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मुद्दा: क्या ‘अग्निपथ’ का असली मक़सद पिछले दरवाज़े से समाज का सैन्यीकरण करना है?

ऐसी विस्फोटक पृष्ठभूमि में इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि चार साल ठेके पर सेना की नौकरी किए बेरोजगार घूम रहे यह नौजवान - जिनके पास बंदूक का लाइसेंस भी होगा और हो सकता है कि बंदूक भी हो - किन ताकतों का औजार बनेंगे?

agnipath

सिर मुडाते ही ओले पड़े

यह पुरानी कहावत जनाब मोदी के एक और मास्टरस्ट्रोक के तौर पर पेश की अग्निपथ योजना - जिसके तहत ठेके पर सैनिकों की भर्ती की जाने वाली है - के ऐलान के बाद बिल्कुल साकार होती दिख रही है।

कहां तो हुक्मरानों का आकलन था कि इसके बहाने रोजगारशुदा युवाओं के बीच नयी लोकप्रियता हासिल करने का मौका सरकार को मिलेगा और अब आलम यह है कि आए दिन नयी नयी छूटों का ऐलान करना पड़ रहा हैऔर इस बात के भी कयास लगाए जा रहे है कि इस योजना का भी हश्र कृषि कानूनों की तर्ज पर होगा और इसे भी इस सरकार को वापस लेना पड़ेगा।

गौरतलब है कि योजना के ऊपर लग रहे तमाम लांछनों से प्रधानमंत्री की छवि बचाने के लिए अचानक कहा जाने लगा है कि यह योजना प्रिय नेता’ की नहीं बल्कि डिपार्टमेंट ऑफ मिलिटरी अफेयर्स की अपनी योजना है। खुद नौसेना के प्रमुख जिन्होंने इस योजना पर साल डेढ़ साल काम किया हैउन्होंने  अपने साक्षात्कार में कहा कि उन्हें भी इस बात अंदाज़ा नहीं था कि युवा इस ढंग से प्रतिक्रिया देंगे।

वैसे वजीरे आजम मोदी के कट्टर आलोचकों ने भी यह सोचा नहीं होगा कि इस योजना के ऐलान के बाद युवा आक्रोश की एक नयी लहर पैदा होगीजिसका दायरा उत्तर से लेकर दक्षिण के राज्यों तक भी फैलेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ उत्तर के कई राज्यों से लेकर दक्षिण के राज्यों में भी इसके खिलाफ युवाओं के प्रदर्शन हुए हैंकमसे कम आठ राज्य इस आक्रोश के चपेट में हैभाजपा द्वारा स्वतः शासित या अपने सहयोगियों के साथ शासित राज्यों में बिहारयूपीमध्यप्रदेशहरियाणा आदि में उसका अधिक जोर है। युवाओं का स्वतःस्फूर्त आक्रोश कई स्थानों पर हिंसक शक्ल भी धारण किया है तेलंगाना में युवाओं की उग्र भीड़ पर पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली से एक युवा की मौत की भी ख़बर है और इस मसले पर आक्रोशित युवाओं ने 18 जून को बिहार बंद का भी आह्वान किया थाजिसे तमाम विपक्षी दलों  ने भी समर्थन दिया है।

मालूम हो कि योजना को लेकर पूर्व सेना प्रमुख एवं कैबिनेट मंत्री वी के सिंह ने कह दिया है कि उनकी सलाह नहीं ली गयी है सांसद वरुण गांधी ने योजना का विरोध किया है और केंद्र एवं बिहार में भाजपा की सहयोगी पार्टी जनता दल (यू) ने भी वक्तव्य दिया है कि चूंकि इस योजना का संबंध देश की रक्षा और सुरक्षा से हैइसलिए इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। सेना के कई अधिकारियों  ने भी - जो बड़े पदों पर रह चुके हैं - उन्होंने  सेना के पेशेवर रुख को खतम करने की इस योजना को खारिज करने की मांग की है।

इतना ही नहीं इस योजना की इस पहलू पर भी जबरदस्त आलोचना हो रही है कि किस तरह नौकरियों के विनाश’’ को नौकरी निर्माण कहा जा रहा है।

‘‘भले ही इसे देशभक्ति रोजगार योजना के तौर पर पेश किया जा रहा हैजिसके तहत मातृभूमि की सेवा के लिए युवकों को अवसर मिलेगालेकिन अग्निपथ यह दरअसल एक छंटनी योजना है जो देश के बेरोजगारों और सुरक्षा से भी खिलवाड़ करती है।’ जाने-माने विश्लेषक शिवसुंदर आगे बताते हैं कि किस तरह हर साल 40 हजार सैनिकों को भर्ती करने का काम अब अग्निपथ योजना के तहत होगाफर्क बस यही होगा कि इनमें से महज 10 हजार के पास चार साल के बाद रोजगार रहेगा बाकियों को छांट दिया जाएगा।

भले ही चार साल बाद ठेके पर रखे गए इन सैनिकों के बड़े हिस्से को छांट देने के बादजो नियमित सैनिकों को अपनी पंद्रह साल की सेवा के बाद पेन्शन आदि देनी पड़ती हैअन्य लाभ देने पड़ते हैंउस वित्तीय जिम्मेदारी से सरकार मुक्त हो जाएगीक्योंकि आज की तारीख में पांच लाख करोड़ का जो सालाना सुरक्षा का बजट हैउसका आधे से अधिक हिस्सा 2.6 लाख करोड़महज तनख्वाह और पेंशन पर ही खर्च होता हैलेकिन इतने बड़े पैमाने पर हथियारों की लाइसेंस पाए युवाओं का हर साल समाज में ढकेला जानाजिनके लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हैकितनी बड़ी सामाजिक अराजकता को जन्म देगाइसके बारे में पीएम मोदी और उनके करीबी सलाहकारों ने सोचा नहीं है।

यह सवाल उठता है कि क्या वह इसके परिणामों से अनभिज्ञ होंगेनिश्चित ही नहीं!

सुरक्षा मामलों  के विशेषज्ञ सुशांत सिंह - जो इन दिनों सेन्टर फार पॉलिसी रिसर्चनई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं, ल जजीरा के अपने आलेख में इस योजना के सामाजिक परिणामों की चर्चा करते हुए देश और दुनिया के कई अनुभवों का हवाला देते हुए बताते हैं कि जिन समाजों का अधिक सैन्यीकरण हुआ होता है अर्थात जहां बहुसंख्यक हथियारों में प्रशिक्षित होते हैं और अल्पसंख्यक इससे वंचित होते हैं वहां बढ़ते सामाजिक विग्रह तथा विवादों के वक्त़नस्लीय या धार्मिकसांप्रदायिक विवादों में किसी इलाका विशेष के बहुसंख्यक’ अपने इलाकों से वहां के अल्पसंख्यकों’ पर अधिक कहर बरपा करते दिखते है।

नब्बे के दशक में युगोस्लाविया के विघटन के बाद वहां चली नस्लीय सफाये की घटनाओं का वह जिक्र करते हैं तथा रवांडा में हुतू कबीले के हथियारबंद मिलिशिया द्वारा अल्पसंख्यक तुत्सी कबीले तथा कुछ मध्यमार्गी हुतू और त्वा लोगों के चले कत्लेआम की घटनाओं का विशेष हवाला वह देते हैं। याद रहे एक मोटे अनुमान के तहत अप्रैल 1994 से 15 जुलाई 1994 के दरमियान रवांडा में पांच लाख से लेकर छह लाख बासठ हजार लोग मारे गए थे।

बंटवारे के वक्त़ हुई हिंसा  के अनुभव तो जगजाहिर हैं - जिसमें एक मोटे अनुमान के हिसाब से 10 से 20 लाख लोग मारे गए थे और लगभग सवा करोड़ लोग अपने अपने घरों से जबरदस्ती विस्थापित कर दिए गए थे। मरने वालों  में और मारने वालों में सभी समुदायों के लोग- सिखमुस्लिम तथा हिंदू सभी शामिल थे। अध्ययन यही बताते हैं कि पंजाब के उन इलाकों में अधिक हिंसा हुई - सरहद के दोनों तरफ - जो इलाके अधिक हथियारबंद थेयाद रहे पंजाब से ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए बड़े पैमाने पर सिखमुस्लिम आदि जाते थेऔर ऐसे रिटायर्ड सैनिकों की संख्या दोनों तरफ थी।

इस बात के मद्देनज़र आज की तारीख में  भारतीय उपमहाद्वीप में  बहुसंख्यकवादी हिंसा उरूज पर हैअल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों  को तरह तरह से निशाना बनाया जा रहा है और यह भी देखने में आ रहा है कि ऐसी हिंसा को लेकर सत्ता में  बैठे लोगों की शह प्राप्त हैजनतंत्र का प्रहरी कहलाने वाली मीडिया भी इसी एकांगी नज़रिये की हिमायत कर रहा हैहमें बेहद सतर्क रहने की ज़रूरत है।

देखने में यही आ रहा है कि अल्पसंख्यकों के जनसंहारों  का खुलेआम आह्वान भरी सभाओं  में किया जाता हैलेकिन न केवल कार्यपालिका बगले झांकती दिखती है बल्कि अगर अपवादों  को छोड़ दें तो न्यायपालिका की प्रतिक्रिया भी संविधान के सिद्धांतों एवं मूल्यों की रक्षा करने के बजायसबकुछ देखते समझते हुए कुछ औपचारिक कार्रवाई तक सीमित हो जाती है।

ऐसी विस्फोटक पृष्ठभूमि में इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि चार साल ठेके पर सेना की नौकरी किए बेरोजगार घूम रहे यह नौजवान - जिनके पास बंदूक का लाइसेंस भी होगा और हो सकता है कि बंदूक भी हो - किन ताकतों का औजार बनेंगे?

नियमित सेना के प्रशिक्षण में जहां एक पेशेवर रूख अख्तियार किया जाता हैआज भी आधिकारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष प्रशिक्षण होता हैवहां ठेके पर रखे गए इन सैनिक युवाओं के दिमाग़ में  कैसी कैसी अनर्गलअनैतिहासिक बातें - जिसमें अन्य’ समुदायों के प्रति नफरत का ककहरा सिखाया जाए, - भर दी जाएंइसकी गारंटी कौन करेगा?

अगर इनका अच्छा खासा हिस्सा, हिन्दू राष्ट्र के स्वयंभू फौजी में रूपांतरित हो जाए और भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को खत्म कर उसे हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का इरादा रखने वाली जमातों के किसी आनुषंगिक संगठन मेंपरिवारी संगठन में शामिल हो जाएइससे क्या बचा जा सकेगा?

हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज के बहुसंख्यकों का सैन्यीकरण करने की तमन्ना लंबे समय से हिन्दुत्ववादी जमातें रखती आयी हैं।

आप को याद होगा विनायक दामोदर सावरकर - जिन्हें हिन्दुत्ववादी जमातें स्वातंत्रवीर’ के तौर पर याद करती हैंउन्होंने तो चालीस के दशक के पूर्वार्द्ध में जब उपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ी कांग्रेस पार्टी और समाज के अन्य रैडिकल धड़े ब्रिटिशों के खिलाफ करो या मरो’ का संघर्ष चला रहे थेउन दिनों यही सावरकर भारत के दौरे पर निकले थे और घूम घूम कर सभाओं मेंमीटिंगों में हिन्दू युवकों का आह्वान कर रहे थे कि वह सेना में भर्ती हों। हिन्दुओं का सैन्यीकरण करो और राष्ट्र  का हिन्दुकरण करो’ ( Militarise Hindus and Hinduise Nation ) का उनका  नारा एक तरह से बढ़ते जनान्दोलनों से निपट रही ब्रिटिश सरकार की दमन की कोशिशों के लिए मददगार साबित हो रहा था।

इन संगठनों के इतिहास को हम पलटें तो ऐसी कई मिसालें देखने को मिलती है।

इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य रहे तथा एक वक्त डॉ. हेडगेवार के संरक्षक रहे हिन्दू महासभा के डॉ. बी एस मुंजे की भूमिका गौरतलब है। ( संघ के अन्य संस्थापक सदस्य थे डॉ. एल वी परांजपेडॉ. बी बी थलकर और बाबुराव सावरकर - जो विनायक दामोदर सावरकर के भाई थे - देखें, Page 16, Khaki Shorts and Saffron Flags, Tapan Basu, Pradip Datta, Sumit Sarkar, Tanika Sarkar, Sambuddha Sen/ जिन्होंने बाकायदा एक सैनिक स्कूल की स्थापना की थी। एक क्षेपक के तौर पर बता दें कि 21वीं सदी की पहली दहाई में जब हिन्दुत्व आतंकवाद की परिघटना सामने आयी तो उपरोक्त सैनिक स्कूल भी विवादों के साये में रहा था।

अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में  इतालवी विदुषी मार्जिया कासोलारी Hindutva’s foreign tie-up in the 1930s: Archival evidence”  in Economic & Political Weekly, January 22, 2000 Marzia Casolari  ने डॉ. मुंजे की इटली की यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया था और इटली के तत्कालीन तानाशाह मुसोलिनी से उनकी मुलाकात का जिक्र किया थाइतना ही नहीं इटली के ‘‘सैनिक पुनरूत्थान के लिए’’ बैलाडिला संस्था के गठन की तारीफ भी की थी और अपनी डायरी में बाकायदा लिखा था कि हिन्दुओं का सैनिक पुनरूत्थान करने के लिए ऐसे संगठन की आवश्यकता है। (From Munje Diary)

भारत वापसी पर डॉ. मुंजे ने बाकायदा सेंट्रल  हिन्दू मिलिटरी एजुकेशन सोसायटी का गठन किया था / नाशिक, 1935/ और भोसला मिलिटरी स्कूल’ की स्थापना 12 जून 1937 को की थीजिसका उद्घाटन ग्वालियर स्टेट के महाराजा श्रीमान जियाजीराव सिंदिया ने किया था। स्कूल निर्माण का मकसद था “..to bring about military regeneration of the Hindus and to fit Hindu youths for undertaking the entire responsibility for the defence of their motherland. ... to educate them in the ‘Sanatan Dharma’, and to train them “in the science and art of personal and national defence” (‘Central Hindu Military Education Society,’ NMML, Munje Papers, subject files, n 24, 1932-36) 

वर्ष 2012 में जब इस स्कूल के गठन के पचहत्तर साल पूरे हुए तो उसके कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर संघ सुप्रीमो मोहन भागवत गए थे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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