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पिछले एक साल में मोदी सरकार की कार्यप्रणाली दिखाती है कि वो मज़दूरों को लेकर संवेदनहीन है

लॉकडाउन संकट में जहां एक तरफ देश के करोड़ों मज़दूर सड़कों पर बेबस हैं तो मोदी सरकार के श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार गायब हैं। इससे पहले नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल में मज़दूरों के लिए लाए गए वेज कोड बिल और इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड का ज़्यादातर श्रमिक संगठनों ने विरोध किया है।
Modi and workers

आज 30 मई है। पिछले साल इसी दिन बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी ने लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। ठीक एक साल बाद इसी दिन ट्विटर पर फिलहाल #गूगल_सर्च_मत_करिये ट्रेंड हो रहा है। दरअसल यह कोई कैंपेन नहीं बल्कि एक समाचार चैनल पर हुई बहस का नतीजा है।

मामला कुछ यूं हैं कि एबीपी न्यूज़ पर प्रवासी मज़दूरों के संकट को लेकर बहस हो रही थी। इस दौरान कांग्रेस प्रवक्ता रोहन गुप्ता ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रवक्ता गौरव भाटिया से पूछा कि वे मज़दूरों की चिंता की बात कर रहे हैं लेकिन क्या उन्हें अपनी सरकार के श्रम मंत्री का नाम पता है।

इस पर गौरव भाटिया ने टालमटोल की। उन्होंने कहा कि अपनी बारी आने पर वो इसका जवाब देंगे लेकिन रोहन गुप्ता बार-बार उनसे यही सवाल दोहराते रहे। इस पर गौरव भाटिया नीचे देखने लगे और ऐसा लगा जैसे वे कुछ खोज रहे हों। इस पर रोहन ने कहा कि वे तुरंत नाम बताएं और गूगल पर मत खोजें। काफी देर बाद गौरव भाटिया ने जवाब दिया कि संतोष कुमार गंगवार।

इसके बाद से यह मामला ट्विटर पर ट्रेंड होने लगा। दरअसल यह स्थिति मोदी सरकार के मज़दूर विरोधी चरित्र को उजागर करने वाली है। कोरोना काल में प्रवासी मज़दूरों का हाल भी किसी से छुपा नहीं है। आज़ादी के बाद भारत ने सबसे बड़ा पलायन देखा। हालांकि अनमने ढंग से सही सरकारों ने प्रवासियों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए ट्रेनें और बसों का इंतजाम किया लेकिन श्रम मंत्री नदारद रहे।

आपको बता दें कि केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार सोशल मीडिया पर भी ज्यादा एक्टिव नज़र नहीं आते हैं। वह ज्यादातर ट्वीट को रिट्वीट करते हुए देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही उनका ट्विटर अकाउंट वैरिफाइड भी नहीं है।

मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक हाल ही में जब उनसे प्रवासी मज़दूरों के वापसी और उद्योग से जुड़ा हुआ सवाल पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि ये प्रवासी मज़दूर जून के बाद वापस आ जाएंगे। लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि क्या जून के बाद मज़दूर वापस आ जाएंगे?

गौर करने वाली बात यह है कि मार्च महीने से मजूदरों का पलायन हो रहा है लेकिन हमारे देश के श्रम मंत्री पिछले 2-4 दिनों से ही मीडिया में नजर आ रहे हैं। मतलब साफ है कि वह मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक साल पूरे होने के मौके पर बात करने आए हैं। मज़दूरों के पलायन, भूख, बेबसी, मौत से उनके सामने आने का कोई लेना देना नहीं है।

फिलहाल उन्होंने दावा किया है कि देश में लॉकडाउन की वजह से जारी मज़दूरों के संकट के मद्देनजर केंद्र सरकार 41 साल बाद प्रवासी मज़दूरों की परिभाषा बदलने वाली है। इसके अलावा सरकार की योजना कर्मचारी राज्य बीमा निगम के तहत सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य लाभ तक पहुंच को सक्षम करने के लिए उन्हें पंजीकृत करने की है।

उनका दावा है कि लॉकडाउन के दौरान अनौपचारिक और औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाखों श्रमिकों के बड़े पैमाने पर प्रवास के बाद सामाजिक सुरक्षा पर एक नया कानून प्रस्तावित हैं, जिसे श्रम मंत्रालय जल्द ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में लेकर जाएगा। कैबिनेट इस साल के अंत तक इस कानून को बनाने की योजना बना रहा है।

आपको याद दिला दें कि ये वही श्रम मंत्री हैं जिन्होंने मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने के मौके पर पिछले साल सितंबर में कहा था कि देश में नौकरियों की कमी नहीं है। हमारे उत्तर भारत के लोगों में योग्यता की कमी है। यहां नौकरी के लिये रिक्रूट करने आने वाले अधिकारी बताते हैं कि उन्हें जिस फन के लिये लोग चाहिये। उनमें वह योग्यता नहीं है।

जबकि उसके उलट शपथ ग्रहण के तुरंत बाद 31 मई 2019 को मोदी सरकार ने दिसंबर 2018 से रोकी रिपोर्ट जारी की जिसके मुताबिक, 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रही, जो 45 साल में सबसे ज्यादा थी।

फिलहाल भविष्य की योजनाओं को छोड़कर मज़दूरों की अभी की स्थिति की बात करते हैं। मीडिया से बातचीत में प्रवासी मज़दूरों का कोई लेखा जोखा नहीं होने के सवाल पर गंगवार ने कहा कि “अभी हमारे पास जो डाटा है, यह ईएसआईसी और प्रोविडेंट फंड का है। यह मैक्सिमम 10 करोड़ लोगों का है। हम बताते हैं 40 करोड़। अब समझ में आता है कि डेटा तैयार होना चाहिए और हम इसकी तैयारी कर रहे हैं। हम राज्य सरकारों से भी आग्रह किए हैं हम मानते हैं कि इस दिशा में एक मजबूत कदम उठाएंगे। हम एक डेटा तैयार करेंगे। हम उनके लिए कुछ ऐसे नंबर दे दें कि जब तक नौकरी रहे वह जीवित रहें।”

यानी देश के श्रम विभाग के पास प्रवासी मज़दूरों का कोई आंकड़ा नहीं है। अब जब बड़े पैमाने पर मज़दूरों के पलायन और मौत का हाहाकार पूरे देश ने देखा तो सरकार आंकड़े जुटाने के बारे में सोच रही है।

हालांकि कोरोना संकट में जहां एक ओर मज़दूरों के हितों के बारे में सिर्फ सोचा जा रहा है तो दूसरी ओर बीजेपी शासित कई राज्य मालिकों के हितों में श्रम कानूनों में भारी बदलाव कर दे रहे हैं। ये बदलाव इतने मज़दूर विरोधी हैं कि इसे लेकर दुनिया भर में हल्ला मच गया है।

इसी महीने की 15 तारीख के करीब अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) को कहना पड़ा कि, ‘भारत में कुछ राज्य कोविड-19 की वजह से प्रभावित हुई अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कई श्रम कानूनों को हल्का कर रहे हैं। इस तरह के संशोधनों को सरकार, श्रमिक और नियोक्ता संगठनों से जुड़े लोगों के साथ त्रिपक्षीय वार्ता के बाद किया जाना चाहिए और ये अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों के अनुरूप होना चाहिए, जिसमें मौलिक सिद्धांत और कार्य पर अधिकार (एफपीआरडब्ल्यू) शामिल है।’

आपको बता दें कि राज्यों में श्रमिक कानूनों में हो रहे बदलाव के दौरान केंद्र सरकार और श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष गंगवार ने चुप्पी साध रखी। हालांकि सुखद यह है कि आईएलओ के हस्तक्षेप में बाद श्रम कानूनों में बदलाव पर अपनी चुप्पी तोड़ी है और कहा है कि लेबर राइट्स को खत्म करना श्रम सुधार नहीं होता है।

फिलहाल मज़दूरों की अनदेखी का मामला सिर्फ कोरोना संकट के दौरान का नहीं है। पिछले एक साल में सरकार कुछेक ऐसे बिल संसद में लेकर आई जिसके चलते मजूदरों और उनके लिए काम करने वाले संगठनों को सड़कों पर उतारना पड़ा।

आपको याद दिला दें कि श्रम मंत्रालय ने श्रम सुधारों को तेज करने के नाम पर 44 श्रम कानूनों को चार कोड में बांटने का जिम्मा उठाया था।

सरकार अगस्त महीने में जटिल श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर वेजेज कोड बिल लाई। वेजेज कोड बिल में चार पुराने श्रम कानूनों- पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट (1936), मिनिमम वेजेस एक्ट (1948), पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट (1965) और समान पारिश्रमिक एक्ट (1976) को शामिल किया गया।

सरकार का दावा है कि इससे पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी के साथ महिलाओं को पुरुषों के समान मजदूरी देने की व्यवस्था की गई है। साथ ही 50 करोड़ कामगारों को न्यूनतम और समय पर मजदूरी देने को वैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है।

इसके साथ ही संसद में ऑक्यूपेशनल, सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड बिल 2019 (ओएसएच कोड बिल) भी पेश किया। इस बिल में मज़दूरों के बेहतर काम करने की स्थिति और उनके स्वास्थ्य संबंधी महत्वपूर्ण अधिकारों को शामिल करने की बात की गई। फिलहाल यह विधेयक श्रम संबंधी संसदीय समिति के हवाले है।

इसके बाद सरकार ने नवंबर में लोकसभा में ‘औद्योगिक संबंध संहिता, 2019’ और उससे संबंधित एक विधेयक पेश किया जिसमें श्रमिक संघ, औद्योगिक प्रतिष्ठानों या उपक्रमों में रोजगार की शर्तें, औद्योगिक विवादों की जांच तथा निपटारे एवं उनसे संबंधित विषयों के कानूनों को मिलाने का और संशोधन करने का प्रावधान था। विपक्ष द्वारा इस बिल को हड़ताल मुश्किल, बर्खास्तगी आसान बनाने वाला बताया गया। लगभग पूरे विपक्ष ने इसे ‘श्रमिक विरोधी’ बताते हुए कहा कि इसे श्रम पर स्थाई समिति को भेजा जाना चाहिए।

ऐसे में लगभग पूरे साल सवाल यही बना रहा कि भाजपा सरकार के नए श्रम कानून से किसको फायदा मिलने वाला है?

देश भर के मज़दूर संगठन सरकार द्वारा श्रम कानूनों के हुए बदलाव की आलोचना भी कर रहे हैं। कई बार इन संगठनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा भारतीय मज़दूर संघ भी शामिल होता है। ज्यादातर श्रम संगठनों का कहना है कि मज़दूरों से जुड़े कानूनों में बदलाव के दौरान उनसे बातचीत नहीं की जाती हैं। उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता है।

उनका कहना है कि सरकार ने मज़दूरों के साथ झूठ बोला, धोखा दिया और तानाशाही रवैया अपनाकर मज़दूर विरोधी कानून बना रही है। इन कानूनों में न्यूनतम मजदूरी बहुत कम तय की गई है तो असंगठित क्षेत्र के कामगारों को कोई फायदा नहीं मिलने वाला है। इसके अलावा बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी और ठेका प्रथा को बढ़ावा देने वाला कानून सरकार बहुमत के बल पर लगातार पारित करा रही है।

गौरतलब है कि लगभग पूरे साल मज़दूर इन कानूनों को लेकर सड़क पर प्रदर्शन करते रहे। आखिर में विश्वव्यापी कोरोना संकट में मज़दूरों के लेकर केंद्र सरकार के रवैये ने उसकी पोल खोल दी। सरकार द्वारा बनाई जा रही मज़दूर विरोधी नीतियों का परिणाम यह रहा कि पूरे देश से मज़दूरों के पलायन और बेबसी की खबरें आई। और इस दौरान सरकार नाममात्र के लिए भी उनके साथ खड़ी नजर नहीं आई।

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