देश में हर घंटे दो हाउसवाइफ़ कर लेती हैं सुसाइड, कौन है इसका ज़िम्मेदार?
हमारे देश में आत्महत्या पर अब भी खुलकर बात नहीं होती। इसे कलंक के तौर पर देखा जाता है और अधिकतर परिवार इसे छुपाने की कोशिश करते हैं। और बात जब परिवार की औरत की हो, तो ये मुद्दा और भी संवेदनशील बन जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल 23,178 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी। यानी देशभर में हर दिन 63 और लगभग हर 22 से 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है। संख्या को देखें तो, देश में 2021 में हुईं कुल 45,026 महिलाओं की आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 23,178 है, जो 51.5 प्रतिशत है। साल 2020 में ये आंकड़ा 22,372 था, ये इस साल हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं का 14.6 प्रतिशत था।
बता दें कि ये स्थिति केवल पिछले सालों की नहीं है। 1997 में जब से एनसीआरबी ने पेशे के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने शुरू किए हैं तब से हर साल 20 हज़ार से ज़्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है। साल 2009 में ये आंकड़ा 25,092 तक पहुंच गया था। रिपोर्ट में इन आत्महत्याओं के लिए "पारिवारिक समस्याओं" या "शादी से जुड़े मसलों" को ज़िम्मेदार बताया गया है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि आख़िर क्या वजहें हैं जिनके कारण हज़ारों गृहणियां हर साल अपनी जान ले लेती हैं?
क्या है इन हत्याओं के पीछे की असली वजह?
एनसीआरबी के पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर करें, तो आत्महत्या के मामले में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या में इजाफा होने के अलावा हाउसवाइफ्स की संख्या सबसे ज्यादा रही है, जो अपने आप में इस समस्या को गंभीर बना देती है। आत्महत्या से होनेवाली मौत को भले ही एक पारिवारिक और निजी समस्या के तौर पर देखा जाता हो, लेकिन यह एक गंभीर सामाजिक समस्या है जिसके पीछे पितृसत्ता, बेरोज़गारी, जाति, गरीबी, संसाधनों तक पहुंच, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता में कमी जैसी वजहें शामिल हैं।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं में 18 साल से कम के आयु वर्ग और 18 से 45 साल के आयु वर्ग में सबसे ज्यादा आत्महत्या से मौत की घटनाएं दर्ज हुईं। आत्महत्या से मौत का शिकार होने वाली गृहिणियों में अधिकांश मौत तमिलनाडु में दर्ज हुईं। वहीं, इसमें मध्य प्रदेश की हिस्सेदारी 13.2 फीसद और महाराष्ट्र की हिस्स्सेदारी 12.3 फीसद रही। वैश्विक स्तर पर, भारत में सबसे ज्यादा आत्महत्या से मौत होती हैं। आंकड़ों में भारतीय पुरुष आत्महत्या से होने वाली मौत के एक चौथाई हिस्सेदार हैं। वहीं विश्व के सभी 15-39 आयु वर्ग की महिलाओं में यह 36 प्रतिशत है।
घरेलू हिंसा और दहेज के जाल से नहीं निकल पा रहा समाज
एनसीआरबी की मानें तो आत्महत्या से हुई महिलाओं की मौत में अधिकतर मामले दहेज से संबंधित थे या बच्चे न होने की समस्या से जुड़े थे। ये विडंबना ही है कि एक ओर जहां भारतीय समाज महिलाओं के घर संभालने और नौकरी से दूर रहने को महिमामंडित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर घर में रह रही औरतों की मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक जरूरतों को पूरी तरह नजरअंदाज़ कर दिया जाता है।
बीते साल हुए एक सरकारी सर्वे में 30 प्रतिशत महिलाओं ने बताया था कि उनके साथ पतियों ने घरेलू हिंसा की है। रोज़ की ये तकलीफ़ें शादियों को दमनकारी बनाती हैं और घरों में महिलाओं का दम घुटता है। पिछले साल कोविड महामारी के बाद एकाएक न सिर्फ घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई, बल्कि महिलाओं के खिलाफ अन्य हिंसा, बाल विवाह और बाल तस्करी में भी वृद्धि हुई। इन सभी कारणों ने महिलाओं में विशेषकर कम और मध्यम उम्र की महिलाओं में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।
यहां समझने वाली एक और बात है कि घर में रह रही महिला यानि हाउसवाइफ के लिए अक्सर कमाई का कोई जरिया नहीं होता। वे अपने जीवनसाथी पर आर्थिक रूप से निर्भर करती हैं। इसलिए उनका अपनी बुनियादी जरूरतों जैसे मनोरंजन, शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिए कोई भी खुद निर्णय लेना कठिन है। साथ ही, शिक्षा और जागरूकता की कमी में उन्हें उनके अधिकारों का एहसास होना और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले पाना मुश्किल है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में मौजूदा मिथक पीड़ितों को खुलकर सामने आने से रोकते हैं। इसके अलावा बचपन से त्याग और ममता के पाठ की सोशल कंडीशनिंग के बीच, उनका खुद के बारे में सिर्फ सोचना भी उन्हें स्वार्थी बना देता है।
सहनशील होने की सोशल कंडीशनिंग और चुप्पी की क़ीमत
पितृसत्ता के समाज में महिलाओं को बहुत सहनशील होने की शिक्षा दी जाती है, 18 साल होते ही अधिकतर लड़कियों की शादी कर दी जाती है। वो पत्नी और बहू बन जाती हैं और पूरा दिन घर पर खाना बनाते, सफाई करते और घर के काम करके बिताती हैं। उन पर सभी तरह की पाबंदियां लगी होती हैं, उन्हें बहुत कम आजादी होती है और अपने लिए उन्हें कभी-कभी ही पैसे मिल पाते हैं। ऐसे में उनकी शिक्षा और सपने कोई मायने नहीं रखते और उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे ख़त्म होने लगती है और उन पर निराशा छा जाती है। वो अंदर ही अंदर घुटने लगती हैं और जब सहने की उनकी सीमा पार हो जाती है तो, वो मज़बूरन आत्महत्या जैसे कदम उठा लेती हैं।
मनोचिकित्सक शीबाली बताती हैं कि हर उम्र के लोगों के साथ आत्महत्या के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। नाबालिग से लेकर बुजुर्ग महिला सबके कारण एक जैसे और बिल्कुल जुदा भी हो सकते हैं। जैसे पारिवारिक समस्या, शोषण-उतपीड़न, कुछ करने की चाह, नाकामयाबी और अवसाद।
शीबाली न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहती हैं, “अक्सर महिलाएं भरे पूरे परिवार में भी अकेलापन महसूस करती हैं। ये समस्या हमारी मां, नानी या दादी किसी के साथ भी हो सकती है। चूंकि बाकी लोगों का बाहर आना-जाना होता रहता है, नए लोगों से मिलना-झूलना बढ़ता है, इसलिए उनका माहौल भी बदलता है लेकिन जो औरतें ज्यादातर घर की चार दीवारी में रहती हैं, उन्हें एक ही रूटीन से उबन हो सकती है। कई महिलाएं अकेलेपन का सामना करती हैं। उनके बच्चे बढ़े हो जाते हैं और घर से अलग हो जाते हैं। कई मेनोपॉज़ से पहले के लक्षणों का सामना करती हैं जिससे अवसाद और उदासी आती है। ये सुनने में शायद उतना गंभीर न लगे लेकिन इसकी वास्तविकता और असर बहुत गंभीर हो सकते हैं।"
गौरतलब है कि आत्महत्या को हमारे देश में बहुत तवज्जों नहीं दी जाती। शहरों में ये फिर भी सुर्खियों में कभी कभार दिख जाए, लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी इसे लेकर जागरूकता की कमी है। यहां किसी औरत की हत्या या आत्महत्या के बाद अटॉप्सी की कोई ज़रूरत नहीं होती, इसे लोग आकस्मिक मृत्यु बताकर दबा देते हैं। जाहिर है महिलाओं की आत्महत्या, खासकर हाउसवाइफ्स की एक चिंतन का मुद्दा है, इसके लिए हम किसी एक कारक को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते। इसके लिए हमें जमीनी स्तर सभी कारकों को चिह्नित कर, महिलाओं को उससे निकालने के उपायों पर काम करना होगा।
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