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मुग़ल बादशाह और हिन्दी कविता : ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’

इस युग का सत्ता विमर्श, ‘अतीत के प्रेत’ को खड़ा करके लड़ा जा रहा है। यहां दिलचस्प तथ्य यह है कि अतीत का सबसे बड़ा मध्यकालीन प्रेत "उत्तम लगन शोभा सगुन गिन गिन ब्रह्मा विष्णु महेश व्यास कीनो शाह औरंगजेब जसन तखत बैठो आनन्दन" है।
मुग़ल बादशाह
मुग़ल शैली की पेंटिंग। साभारः भारतीय चित्रकला,वाचस्पति गैरोला

उत्तम लगन शोभा सगुन गिन गिन ब्रह्मा विष्णु    

महेश व्यास कीनो शाह औरंगजेब जसन तखत बैठो आनन्दन ।

नग खेंच दाम विशात वर गायन मोहनप्रत

ब्रह्मा रचौ तिन मध गायन गुमी जन गावत तिनके हरत दुखदन्दन ।।

एक निर्तत निर्तत लास ताण्डव रंग भावन एक वन

बावत वन्दिक पंडित कर कवि सरस पूरण चन्दन ।

शाह औरंगजेब जगत-पीर-हरण लोक तारे

निस्तारे फन्देही रहत दुख दारिद्रके गंजन ।।

                          -औरंगजेब

इस कविता को पढ़ कर लोगों को सहज यकीन नहीं होता है कि इस कविता का रचियता औरंगज़ेब है।

दरअसल बाबर को इस बात का एहसास रहा होगा कि उसने भारत में पानीपत के मैदान और खनवा के मैदान में दो-दो लड़ाइयां लड़ीं हैं, इसलिये यहां के लोगों की नजर में वह हमलावर व आक्रांता है और अभी भी बाहरी है।

उसने महसूस किया कि हिन्द के अवाम और मुगलों के बीच एक फासला है और इस फासले को भरना जरूरी है। बाबर ने अपने बड़े बेटे हुमायूं के नाम एक वसीयत की," अल्लाह त्आला ने हमें एक ऐसे मुल्क  की हुकूमत अता की है जिसकी अक्सरीयत बुतपरस्ती में यकीन करती है तू उनकी इबादतगाहों की हिफाजत कर और गोकशी पर पाबंदी लगा।" बाबर की इन्हीं नसीहतों  और दिये गये माहौल का परिणाम था कि भावी मुग़ल पीढ़ी हिन्दोस्तानी संस्कृति और तहजीब के साथ अपने को एकाकार कर सकी।

बाबर चग़ताई तुर्की में कविताएं लिखता था। बाबर की तुर्की कविता का दीवान रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी में मौजूद है। प्रोफेसर हादी हसन के मुताबिक, बाबर की फारसी में लिखी उन्नीस कविताएं हैं। वह ग़ज़लें और रुबाइयां भी लिखता था। बाबर की कविताओं के संबंध में एक लेख 'कृति-लक्षण' नाम की पत्रिका में एस .एम. अजीजुद्दीन हुसैन ने लिखा है। बाबर ने अपनी भाषाई समस्या प्रकट करते हुए लिखा,"न हम यहां की बोली समझ सकते हैं और न यहां वाले हमारी जबान जानते हैं।” बावजूद बाबर ने स्थानीय बोली सीखने और समझने की कोशिश की, जिसका सबूत यह है कि बाबर की तुर्की कविता के दीवान में एक ऐसा शेर है जिसमे 'दो' शब्द हिन्दी के हैं:

मुज-का न हुआ कूज हवस-ए-मानक-ओ-मोती ।

फुकरा हालीन बस बुल्गुसिदुर पानी-ओ-रोती ।।

बाबर परिवार की महिलाएं भी फारसी में कविताएं लिखती थीं। जेबुन्निसा की जीवनी लेखिका फ्रांसीसी महिलाए एनी क्रेगर क्राइनिकी ने लिखा है,'बाबर की बेटी  गुलबदन बेगम और नातिन सलीमा सुल्ताना फारसी में कविताएं लिखती थीं।

बाबर की वसीयत को हुमायूं से लेकर औरंगज़ेब तक सभी वारिसों ने बतौर शासकीय नीति मान कर अमल किया। औरंगज़ेब की जो कविता लोगों को चौंका रही है, हैरत में डाल रही है उसकी पहली पंक्तियां ये हैं ---"उत्तम लगन शोभा सगुन गिन गिन ब्रह्मा विष्णु महेश व्यास कीनो शाह औरंगज़ेब जसन तखत बैठो आनन्दन।" इन पंक्तियों से वे लोग चौंक रहे हैं, हैरां हो रहे हैं जो औरंगज़ेब की गढ़ी गयी कट्टर छवि के अनुसार उसका मूल्याकंन करते हैं। औरंगज़ेब तौहीद (अद्वैतवाद) में यकीन करने वाला उसूली मुसलमान था।

बाबर की वसीयत ने हुमायूं के वारिसों को इस देश के बहुसंख्यक लोगों के मज़हबी यकीन की कद्र करने का हुक्म दिया था। बेशक, "उत्तम लगन शोभा सगुन गिन ब्रह्मा विष्णु महेश व्यास कीनो...” पंक्तियां औरंगज़ेब के धार्मिक-आध्यात्मिक यकीन नहीं हैं, लेकिन हुमायूं-अकबर की संतानों-पीढ़ियों के लिए ये नैसर्गिक एवं सांस्कृतिक प्रतीक के प्रति अभिव्यक्त प्रशस्ति भावना है।

लेखक गोण्डा में अपने मुस्लिम दोस्त की बहन की शादी  में गया था। वहां महिलाएं विवाह गीत गा रही थीं,"डोली चढ़ के आए रघुवीरा"। मैं आश्चर्यचकित! मित्र से बाद में मैंने पूछा, 'क्या तुम लोगों के यहां भी लड़की के लिए आदर्श दूल्हा 'रघुवीर' ही हैं?’  ‘होगा ही, छोटी बुआ की शादी में भी यही गीत सुना था’, मित्र ने जवाब दिया।   

बाबर बहुत ही, ''सुशिक्षित, सुसंस्कृत, सतर्क और पारखी दिमाग का मालिक था। वह साहित्य अनुरागी और कविहृदय था। उसका तुर्की में लिखा गया संस्मरण 'बाबरनामा' की, विशेषता उसकी भाषा की सरलता और सुतथ्यता है (प्रगति प्रकाशन)। बाद में इस किताब का तरजुमा फारसी में अकबर के आदेश से किया गया। "बाबर कला रसिक था, ईरानी कला का उत्कर्ष उसकी आंखों के सामने हुआ था। प्रसिद्ध ईरानी चित्रकार कमालउद्दीन विहजाद के चित्रों को उसने स्वयं देखा था।

बाबर ने अपनी आत्मकथा में बिहजाद के चित्रों की मार्मिक समीक्षा की है। (भारतीय चित्रकला का विकास: मंजु प्रसाद)। हुमायूं ने इस परंपरा (कला प्रेमी और कला मर्मज्ञ) को विरासत के रूप में  पाया। उसका चित्र प्रेम इसी से समझा जा सकता है कि अपनी युद्ध यात्राओं में भी अपने पास सचित्र पुस्तकें रखता था, यात्रा के दौरान नजदीकी दोस्तों में चित्रकार भी होते थे। शिराज (ईरान)निवासी ख्वाजा अब्दुस्समद ने हुमायूं और अकबर को चित्रकला सिखाई थी। मीर सैयद अली  नामक चित्रकार जो 'जुदाई' उपनाम से कवित्त करते थे,  हुमायूं के दरबार की शोभा बढ़ा रहा था।

हुमायूं कविता का प्रेमी था,वह खुद कविता लिखता था इसकी कोई जानकारी नहीं है। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर  पाण्डेय के अनुसार, "हुमायूं के कविता प्रेमी होने के दो सबूत हैं। एक तो उसके दरबार में फारसी के कुछ ऐसे कवि थे जो हिन्दी में गीतों की रचना करते थे। वे थे अब्दुल वाहिब बिलग्रामी और शेख गदाई देहलवी।" दूसरे हुमायूं के शासन का इतिहास लिखने वाले ख्वुंद मीर की किताब में 'कानून-ए-हुमायूँनी' में जगह-जगह कविताएं दी गई है।

डॉ. मैनेजर पाण्डेय का कथन है, अगर हुमायूं कविता प्रेमी नहीं होता तो शासन के इतिहास में कविताएं नहीं होती। हुमायूं का अधिकांश समय अपनी बादशाही बचाने की लड़ाई में व्यतीत हुआ। बावजूद इसके शासन के लिए जो भी वक्त उसे उपलब्ध हुआ उसमें उसने हिंदी के कवियों और उनकी कविता को प्रश्रय दिया। हुमायूं के दरबार में दो कवि ऐसे थे जो हिन्दी और फारसी दोनों भाषाओं में लिख रहे थे। हुमायूं के दरबार में छेम नाम के एक हिन्दी कवि भी थे।

एलिसन बुश ने अपनी किताब 'पोएट्री आफ किंग्स' में मुग़ल दरबार से जुड़े रीति काल के कवियों का विस्तार से विवेचन किया है। एलिसन के अनुसार, "शेरशाह सूरी के वारिस इसलाम शाह के दरबार में हिन्दी कविता का स्वागत होता था। शाह आलम के दरबार में अवधी के कवि में मंझन और ब्रजभाषा के नरहरि थे। नरहरि बाद में अकबर के दरबार में शामिल हुए।

मैनेजर पाण्डेय ने अकबर की कला प्रियता का विशद वर्णन करते हुए लिखा, "अकबर अनेक कलाओं का संरक्षक था। अकबरी दरबार में ध्रुपद और विष्णुपद का उल्लेख 'आइने अकबरी' में है। अकबर के दरबार के लगभग सभी नवरत्न हिन्दी के कवि थे। उनमें अब्दुल रहीम खानखाना के साथ तानसेन, बीरबल, टोडरमल और फैजी हिन्दी में कविता लिखते थे।”

मिश्रबन्धु विनोद के अनुसार जेतराम नाम के एक कवि अकबरी दरबार में थे। दरबार में एक और रीति कवि कर्णेश और दूसरे मनोहर कछवाह थे। एक और चर्चित ब्रज भाषा के कवि हैंण गंग जिनकी अनेक कविताएं मिलती हैं। एक और हिन्दी कवि शेख शाह मोहम्मद फरमली थे जिनकी रचना है ' सिंगार सतक'।

अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं, रहीम खानखाना। रहीम ने तुर्की, फारसी, संस्कृत, ब्रजभाषा और अवधी में कविताएं लिखीं हैं। उनकी कविताओं में खड़ी बोली के भी प्रयोग मिलते हैं। रहीम केवल अकबर के दरबार के कवि नहीं थे, उनका अपना भी कवि दरबार था। वे मुग़ल काल के सांस्कृतिक व्यक्ति थे।

अकबर की हिंदी कविताएं 'संगीत रागकल्पद्रुम' में संग्रहित हैं। अकबर केवल कविता प्रेमी ही नहीं वह स्वयं कवि भी था। 'अकबर के जीवन कुछ घटनाएं' किताब के संपादक शीरीं मुसवी ने, 'कवि तथा आलोचक' शीर्षक के अंतर्गत लिखा है;" बादशाह सलामत का स्वभाव बड़ा प्रेरणामय है वे हिन्दी और फारसी में कविताएं भी लिखते हैं। वह बहुधा काव्यालोचन के गम्भीर विषयों पर भी चर्चा करते हैं तथा उनकी विविधता एवं सुन्दरता की व्याख्या भी करते हैं। निम्नलिखित काव्यांश बादशाह की योग्यता का परिचय देता है :

मजनूँ के गले में ये पागल-पन की जंजीर नहीं है

यह स्नेह का हाथ है जिसे प्रेम ने उसके गले पर रखा है।

जहाँगीर ने अपने संस्मरण में अपने पिता के बारे में लिखा है,"उनकी गद्य तथा पद्य दोनों में बड़ी गति थी इसलिए उनके निरक्षर होने की बात भी कल्पना से बाहर थी।" अकबर ने हिन्दी में कविताएं लिखीं हैं। यह बात हिन्दी साहित्य के कई इतिहास में लिखी गई है।

राहुल सांस्कृत्यायन की किताब 'अकबर' में फारसी में अकबर की दो कविताओं के उदाहरण दिए गए हैं। अकबर का बेटा दानियल भी हिन्दी में कविता लिखता था ।

जहांगीर हिन्दी और फारसी दोनों भाषाओं में कविता लिखता था। एके क्राइनिकी ने लिखा है कि नूरजहाँ फारसी में कविताएं लिख कर जहांगीर के पास भेजती थी, जिसका वह फारसी कविता में ही जवाब देता था। नूरजहाँ 'मकफी' उपनाम से फारसी में कविता लिखती थी। प्रोफेसर हरबंस मुखिया ने नूरजहाँ की एक फारसी कविता का अनुवाद अपनी किताब 'भारतीय मुग़ल' में दिया है, जो नूरजहाँ की कब्र पर उत्कीर्ण है। वह कविता है :-

बर मजारे के मा ग़रीबाँ ने चरागे ने गुले,

ने परे परवाना सोज़द, ने सदा-ए-बुलबुले।

इसका अर्थ है, "हम गरीबों की मजार पर न कोई चराग जलता है न गुलाब खिलता है। न कोई परवाना आकर अपने पर जलाता है न बुलबुल सदा देती है।

जहांगीर की हिन्दी कविताएं संगीत रागकल्पद्रुम में हैं

अकबर के समय से मुग़ल शहजादे-शहजादियों को चार भाषाओं की शिक्षा दी जाती थी। वे भाषाएं थीं,  तुर्की (मुगलों की भाषा), अरबी (धर्म की भाषा) फारसी   (राजकाज की भाषा) और ब्रजभाषा (स्थानीय सम्पर्क की भाषा)।

इस (भाषा) प्रसंग में चार बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहली बात यह कि मुग़लकाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ब्रजभाषा और अवधी में कविताएं लिखते थे। इस तथ्य से औरंगज़ेब परिचित था। दूसरी बात यह कि अकबर के समय से मुग़ल दरबार में ब्रजभाषा की जो जगह और इज्ज्त थी उससे भी औरंगज़ेब वाकिफ था। तीसरी बात यह कि स्थानीय भाषा ब्रजभाषा को औरंगज़ेब शासन के लिए सुविधाजनक समझता था। चौथी बात यह कि "संगीत रागकल्पद्रुम से यह साबित होता है कि औरंगज़ेब खुद ब्रजभाषा में कविताएं लिखता था"। औरंगज़ेब इश्क़े मजाज़ी (सांसारिक प्यार) का विरोधी था, चाहे वह फारसी कविता में हो या हिन्दी कविता में। इश्क़े हक़ीक़ी (ख़ुदा से प्यार) कविता का वह विरोधी नहीं था।

औरंगज़ेब की भाषा नीति के बारे में बर्नियर ने लिखा है,  "शासक बनने के बाद औरंगज़ेब ने अपने मजहबी उस्ताद से कहा था, 'एक शासक के लिए धर्म की भाषा से अधिक उपयोगी है, स्थानीय भाषा'। क्या मातृभाषा में प्रार्थना नहीं की जा सकती?" औरंगज़ेब अपनी भाषाई परिकल्पना को अमलीजामा देने के लिए अपने बेटे आजमशाह को ब्रजभाषा में शिक्षा के लिए मीरजा खां को उस्ताद बनाया, जिन्होंने 1776 में ब्रजभाषा का व्याकरण लिखा था।

औरंगज़ेब के दरबार में हिन्दी के एक कवि वृन्द थे जो कभी-कभी औरंगज़ेब को खरी-खोटी सुना देते थे। कालिदास जैसे कवि औरंगज़ेब की वीरता की तारीफ करते थे। औरंगज़ेब के कुछ मनसबदार हिन्दी के कवियों को संरक्षण देते थे। ऐसे ही एक मनसबदार हिम्मत खान मीर इसा थे जो कवियों को संरक्षण देने के कारण अपने समय के रहीम खानखाना कहे जाते थे। उन्होंने श्रीपति भट्ट,बलवीर और कृष्ण कवि को संरक्षण दिया।

औरंगज़ेब के बाद के मुग़ल बादशाहों में सबसे लम्बे समय तक शाह आलम सानी बादशाह रहे। वे अकेले मुग़ल बादशाह थे जिन्होंने अपने जीवन काल में (1797 ईस्वी) अरबी, फारसी, उर्दू, हिन्दी कविता का दीवान "नादिराते शाही" नाम से प्रकाशित कराया। यह संग्रह इसलिए महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट है,  ''प्रत्येक कविता के ऊपर राग व ताल का स्पष्ट उल्लेख है। दूसरी विशेषता यह है कि शाह आलम ने बड़ी संख्या में दोहरे या दोहों की रचना की है। तीसरी विशेषता यह है कि 'नादिराते शाही' की हिन्दी कविता अनेक उपशीर्षक में विभाजित हैं। ये उपशीर्षक हैं- सीठने, होरा, कवित्त, दोहरा और कबत व दोहरा नायका भेद।" (मैनेजर पाण्डेय)

शाहजहां अन्य कलाओं के साथ ही कविता का भी प्रेमी था। एके क्राइनिकी ने लिखा है,"कविता शाहजहां के दरबार की भाषा बन गयी थी। बादशाह दरबार में कविता में बातें करता था, आम जनता से और अपने दरबारियों से भी, और दूसरे लोग भी कविता में ही जवाब देते थे। शाहजहां का बड़ा बेटा दाराशिकोह फारसी का कुशल कवि था, वह कादरी तखल्लुस से फारसी में कविताएं लिखता था। उसकी फारसी शायरी की तारीफ कई विद्वानों ने की है। उसकी फारसी शायरी का दीवान लम्बे समय तक खोए रहने के बाद मिल गया।

दाराशिकोह के दीवान में ग़ज़लें और 28 रुबाइयां हैं। दाराशिकोह हिन्दी में कविता लिखता था। हिन्दी में उसकी दो किताबों का जिक्र मिलता है---'दोहास्तव' और 'सार संग्रह' परन्तु अब तक वे किताबें या पाण्डुलिपि प्राप्य नहीं है। शाहजहां की बड़ी बेटी जहाँआरा भी फारसी में कविता लिखती थी। उसकी कब्र पर उसी की फारसी में लिखी कविता की दो पंक्तियां उत्कीर्ण हैं, उनका जैसा-तैसा हिन्दी अनुवाद यह है: घास सबसे अच्छी चादर है/ एक गरीब  की कब्र के लिए।

शाहजहां के दरबार में कवियों की संख्या बहुत थी। उनमें फारसी, संस्कृत और हिन्दी के कवि थे। शाहजहां के दरबार में संस्कृत के दो कवि थे,पंडितराज जगन्नाथ और कविन्द्राचार्य सरस्वती। दाराशिकोह भी फारसी के साथ संस्कृत का ज्ञाता था। उसने -बावन उपनिषदों- का अनुवाद फारसी भाषा में किया एवं "सिरें अकबर" शीर्षक से लिखा ।

औरंगज़ेब के बेटे आज़म शाह की हिन्दी कविताएं 'संगीत रागकल्पद्रुम' में हैं। उनकी बेटी जेबुन्निसां एके क्राइनिकी के अनुसार फारसी की बड़ी शायरा थीं। फारसी कविताओं का उनका दीवान तकरीबन आधी सदी बाद,सन् 1752 में उनकी मृत्यु के बाद,"मकफी का दीवान" शीर्षक से छपा। फारसी के कई विद्वानों ने जेबुन्निसां की कविताओं की तारीफ की थी। फारसी के अनेक कवि जेबुन्निसां के दरबार में रहते थे। जेबुन्निसां मीराबाई की कविताओं से प्रभावित थी। शैलेश जैदी के अनुसार, 'जेबुन्निसां हिन्दी में कविता लिखती थीं।’

मुहम्मदशाह की बहुत सी कविताएं 'संगीत रागकल्पद्रुम' में है। मुहम्मदशाह के ज़माने में ही मुग़ल दरबार में फारसी का असर घटा और उसकी जगह उर्दू शायरी आ गई। उसी वक्त वली दिल्ली आए और उर्दू शायरी की राह बनायी। इस बात की गवाही उनका यह शेर देता है-

दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन

जा  कहो  कोई  मोहम्मद  शाह से ।

अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र थे। उनकी हिन्दी कविताएं 'संगीत रागकल्पद्रुम' में हैं। वे उर्दू में ज़फ़र तख़ल्लुस के साथ जो शायरी करते थे उसी के लिए खास तौर से जाने जाते हैं। उनके दरबार में ज़ौक़ और ग़ालिब जैसे शायर थे।  जफ़र की शायरी में उनके जीवन की दशा एवं उनके समय की उथल-पुथल की मार्मिक अभिव्यक्ति है। बहादुरशाह के शासनकाल में मुग़ल सत्ता और दिल्ली शहर दोनों की हालत खराब थी। कवि और शायर के रूप में 'ज़फ़र' की मुग़ल शासन की बेचारगी और दिल्ली की बदहाली पर बादशाह बहादुरशाह शायर-कवि ज़फ़र की, कलम बयानी में उस वक्त की दिल्ली :

जिन गलिन में पहले देखी लोगन की रंगरलियां थीं ।

फिर देखा जो उन लोगन बिन सूनी पड़ी व गलियां थीं।

ऐसी अखियां मीचे पड़े हैं करवट भी नहीं ले सकते,

जिनकी चालैं अलबेली और चलने में छलबलियां थीं।

खाक का उनका बिस्तर है और सर के नीचे पत्थर, 

हाय वह शकलैं प्यारी प्यारी किस किस चावसे पलियां थीं।

अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र की यह मार्मिक आत्मस्वीकृति है। देश और दिल्ली की अंग्रेज़ी कम्पनी द्वारा लूट से बरबाद और बेहाल देश व दिल्ली की बदहाली देख लाचार बादशाह की आत्मपीड़ा का आर्तनाद है। यह एक अवहेलित बादशाह, अधिकार रहित, मात्र ताजपोश शासक की विवश स्थिति की दुखांत कविता है।

"भारतीय मुग़ल बादशाहों की हिन्दी कविता" पर काम करते हुए डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने जिन महत्वपूर्ण विद्वतजनों, प्राध्यापकों, शोधार्थियों और स्रोतों के जरिये इस पुस्तक को समृद्ध किया है उनके योगदान की चर्चा करना पुस्तक को तथ्यपूर्ण, युक्ति संग व इतिहास सम्मत कलेवर के लिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

मैनेजर पाण्डेय ने स्मरण किया है, "आज से दस वर्ष पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष सत्यप्रकाश मिश्र की कोशिश और मदद से मुझे एक पुस्तक प्राप्त हुई जिसका नाम है, ''मुग़ल बादशाहों की हिन्दी''। उस पुस्तक के लेखक हैं पंडित चन्द्रबली पाण्डे। पुस्तक 'नागरी प्रचारिणी सभा" काशी से 1940 ईस्वी में छपी थी।" पुस्तक में अकबर से बहादुरशाह ज़फ़र तक की लिखी हिन्दी कविताएं हैं और उनके रूप-रंग, राग-छन्द तथा उनमें व्यक्त भावों और विचारों का विवेचन भी है। श्री पाण्डेय स्वीकार भाव में व्यक्त करते हैं, 'इससे एक ओर काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा की व्यापकता का बोध हुआ तो दूसरी ओर मुगलों शासकों की भाषा नीति स्थानीय भाषा से उनके लगाव और स्थानीय कविता तथा संगीत में उनकी रुचि,गति और निपुणता का भी ज्ञान हुआ।'     

चन्द्रबली पाण्डे की पुस्तक पढ़ने से ही ज्ञात हुआ कि उनके द्वारा मुग़ल बादशाहों की जो कविताएं संकलित की गई  हैं, ' वे लगभग सभी कविताएं कृष्णानंद व्यास देव के विशाल ग्रन्थ, "संगीत रागकल्पद्रुम" से ली गई हैं। बकौल श्री मैनेजर पाण्डेय, 'इस जानकारी ने मुझे 'संगीत रागकल्पद्रुम' की खोज की प्रेरणा दी। डॉ. सत्यप्रकाश की सहायता व प्रयास से, 'संगीत रागकल्पद्रुम' के दो विशाल खण्ड हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के पुस्तकालय में प्राप्त हुए। वह ग्रंथ सन् 1914 व 1916 में छपे थे।

संगीत रागकल्पद्रुम का परिचय देते हुए मैनेजर पाण्डेय का कथन है, "वह मूलतः और मुख्यतः भारतीय संगीत का विशाल ग्रंथ है, जिसमें राग-रागनियों के उल्लेख के साथ-साथ लोक प्रचलित विभिन्न कवियों और गायकों के रचित पदों और गीतों का संग्रह है। इन पदों और गीतों के संग्रहकर्ता हैं कृष्णानन्द व्यास देव रागसागर। संगीत रागकल्पद्रुम के दूसरे खण्ड के संपादक नगेन्द्रनाथ वसु हैं। कृष्णा नन्द व्यास इस ग्रंथ को सात खण्डों में निकालना चाहते थे। लेकिन अनेक कठिनाइयों के कारण अपने जीवन में पूरे ग्रंथ को केवल तीन खण्डों में ही निकाल पाये। ग्रंथ का पहला खण्ड सन् 1842 में,दूसरा खण्ड 1845 में, तीसरा खण्ड 1849 ईस्वी में निकला। जार्ज ग्रियर्सन ने अपना हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते  समय 'संगीत रागकल्पद्रुम' से बहुत मदद ली थी। 1889 में उन्होंने यह भी लिखा कि यह ग्रंथ अब अप्राप्य है। लम्बे समय बाद 1912 में संगीत रागकल्पद्रुम के पुनः प्रकाशन की योजना बनी और उसके नये संस्करण के संपादक बने नगेन्द्रनाथ बसु। दूसरी बार यह विशाल ग्रन्थ पुनः तीन खण्डों में छपा। पहला खण्ड सन् 1914 में और दूसरा तथा तीसरा खण्ड  सन् 1916 में। पहले दो खण्ड देवनागरी लिपि में छपे, तीसरा खण्ड केवल बंगाक्षरों में छपा; क्योंकि तीसरे खंड में अधिकांश पद और गीत बांग्ला के थे।"

पुनः प्रकाशित इस विशाल ग्रंथ के संपादक नगेन्द्र नाथ वसु के अनुसार आरंभिक दो खंडो के गीतों की संख्या 11330 (ग्यारह हजार तीन सौ तीस) है। तृतीय खण्ड के गीतों की संख्या 2562 (दो हजार पांच सौ बासठ।) -- निसन्देह यह महत्वपूर्ण पुस्तक है।

माना जाता है कि संगीत- धर्म, समुदाय, लिंग, भाषा और देशकाल की सरहदों को स्वीकार नहीं करता, वैसे ही कृष्णानन्द व्यास देव ने पदों, गीतों या गानों का संग्रह करते समय किसी तरह का भेद-भाव नहीं किया है; न हिन्दू और मुसलमान के बीच, न बादशाह और फकीर के बीच और न ही स्त्री और पुरुष के बीच। इस देश में जब तक कृष्णा व्यास देव रागसागर जैसे संगीत-साहित्य के साधक जन्म लेते रहेंगे तब तक शस्य श्यामला भारतभूमि सुगठित, सुसंस्कृत और एकीकृत बनी रहेगी।

मैनेजर पाण्डेय जैसे प्रखर समकालीन आलोचक द्वारा संकलित व संपादित पुस्तक, 'मुग़ल  बादशाहों की हिन्दी कविता' आज की एकाधिकारी सत्ता मत के एकांगी आवेग में; संस्कृति-साहित्य में सम्मिलन, संगति, प्रेम और भाईचारा के ऐसे "अरुण यह मधुमय देश हमारा" के मध्यकालीन अतीत से हमारा परिचय कराता है, जो हमें ठहर कर विचार करने हेतु चिंतन के लिए बाध्य करता है। इस युग का सत्ता विमर्श,''अतीत के प्रेत" को खड़ा करके लड़ा जा रहा है। यहां दिलचस्प तथ्य यह है कि अतीत का सबसे बड़ा मध्यकालीन प्रेत "उत्तम लगन शोभा सगुन गिन गिन ब्रह्मा विष्णु महेश व्यास कीनो शाह औरंगजेब जसन तखत बैठो आनन्दन" है। मैनेजर पाण्डेय भी चकित हैं औरंगज़ेब के कवि उवाच से? लेकिन वे सधे हुए आलोचक और गंभीर अध्येता हैं। इस लिए सतर्कतापूर्वक शंका निवारण कर दिया," औरंगज़ेब की जो कविताएं हैं, वे "संगीत रागकल्पद्रुम से ली गई हैं। इसलिए उनकी प्रामाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता। औरंगज़ेब के सामने ब्रजभाषा कविता की जो परम्परा थी, उसी का अनुसरण वह भी कर रहा था, इसीलिए अपने तख्तनशीन होने का वर्णन इस तरह किया।

"मुग़ल बादशाहों की हिन्दी कविता" संग्रह में मुझे जयशंकर प्रसाद की कविता की यह स्वर धुन बार-बार गूंजती हुई प्रतीत होती है, "अरुण यह मधुमय देश हमारा...।

(लेखक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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