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मेरी आस्था, तेरी आस्था…ये आस्थाएं आहत क्यों होती हैं!

डिजिटल मीडिया के दौर में दुनिया के किसी न किसी कोने से हर दिन ऐसी ख़बरें आती हैं जिसे लोगों की आस्था आहत होने के नाम पर राजनीति करने वाले समाज में नफ़रत बोने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। तो ऐसे वक्त में क्या करना चाहिए?
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मौजूदा वक्त में आस्थाओं का आहत होना चुनावी राजनीति के लिए सबसे उपजाऊ जमीन बन कर के काम कर रहा है। हर दिन कहीं न कहीं ऐसा घटना जरूर घटती है जिसे सांप्रदायिक राजनीति करने वाली पार्टियां आस्थाओं के आहत होने के नाम पर लोगों के बीच उछालती हैं। लोग जीवन की सारी अहम परेशानियां किनारे कर उन आस्थाओं पर चर्चा करने के जाल में फंस जाते हैं। यह चर्चा इतनी ख़तरनाक नफ़रत का रूप ले चुकी है कि समाज का सारा ताना-बाना टूट गया है।

समाज का ऊपरी माहौल एक दूसरे के प्रति मदद, उम्मीद और लगाव की बजाए घृणा, जलन और नफ़रत में बदल गया है। समाज का ऊपरी माहौल ऐसा है कि सांप्रदायिक आधार पर हिंसक घटनाएं किसी के उकसाने पर जब मर्जी तब कराई जा सकती हैं।

यकीनन इसमें भाजपा की राजनीति और 24 घंटे नफ़रत का कारोबार करने वाली तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया का हाथ है लेकिन फिर भी अब आ वक्त चुका है कि आस्थाओं की पूरी अवधारणा पर गंभीरता से प्रश्न किया जाए।

सामान्य तौर पर लोग आस्था का मतलब धर्म से लेते हैं। या धर्म को आस्था की जगह और आस्था को धर्म की जगह इस्तेमाल कर लेते हैं। मोटे तौर पर यह बात ठीक है लेकिन अगर बारीक नजर से देखा जाए तो बात यह है कि आस्थाएं यानी वह विचार या भरोसा है, जिस पर सवाल नहीं उठाया जाता है।

लेकिन इसे थोड़ा गहरे में देखें तो बात यह है कि आस्थाएं व्यक्तिगत और सामूहिक भी होती हैं। जैसे पिता के तस्वीर के प्रति आस्था। पिता के न होने पर वह तस्वीर हमारी आस्था का केंद्र होती है। उससे आदर और प्रेम की धारणाएं जुड़ी होती हैं। इसलिए हो सकता है कि अगर कोई हमारे पिता के बारे में भला बुरा कहें तो हमारी आस्था आहत हो जाये। इसके आलावा सामूहिक आस्थाएं होती है। सामूहिक आस्थाओं के अंतर्गत ही धर्म आता है। जिसे लेकर इस दुनिया में सबसे अधिक बवाल हुआ है।

पहले के ज़माने में सूचनाओं का जरिया केवल अख़बार, किताब और इसी तरह का प्रिंट मीडिया हुआ करती थी। तब भी आस्थाओं पर हमला होता था। उसे लेकर बवाल मचता था। उस बवाल का भी समाज पर बहुत अधिक बुरा असर पड़ता था। लेकिन जब से दुनिया में डिजिटल मीडिया की इंट्री हुई है, तब से आस्थाओं से जुड़े बवाल की पूरी प्रकृति बदल गयी है।

डिजिटल के जितने भी प्लेटफॉर्म हैं, वहां हर रोज देश के किसी न किसी इलाके से ऐसी ख़बरें आती हैं, जो आस्थाओं को आहत करने का काम करती हैं। भाजपा जैसे चुनावी राजनीति के खिलाड़ी इस तरह के मुद्दे को किसी न किसी तरह से भुनाने का काम में लगी रहती है। इससे हर दिन ऐसा महौल बनता है जैसे हिन्दू- मुस्लिम नफ़रत की दीवार को तीखा करने को खाद -पानी लागातर दिया जा रहा है।

डिजिटल मीडिया के जमाने में यह खाद-पानी रुकता भी नहीं। लगातार दिया जाता रहता है। नूपुर शर्मा का वक्तव्य, उसके बाद देश में दंगे और उसके बाद उदयपुर की हौलनाक घटना। आस्थाओं के नाम पर 12 महीना ऐसे ही राजनीति चलती रहती है। इस पर किसी तरह का लगाम नहीं लगता। बेरोजगारी, महंगाई, अग्निपथ से लेकर तमाम ऐसे उदाहरण है, जो साम्प्रदायिकता की आग में हर दिन जला दिए जाते हैं।

भारतीय चुनावी राजनीति में इतनी बड़ी संभावना नहीं दिखती कि वह इससे टकरा पाए। हिन्दुत्व की वजह से भारतीय चुनावी राजनीति की पूरी जमीन इस तरह से बन चुकी है कि वह धार्मिक आस्थाओं पर गहरा सवाल उठाने की हैसियत खो चुकी है। सारा खेल कानून,नियम और अदालतों तक सीमीत रहता है। इसी के बीच सारी पार्टियां अपने- अपने हिसाब से गोलबंदी में लगी रहती हैं। इसलिए असल बात यह है कि आस्थाओं के आहत होने से बनने वाली रोजाना की साम्प्रदायिकता से कैसे लड़ा जाये?

कई जानकारों से बात करने के बाद जो निष्कर्ष निकला है उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। जिसका जैसा आत्म बोध होता है उसकी वैसी आस्था होती है। हो सकता है कि जिस बात पर आप ध्यान नहीं देते हो ठीक वैसे ही बात पर किसी दूसरे की आस्था आहत हो जाए। आस्थाओं के मामले में यह चौंकाने वाली बात नहीं है बल्कि यही बात समझने वाली है।

यही बात समझना है कि भारत की बहुत बड़ी आबादी गरीब और पिछड़ी हुई है। उसके जीवन के संस्कार तर्कों से ज्यादा समाज से बने होते हैं। आपके लिए ईश्वर कुछ भी ना हो लेकिन उस बहुत बड़ी आबादी के लिए ईश्वर उसके जीवन का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए आहत आस्थाओं की प्रवृत्ति से लड़ने के मामले में पहली बात तो यह है कि व्यक्ति का आत्मबोध जैसे ही दूसरे के आत्मबोध से टकराता है तो संवेदनशीलता न खोए। उसे हंसी मजाक का पात्र न समझें।

इसके ऊपर संवाद करें। यह काम नागरिक समाज या समाज के वैसे अंग जो चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेते वही कर सकते हैं। आप पूछेंगे कि चुनावी राजनीति करने वालों को यह क्यों नहीं करना चाहिए? चुनावी राजनीति करने वालों की एक मजबूरी है कि उसे अकेले नहीं लड़ना होता है। बल्कि उनकी सारी हैसियत इस बात पर टिकी होती है कि उनके पीछे गोलबंदी कितनी बड़ी है। इसलिए कुतार्किक सामाजिक संस्कारों को अचानक खारिज करना राजनीति के बस की बात नहीं।

अगर राजनीति के बस की बात है तो मौजूदा वक्त में इतने बड़े राजनेता नहीं हैं जो इतनी बड़ी हिम्मत दिखा सकें और जनता के बीच अपनी साख बचा सकें। इसलिए आहत आस्थाओं से बचने के नाम पर लड़ने की सारी भूमिका प्राथमिक तौर पर नागरिक समाज पर आकर गिरती है। लेकिन यहां पर भी एक दिक्कत है कि नागरिक समाज के पास भी स्पेस नहीं है। नागरिक समाज की हैसियत भी ऐसी नहीं है कि वह धार्मिक आस्थाओं पर मुखर होकर सवाल खड़ा करे। वजह यह है कि सत्ता तंत्र नहीं चाहता कि धार्मिक आस्थाओं को लेकर के तार्किक माहौल बने। ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है? बच कर चुपचाप निकला जा सकता है या लड़ा जा सकता है।

लड़ने वाले यह ध्यान रखें कि कुतर्किक धार्मिक आस्थाओं के खिलाफ लड़ते हुए संवेदनशीलता न खोए। यह मानकर चलें कि वह आस्थाओं को पूरी तरह से खारिज नहीं कर सकते हैं। लेकिन उनका मकसद सिर्फ इतना हो कि आस्थाओं से पनपने वाले को तार्किक व्यवहार से खारिज करें।

इसलिए सबसे बड़ी बात तो यह समझने वाली है कि धर्म की तत्व मीमांसा ईश्वर से बनी है और ईश्वर के सहारे धर्म दुनिया के हर चीज की व्याख्या करता है इसलिए उन्हें भी ईश्वर पर सवालिया निशान लगाते समय यह बताना पड़ेगा कि क्यों दुनिया की हर चीज की व्याख्या ईश्वर से करना खुद को अंधेरे में डालने की तरह है। मौजूदा वक्त में धार्मिक आस्थाओं से लोग खुद को बिना उनकी कहानियों को जाने जोड़ते है। उसे अपनी पहचान के प्रतीक के तौर पर मानते हैं। धार्मिक आस्थाओं पर इससे ज्यादा लोगों की जानकारी नहीं होती है।

इसलिए धार्मिक आस्थाएं आहत होने पर हथियार के तौर पर काम करने लगती हैं। इससे बचने का तरीका तो यही हो सकता है कि लोगों के बीच अपनी आस्था से जुड़ी कहानियां भी पता हो। लेकिन सबको हर तरह की कहानी पता हो। यह नामुमकिन किस्म की बात है। फिजूल का मेहनत है।

इससे ज्यादा जरूरी बात यह है कि हर धर्म की व्याख्या सार्वभौमिक मूल्यों के आधार पर हुई है। तकरीबन हर धर्म के भीतर की कहानियां कुछ भी हों लेकिन उनके मूल्य सनातनी और सार्वभौमिक रहे हैं। हर धर्म का मकसद यही बताया जाता है यह दुनिया प्रेम शांति भाईचारा स्वतंत्रता न्याय के इर्द-गिर्द बुनी गई है।

इसलिए आस्थाएं जब हथियार बन कर काम करने लगे तो लोगों को यह बताया जा सकता है कि कि दुनिया का ऐसा कोई ईश्वर या खुदा नहीं है जो अपनी बेअदबी के चलते दूसरों को मारने की इजाजत दे। यह बात मुखर होकर कहने की जरूरत है।

कुल मिला जुला कर बात कहें तो बात यह सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के जमाने में जब सूचनाओं की बाढ़ निरंतर बढ़ रही है। उस वक्त आस्थाओं के पर्दे के भीतर छिपने वाली को कुतार्किक बातों को आस्थाओं का सम्मान कहकर सवालिया निशान लगाने से बचने की आदत को छोड़ना होगा। अगर नागरिक समाज की तरफ से ऐसा नहीं किया जाएगा तो राजनीति नफ़रत का खेल खेलती रहेगी। लोगों को धर्म के नाम पर आपस में बांटकर सत्ता तक पहुंचने का सफर तय करती रहेगी। बर्बादी हमारी और आपकी ही होगी

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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