने के लिए स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं को और अधिक डॉक्टरों, प्रयोगशालाओं, दवा विक्रेताओं, दवाओं और कर्मचारियों के साथ अपग्रेड करने की जरूरत है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि 2022-23 के लिए स्वास्थ्य के लिए किये गए बजट आवंटन में पिछले साल की तुलना में मात्र 1% की वृद्धि की गई है।  

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की स्थिति भी खस्ताहाल बनी हुई है। लॉकडाउन के दौरान राशन कार्ड तक पहुँच की कमी ने सेक्स वर्करों, बेघरबार लोगों और विकलांगों सहित कमजोर वर्ग के लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया। महामारी के दौरान मुफ्त खाद्यान्न वितरण की घोषणाओं के बावजूद, अंत्योदय अन्न योजना कार्डधारकों तक को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत उनके हिस्से का का राशन नहीं मिल सका था।   

पंचम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-20) के मुताबिक, प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की करीब 18.7% महिलाएं बेहद दुबली-पतली पाई गईं थीं। जिनका बॉडी मास इंडेक्स 18.5 किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर से कम पाया गया है उनमें - ग्रामीण क्षेत्रों में इसे 21.2% और शहरों में 13.1% महिलाओं में पाया गया है। सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि शहरी क्षेत्रों में 30.1% बच्चे अविकसित हैं। आम लोगों के बीच में कुपोषण, भुखमरी और बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता से निपटने के लिए भोजन के सार्वभौमिक अधिकार के तहत सभी को शामिल करके पीडीएस और मध्यान्ह भोजन योजना को मजबूत किये जाने की आवश्यकता है।

अधिकाधिक संख्या में लोगों द्वारा भोजन एवं किराने के सामान की होम डिलीवरी का विकल्प चुनने की वजह से कूड़ादानों और खाली गड्ढे पालीथीन बैग के अंबार से भर गए हैं। समुचित निपटान तंत्र के अभाव में झुग्गीवासी जल-निकायों और सड़कों पर कचरा फेंकने के लिए बाध्य हैं। जहाँ एक तरफ संपन्न वर्ग के द्वारा अधिक खरीद की सामर्थ्य होने के कारण कचरे की समस्या में अनुपातहीन मात्रा में योगदान देता है, वहीँ शहरों को गंदा करने के लिए मजदूर वर्ग को इसका दोषी ठहराया जाता है। जब पुनः प्रयोज्य बैग उपलब्ध हैं तो ऐसे में पालीथिन बैग के उपयोग पर तत्काल प्रतिबंधित लगाया जाना चाहिए।    

कचरा बीनने वाले संगठनों द्वारा प्रबंधित और नगरपालिकाओं के द्वारा पर्यवेक्षित शुष्क कचरा संग्रह केन्द्रों (डीडब्ल्यूसीसीज) को विस्तारित उत्पादक जवाबदेही नियमों के तहत हर वार्ड के लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए, जिसमें प्रत्येक घर और निगमों से उत्पन्न होने वाले कचरे पर आनुपातिक शुल्क दिया जाना चाहिए। सुलभ कम्पोस्ट ईकाइयों, डीडब्ल्यूसीसी और बायो-गैस संयंत्र बड़ी मात्रा में कचरे का सुरक्षित प्रसंस्करण को संभव बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पुनः प्रयोज्य थैलों को पीडीएस और स्थानीय दुकानों के जरिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 

पीपीपी मॉडल के तहत बस सेवाओं के निजीकरण, कारों की बिक्री को बढ़ाने के लिए मिलने वाले प्रोत्साहन और फ्लाईओवरों के चौड़ीकरण ने सार्वजनिक परिवहन को अच्छा-खासा प्रभावित किया है। अधिकांश सड़कों पर निजी वाहनों का कब्जा बना हुआ है जबकि व्यापक जनता भीड़-भाड़ वाली बसों में चढ़ने के लिए प्रतीक्षारत रहती है। सार्वजनिक परिवहन को हतोत्साहित और निजीकरण करने और कर्मचारियों को अनुबंध पर नियुक्त करने के बजाय फ्रीक्वेंसी में सुधार लाने के लिए और बसों को शुरू करने और श्रमिकों को स्थायी आधार पर काम पर रखे जाने की जरूरत है। सभी के लिए सुरक्षित, कुशल, सुलभ एवं किफायती परिवहन व्यवस्था को मुहैय्या कराने के लिए परिवहन-उन्मुख विकास के स्थान पर कर्मचारी-उन्मुख परिवहन से बदलने की जरूरत है।

भारत को ऐसे शहरों की योजना बनाने के लिए, कम तकनीकीतंत्र और अधिक लोकतांत्रिक एवं विकेंद्रित सहभागिता वाले शासन की जरूरत है, जैसा कि 74वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा परिकल्पित किया गया था। विशेषज्ञ समूह की कमेटियों की स्थापना के अलावा, वार्ड सभाओं को भी आम लोगों को अपने-अपने स्थानीय सभासदों और वार्ड कमेटियों के साथ संपर्क में बने रहने और उन्हें प्रत्यक्ष शासन में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, पीडीएस, शिक्षा, परिवहन एवं कचरा प्रबंधन के बुनियादी ढांचे में सुधार से न केवल शहरों को अधिक श्रमिक-अनुकूल बनाया जा सकता है, बल्कि इससे बड़ी संख्या में शहरी आबादी को, विशेषकर महिलाओं को जो शहरों में मानव विकास की रीढ़ हैं, को रोजगार मुहैय्या कराया जा सकता है, जैसे कि आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता। रोजगार सृजन के लिए सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की मजबूती एक पूर्व शर्त है। श्रमिकों को स्थायी आधार पर उचित मजदूरी पर नियुक्त किया जाना चाहिए, और इसके लिए एक शहरी रोजगार गारंटी योजना की निश्चित तौर पर खोज की जानी चाहिए।

शहरों को सिर्फ मॉल, सुरक्षा पूर्ण इमारतों वाली सोसाइटी या कॉलोनियों और बंगलों की संख्या से नहीं बल्कि सार्वजनिक अस्पतालों, स्कूलों और राशन की दुकानों के द्वारा परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है।

लेखिका बेंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंटस में अर्बन फेलो प्रोग्राम कर रही हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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