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वाजपेयी-आडवाणी युग के क्षत्रपों को चाह कर भी किनारे नहीं कर पाए मोदी-शाह

पार्टी के झंडे और चुनाव चिह्न के अलावा कुछ पुराना है तो वह है राज्यों में क्षत्रप, जिन्हें नरेंद्र मोदी और अमित शाह चाहकर भी हाशिए पर नहीं डाल पाए हैं।
Shah and Modi
फाइल फ़ोटो। PTI

भारतीय जनता पार्टी में वाजपेयी-आडवाणी का युग ख़त्म होने और मोदी-शाह का युग शुरू होने के बाद कई चीज़ें बदली हैं। पार्टी संगठन चलाने और चुनाव लड़ने के तौर-तरीके बदले हैं। दूसरे दलों के प्रति पार्टी का दृष्टिकोण बदला है। राज्यों में भ्रष्ट तरीकों से सरकारें बनाने-गिराने के मामले में लोकतांत्रिक संकोच पूरी तरह से ख़त्म हो गया है। लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व चाह कर भी वाजपेयी-आडवाणी के ज़माने के ज़्यादातर सूबेदारों यानी प्रादेशिक क्षत्रपों को किनारे नहीं कर पाया है। वे क्षत्रप आज भी चुनाव के लिहाज़ से पार्टी के लिए अपनी प्रासंगिकता और ज़रूरत बनाए हुए हैं।

पिछले नौ-दस वर्षों के दौरान भाजपा का पूरी तरह कायाकल्प हो चुका है। केंद्रीय मंत्रिपरिषद से वाजपेयी-आडवाणी युग के रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर,मुख़्तार अब्बास नकवी, मेनका गांधी, डॉ. हर्षवर्धन, रमेश पोखरियाल निशंक, संतोष गंगवार, राज़ीव प्रताप रूडी आदि नेताओं की छुट्टी कर दी गई है। पार्टी के केंद्रीय संगठन में भी अब उस दौर का अब कोई नेता नहीं रहा है। हालांकि पार्टी की नाभि-नाल अब भी पहले की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी का अदना सा कार्यकर्ता भी अपने को संघ का स्वयंसेवक ही बताता है और पार्टी की सरकारें भी पूरी तरह संघ के एजेंडे पर काम कर रही हैं लेकिन अब पार्टी के फैसलों में संघ का पहले जैसा दख़ल और दबदबा नहीं रह गया है। 

पार्टी के झंडे और चुनाव चिह्न के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जिससे लगे कि यह वाजपेयी-आडवाणी के दौर की पार्टी है। पार्टी के झंडे और चुनाव चिह्न के अलावा कुछ पुराना है तो वह है राज्यों में क्षत्रप, जिन्हें नरेंद्र मोदी और अमित शाह चाहकर भी हाशिए पर नहीं डाल पाए हैं। उत्तर प्रदेश ज़रूर एक अपवाद है, जहां वाजपेयी-आडवाणी युग की समाप्ति के बाद योगी आदित्यनाथ के रूप में नए क्षत्रप का उदय हुआ है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि राज्यों में जहां भाजपा का पुराना जनाधार है और जहां मोदी-शाह के उभार से पहले भी पार्टी अपने दम पर सत्ता में आ चुकी है, वहां आज भी पुराने क्षत्रप प्रभावी और प्रासंगिक हैं। चुनाव लड़ने के लिए पार्टी भी उन्हीं क्षत्रपों पर ही निर्भर है। 

हालांकि कई बार उन पुराने क्षत्रपों को किनारे करने का प्रयास किया गया लेकिन थोड़े समय हाशिए पर रहने के बाद उन्होंने वापसी की और मोदी-शाह को न चाहते हुए भी उन्हें स्वीकार करना पड़ा। कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। 

येदियुरप्पा ही वह नेता हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में मोदी-शाह की आमद से पहले भाजपा को दक्षिण भारत में जीत का स्वाद चखाया था और कर्नाटक में सरकार बनाई थी। वे 2007 से लेकर 2021 के बीच चार बार मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2021 में उन्हें बड़ी मुश्किल से मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए राज़ी किया गया था लेकिन कुछ ही महीनों बाद पार्टी नेतृत्व को अहसास हो गया कि उन्हें किनारे करके पार्टी कर्नाटक में चुनाव नहीं जीत सकती। अब कहने को तो वहां पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी लेकिन व्यावहारिक रूप से चुनाव की पूरी कमान येदियुरप्पा को सौंप दी गई है। यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी जब भी कर्नाटक के दौरे पर जाते हैं तो उन्हें येदियुरप्पा को अपने साथ रखना पड़ता है और सार्वजनिक रूप से उनकी बढ़-चढ़ कर तारीफ़ करनी पड़ती है।

कर्नाटक जैसी ही स्थिति मध्य प्रदेश में है। वहां वाजपेयी और आडवाणी के हाथों गढ़े गए शिवराज सिंह चौहान 2005 से सूबे के मुख्यमंत्री हैं। साल 2018 में चुनाव हारने के बाद पार्टी के आला नेतृत्व ने उन्हें हाशिए पर डाल दिया था लेकिन एक साल बाद ही जब कांग्रेस की सरकार गिरा कर भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। हालांकि उसके बाद उनका कद कम करने वाले कई काम और फ़ैसले हुए। सूबे में पार्टी के कई नेता उन्हें हटाने के लिए लामबंद हुए और दिल्ली दरबार के कान भरे गए। मीडिया में ख़बरें चलाई गईं कि शीर्ष नेतृत्व उन्हें हटाने पर विचार कर रहा है। लेकिन अब यह लगभग तय हो चुका है कि पार्टी उनकी ही कमान में चुनाव लड़ेगी। उन्हें हटाने या किनारे करने के बजाय चुनाव में उनकी सरकार के कामकाज का प्रचार करके ही वोट मांगे जाएंगे।

जिस तरह कर्नाटक में येदियुरप्पा और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह भाजपा के लिए ज़रूरी और मजबूरी बने हुए हैं, उसी तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे भी पार्टी की ज़रूरत बनी हुई हैं। वे भी भाजपा में वाजपेयी-आडवाणी के दौर की क्षत्रप हैं। पिछले आठ-नौ साल से उन्हें हाशिए पर डालने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने आप को पार्टी के लिए प्रासंगिक और अपरिहार्य बना रखा है। मोदी-शाह के न चाहने के बावजूद भाजपा ने राजस्थान में पिछला विधानसभा चुनाव वसुंधरा की कमान में ही लड़ा था। इस बार भी इस साल के अंत में होने वाले चुनाव के लिए भी पार्टी में वसुंधरा ही इकलौती ऐसी नेता हैं जो पार्टी के ज़्यादातर नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में हैं।

हालांकि कुछ दिनों पहले तक राजस्थान भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया और दूसरे कई नेता कह रहे थे कि भाजपा कोई चेहरा पेश किए बग़ैर प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर चुनाव में उतरेगी, लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी यह अहसास हो गया है कि वसुंधरा को किनारे करके सूबे में सत्तारूढ़ कांग्रेस को चुनौती देना आसान नहीं है। यही वजह है कि पार्टी ने पहले तो वसुंधरा के धुर विरोधी माने जाने वाले गुलाबचंद कटारिया को राज्यपाल बना कर सूबे की राजनीति से दूर किया और फिर वसुंधरा के विरोधी माने जाने वाले सतीश पुनिया को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया।

हालांकि पार्टी ने अभी औपचारिक तौर पर यह ऐलान नहीं किया है कि वह अगला चुनाव वसुंधरा के चेहरे पर लड़ेगी लेकिन उनके विरोधी खेमे के दो नेताओं में से एक को राज्यपाल बना कर प्रदेश की राजनीति से दूर करना और दूसरे को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाना इस बात का संकेत है कि पार्टी नेतृत्व वसुंधरा को नाराज़ करने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है।

बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ भी ऐसे ही राज्य हैं, जहां मोदी-शाह ने नए क्षत्रप तैयार करने की कोशिश की लेकिन वे पुराने क्षत्रपों को किनारे करने या उन्हें अप्रासंगिक बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। बिहार में पार्टी ने नया नेतृत्व तैयार करने के लिए कई प्रयोग किए और कई चेहरों को आज़माया लेकिन वाजपेयी-आडवाणी युग के सुशील कुमार मोदी ही आज भी सबसे बड़े नेता बने हुए हैं। उन्हें बिहार की राजनीति से दूर करने के लिए राज्यसभा का सदस्य बना कर दिल्ली लाया गया लेकिन आज भी बिहार की राजनीति में वे ही भाजपा का चेहरा बने हुए हैं, बाक़ी नेताओं को उनका सहयोग करना पड़ रहा है।

झारखंड में भी साल 2014 से 2019 तक पूरे पांच साल सत्ता में रहने बाद भाजपा हारी तो उसे आगे की राजनीति के लिए बाबूलाल मरांडी को वापस पार्टी में लाना पड़ा। मरांडी साल 2000 में अलग झारखंड बनने के बाद उसके पहले मुख्यमंत्री बने थे। बाद में मुख्यमंत्री पद से हटा दिए जाने के बाद उन्होंने भाजपा से अलग होकर अपनी नई पार्टी बना ली थी लेकिन 2019 में उनकी पार्टी का भाजपा में विलय हो गया और वे विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता बनाए गए।

छत्तीसगढ़ में यद्यपि पार्टी ने 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे डॉ. रमन सिंह को तो 2018 का चुनाव हारने के बाद किनारे कर दिया है, लेकिन वहां पार्टी अभी तक उनका विकल्प तैयार नहीं कर पाई है। वहां भी मध्य प्रदेश और राजस्थान के साथ इस वर्ष के अंत में विधानसभा का चुनाव होना है और क़रीब आधा दर्जन नेता पार्टी का चेहरा बनने की होड़ में शामिल हैं।

हैरानी की बात यह भी है कि मोदी और शाह के गृह राज्य गुजरात में भी पिछले आठ-नौ सालों के दौरान कोई ऐसा नेता तैयार नहीं हो सका है, जिसकी पूरे राज्य में अपनी खुद की पहचान हो। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्य में तीन मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन किसी की अपने ज़िले के बाहर बग़ैर पद के कोई हैसियत नहीं है। वहां सरकार और संगठन संबंधी सारे फ़ैसले आज भी दिल्ली से मोदी और शाह ही लेते हैं।

अपने जनाधार वाले राज्यों में भाजपा की यह स्थिति बताती है कि पिछले आठ-नौ साल के दौरान नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी कमान में नेतृत्व की नई कतार तैयार करने में असफल रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वाजपेयी-आडवाणी युग के क्षत्रप ज़मीनी स्तर पर इतने ताकतवर हैं कि मोदी और शाह उन्हें हटाने का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं हैं। पार्टी की यह स्थिति मोदी-शाह के सर्वशक्तिमान होने के मिथक को भी खंडित करती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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