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ख़बरों के आगे-पीछे: रेलवे में बुजुर्गों की सुविधाएं काटने वाली मोदी सरकार के तर्क

ज़िंदगी की भागदौड़ में बहुत सी ख़बरें हमसे छूट जाती हैं, जिनका केवल राजनीतिक ही नहीं सामाजिक और हमारे जीवन से भी गहरा संबंध होता है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन सप्ताहांत में इन्हीं ख़बरों का संकलन कर आपके सामने पेश कर रहे हैं।
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रेलवे ने आपदा को अवसर बनाया

भारतीय रेलवे ने कोरोना वायरस की महामारी के समय ट्रेन सेवाएं बंद की थीं। उस समय मीडिया ने कोरोना के नाम पर आतंक मचा रखा था, जिसका फायदा उठाते हुए रेलवे ने महामारी के नाम पर और भी कई सेवाएं और सुविधाएं बंद कर दी थीं, जिसका मीडिया में कोई जिक्र नहीं हुआ था। जैसे पहले बुजुर्गों को किराए में 50 फीसदी तक छूट मिलती थी, जिसे यह कहते हुए बंद किया गया था कि यह छूट बंद करने से बुजुर्ग लोग गैर जरूरी यात्राएं नहीं करेंगे। इस दलील का तब भी मजाक उड़ा था। लेकिन तब लगा था कि कोरोना खत्म होने के बाद शायद फिर से बुजुर्गों के लिए छूट बहाल हो जाएगी। लेकिन बुधवार को संसद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने साफ कर दिया कि कोई छूट बहाल नहीं होने जा रही है। अब रेल मंत्री ने दलील दी है कि इस पर बहुत खर्च आता है इसलिए इसे बंद कर दिया गया है। यह हैरान करने वाली बात है कि भाजपा की कई सरकारें बुजुर्गों को मुफ्त मे तीर्थ यात्राएं करा रही हैं। उस पर होने वाला खर्च उठाने में कोई दिक्कत नहीं है। प्रधानमंत्री के लिए दस हजार करोड़ रुपए का विमान खरीदने से, हजारों करोड़ रुपए खर्च कर नया संसद भवन और सेंट्रल विस्टा बनाने से और हजारों करोड़ रुपए की मूर्तियां बनवाने से सरकारी खजाने पर बोझ नहीं पड़ रहा है लेकिन बुजुर्गों को ट्रेन यात्रा पर छूट नहीं दी जाएगी, क्योंकि सरकार इस खर्च का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। इतना ही नहीं, रेल मंत्री बनने से पहले कॉरपोरेट घरानों की सेवा रह चुके अश्विनी वैष्णव ने इससे आगे यह भी कहा कि रेलवे में एसी 1, एसी 2, एसी 3 के अलावा एसी चेयर कार, स्लीपर और जनरल बोगी भी लगी होती है अगर किसी को यात्रा करनी है तो वह अपनी हैसियत के हिसाब से इनमें से किसी में यात्रा कर सकता है। इसका मतलब है कि अगर किसी बुजुर्ग की हैसियत थर्ड क्लास में चलने की है तो वह उसी में चले। 

रेल मंत्री ने यह भी कहा कि अब भी रेलवे की सेवाएं बहुत सस्ती हैं और यात्री किराए का 50 फीसदी खर्च रेलवे खुद वहन करता है। सवाल है कि रेलवे खुद वहन करता है का क्या मतलब है? क्या रेलवे ने नोट छापने की कोई अपनी मशीन लगा रखी है? आखिर रेलवे के पास भी पैसा तो लोगों द्वारा चुकाए जाने वाले कर, किराए या मालभाड़े से ही आता है? बहरहाल, आपदा में अवसर बना कर बुजुर्गों और खिलाड़ियों आदि को मिलने वाली छूट समाप्त कर दी गई है।

इसे कहते हैं राजनीतिक मनोरोग

यह कमाल सिर्फ भाजपा ही कर सकती है और उसने किया भी है। महाराष्ट्र में संभाजी नगर का नाम फिर से संभाजी नगर और धाराशिव का नाम फिर से धाराशिव रखा गया है! यह बात सुनने और पढ़ने में भले ही अटपटी लगे लेकिन ऐसा ही हुआ है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में पिछले दिनों सत्ता से बाहर होने के ठीक पहले उद्धव ठाकरे सरकार ने औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदल कर क्रमश: संभाजीनगर और धाराशिव कर दिया था। इन दोनों शहरों के नाम बदले जाने पर न तो भाजपा को आपत्ति थी और न ही शिव सेना से अलग हुए गुट को। इसके बावजूद एकनाथ शिंदे की अगुवाई में सरकार बनाने वाली भाजपा ने कैबिनेट में दोनों शहरों का नया नामकरण करने का नया प्रस्ताव पारित कराया। सवाल है कि जब शिव सेना के बागी और भाजपा नेता नाम बदलने के उद्धव सरकार के फैसले से सहमत थे और मान रहे थे कि जो नए नाम रखे गए हैं वे सही हैं तो फिर दोबारा नाम बदलने की कवायद का क्या मतलब है? दरअसल भाजपा को अपनी उग्र हिंदुत्व यानी नफरत की राजनीति के तहत यह दर्ज कराना था कि मुस्लिम नाम वाले दोनों शहरों के नाम बदलने में वह शामिल है। लेकिन उसकी इस कवायद को सिर्फ सांप्रदायिक नफरत की या श्रेय लेने की राजनीति ही नहीं माना जा सकता। इसे मनोरोग भी कह सकते हैं। बहरहाल भाजपा को लगता है कि नाम बदलने के नए प्रस्ताव से इस फैसले से उद्धव ठाकरे का नाम हट जाएगा और वे इसका श्रेय नहीं ले पाएंगे। उसका ऐसा सोचना भी मूर्खता का चरम ही माना जाना जाएगा, क्योंकि पहले मारे सो मीर वाली कहावत ऐसे ही नहीं बनी है। उद्धव ठाकरे की सरकार ने यह फैसला करीब तीन हफ्ते पहले लिया था और इसका मैसेज मराठी माणुस में पहले ही जा चुका है।

अपने ही गृह प्रदेश में सिन्हा की बेइज्जती

राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में किसी भी उम्मीदवार की अपने प्रदेश में ऐसी बेइज्जती नहीं हुई होगी, जैसी यशवंत सिन्हा की हुई है। उनको करीब-करीब सभी प्रदेशों में अच्छी खासी संख्या में वोट मिले। किसी भी विपक्षी उम्मीदवार को जितने वोट मिलते है उतने उनको भी मिल गए। लेकिन झारखंड में उनके साथ बहुत बुरा हुआ। आमतौर पर उम्मीदवार जिस राज्य का होता है वहां के विधायक और सांसद पार्टी लाइन से हट कर उसको वोट करते है, लेकिन इस बार झारखंड में उलटा हुआ। राज्य में कुल 81 विधायक और 14 सांसद हैं, जिनमें से यशवंत सिन्हा को एक भी सांसद का वोट नहीं मिला। विधायकों में भी सिर्फ आठ ने उनको वोट दिया। यह तब हुआ, जबकि राज्य में दो सांसद यूपीए के हैं और 50 के करीब विधायकों का समर्थन झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के साथ है। दरअसल जेएमएम ने पहले ही आदिवासी के नाम पर द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने का ऐलान कर दिया था। कांग्रेस ने जरूर यशवंत सिन्हा को समर्थन दिया लेकिन कांग्रेस के 12 विधायकों और इकलौती सांसद ने क्रॉस वोटिंग कर मुर्मू को वोट दिया। जेएमएम के सभी 30 विधायकों और एक सांसद ने भी मुर्मू को वोट किया। भाजपा व उसके सहयोगियों के 12 सांसदों और 30 विधायकों के वोट तो मुर्मू को मिलना ही थे। इस तरह कांग्रेस के बचे हुए और लेफ्ट व राजद के कुल नौ वोट सिन्हा को मिले।

बिहार में नीतीश के आगे नतमस्तक भाजपा 

बिहार में भाजपा अब बैकफुट पर है। 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा के नेता सरकार पर हावी थे। उन्होंने जो चाहा वह किया। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्रियों ने नीतीश कुमार पर खूब निशाना साधा। उनको परिस्थितियों का मुख्यमंत्री बताया। महज 43 सीट जीत कर मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार काफी दब कर रहे। उनकी मर्जी के बगैर उनकी पार्टी के एक सांसद आरसीपी सिंह केंद्र में मंत्री बन गए। लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। केंद्र में मंत्री बने नेता की विदाई हो गई है और प्रदेश में सब कुछ जनता दल (यू) के हिसाब से हो रहा है। राजधानी पटना के पुलिस कप्तान ने मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई की तुलना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कर दी और उनका कुछ नहीं हुआ। भाजपा के नेता तबादले का दबाव बनाते रहे लेकिन सरकार ने नहीं सुनी। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार विधानसभा के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम के समापन में शामिल होने आए तो बिहार में सरकार ने कोई विज्ञापन नहीं दिया। उसी दिन वे झारखंड भी गए थे, जहां यूपीए की सरकार है तो वहां सरकार ने सभी अखबारों में इसका विज्ञापन दिया था। इससे थोड़े दिन पहले ही भाजपा नेता और विधानसभा स्पीकर विजय सिन्हा को भरे सदन में ही नीतीश कुमार ने खूब हड़काया था। पिछले तीन महीने में दिल्ली से पार्टी आलाकमान दो बार केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को पटना भेज चुका है, नीतीश को यह भरोसा दिलाने के लिए कि 2025 तक वे ही मुख्यमंत्री रहेंगे।

मोदी पर क्यों हमलावर हो रहे हैं केजरीवाल 

एक समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कायर और मनोरोगी बताने वाले अरविंद केजरीवाल लंबे समय से उन पर सीधा हमला करने से बच रहे थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि सीधे मोदी पर हमला करना फायदेमंद नहीं है क्योंकि इससे हिंदुत्ववादी मतदाता नाराज होते हैं। सो, भाजपा सरकार पर हमला करते हुए भी वे मोदी पर निशाना नहीं साधते थे। परंतु अब उनको अपना रूख बदना पड़ा है। अब वे फिर से सीधे मोदी पर हमला करने लगे हैं और ऐसे मुद्दों पर हमला कर रहे हैं, जो अब तक कांग्रेस नेता राहुल गांधी ही उठाते रहे हैं। हाल ही में केजरीवाल ने दो बहुत संवेदनशील मुद्दों पर मोदी के खिलाफ हमला किया। प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीति में 'रेवड़ी कल्चर’ समाप्त करने की बात कही तो सबसे ज्यादा केजरीवाल बिफरे। हालांकि मोदी का इशारा सिर्फ उन्हीं की ओर नहीं था लेकिन उन्होंने मोदी बनाम केजरीवाल का मुद्दा बनाने के लिए इसे अपने ऊपर लिया और प्रेस कांफ्रेन्स की। उसमें केजरीवाल ने कहा कि आम लोगों को सुविधाएं देना रेवड़ी नहीं है बल्कि बड़े उद्योगपतियो के कर्ज माफ करना रेवड़ी बांटना है। इससे आगे बढ़ कर उन्होंने श्रीलंका में अडानी समूह को विंड पावर का प्रोजेक्ट दिलाने में पैरवी करने का बेहद गंभीर मुद्दा उठाया और कहा कि विदेशी सरकारों पर दबाव डाल कर अपने दोस्तों को ठेका दिलाना रेवड़ी बांटना है। इसी तरह सिंगापुर जाने की मंजूरी नहीं मिलने पर भी केजरीवाल ने याद दिलाया कि कैसे कुछ साल पहले तक अमेरिका ने नरेंद्र मोदी का वीजा रोका हुआ था। कुल मिलाकर साफ हो गया है कि केजरीवाल एक बार फिर मोदी से टकराव बढ़ा रहे हैं, क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव में उनको अपनी दावेदारी पेश करनी है।

धनुष-बाण नहीं बचा पाएंगे उद्धव ठाकरे

शिव सेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने बड़े भरोसे के साथ कहा था कि उनका चुनाव चिह्न धनुष बाण उनसे कोई नहीं छीन सकता है, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि यह चुनाव चिन्ह उनके पास नहीं रहेगा। महाराष्ट्र विधानसभा और लोकसभा में एकनाथ शिदे गुट के असली शिव सेना बनने के बाद अब चुनाव आयोग के सामने उनको साबित करना है कि वे असली शिव सेना है। चुने हुए जन प्रतिनिधियों की दो-तिहाई से ज्यादा संख्या साथ में होने से शिंदे गुट के लिए यह काम बहुत आसान है। यह सही है कि उद्धव ठाकरे के पास संगठन की ताकत है और राष्ट्रीय कार्यकारिणी व प्रदेश कार्यकारिणी के ज्यादातर सदस्य उनके साथ हैं, लेकिन इसके दम पर वे पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह अपने पास नहीं बनाए रख सकते। चुनाव आयोग आमतौर पर जन प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर फैसला करता है। चूंकि भाजपा पूरी तरह से एकनाथ शिंदे के साथ है, लिहाजा ज्यादा संभावना इस बात की है कि चुनाव आयोग उनके पक्ष मे फैसला करेगा। अगर चुनाव आयोग तटस्थ होकर फैसला करे तो वह संगठन की ताकत और जन प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर फैसला करेगा और तब किसी एक पक्ष को पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह देने की बजाय वह दोनों जब्त कर लेगा और दोनों गुटों को नया नाम व नया चुनाव चिन्ह आवंटित करेगा। ऐसा ही तटस्थ फैसला चुनाव आयोग ने बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के मामले में किया था। चूंकि भाजपा को वहां दोनों गुटो को खुश रखना था, इसलिए फैसला तटस्थ रूप से हुआ। महाराष्ट्र का मामला अलग है। चूंकि वहां जल्दी ही बृहन्मुंबई नगर निगम के चुनाव होना है, इसलिए फैसला ऐसा होगा, जिससे उद्धव ठाकरे खेमे को ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। 

कांग्रेस के सामने आप और ओवैसी भी चुनौती 

इस साल और अगले साल जिन-जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं, वहां कांग्रेस को सिर्फ भाजपा से नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी और असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की चुनौती से भी मुकाबला करना है। ये दोनों पार्टियां हर उस राज्य में जाकर राजनीति कर रही है, जहां अब तक कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है। इसीलिए इन दोनों पार्टियों को भाजपा की बी टीम भी कहा जा रहा है। अब सवाल यह है कि क्या वाकई ये दोनों पार्टियां किसी बड़े डिजाइन के तहत राजनीति कर रही हैं या स्वाभाविक रूप से मान रही हैं कि कांग्रेस को कमजोर करके अपना आधार मजबूत किया जाए, भले ही इस प्रयास मे भाजपा जीत जाए तो जीत जाए? ताजा मिसाल मध्य प्रदेश की है, जहां ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के कारण कांग्रेस बुरहानपुर में मेयर का चुनाव हारी। ओवैसी की पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था, जिसे 10 हजार से ज्यादा वोट मिले, जबकि कांग्रेस का उम्मीदवार 543 वोट से हारा। इसी तरह सिंगरौली में आम आदमी पार्टी मेयर का चुनाव जीत गई। वहां दूसरे स्थान पर कांग्रेस और तीसरे पर भाजपा रही। इससे पहले मध्य प्रदेश मे आमतौर पर सीधे भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला होता था। लेकिन अब दो और पार्टियां आ गई हैं, जो अगले साल होने वाले चुनाव में कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा करेंगी। ये दोनों पार्टियां कांग्रेस के लिए ऐसी ही मुश्किल राजस्थान और गुजरात में भी पैदा करेंगी। सांप्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील बना दिए गए इन दोनों राज्यों में आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम कांग्रेस के वोट काटेंगी। हिमाचल प्रदेश में यह काम अकेले आम आदमी पार्टी करेगी, क्योंकि वहां मुस्लिम आबादी नाममात्र की है।

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