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एनआईए स्टेन स्वामी की प्रतिष्ठा या लोगों के दिलों में उनकी जगह को धूमिल नहीं कर सकती

स्टेन के काम की आधारशिला शांतिपूर्ण प्रतिरोध थी, और यही वजह थी कि सरकार उनकी भावना को तोड़ पाने में नाकाम रही।
SATAN


कथित एल्गार परिषद मामले से जेसुइट फ़ादर स्टैनिस्लोस लौर्डुस्वामी के नाम को हटाये जाने में बॉम्बे हाईकोर्ट को समय लग सकता है।
और वेटिकन मशीनरी को इस 84 साल के पादरी को संत की उपाधि से नवाज़ने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू करने में भी ज़्यादा समय लग सकता है। मध्य भारत के आदिवासियों और सबसे ग़रीब से गरीब लोगों के बीच किये गये उनके काम ने उन्हें खान-मालिकों, राज्य सरकारों और आख़िरकार केंद्र सरकार को नराज़ कर दिया था।
लेकिन, झारखंड के उन आदिवासियों और दलितों और दूसरे कई राज्यों के निकटवर्ती वन क्षेत्रों के लिए फ़ादर स्टेन स्वामी के नाम से लोकप्रिय यह शख़्स तो पहले से ही लोगों का संत है।


राज्य के एक क़ैदी के रूप में मुंबई के अस्पताल में स्टेन स्वामी ने आख़िरी सांस ली थी। स्वामी का जन्मदिन आज,यानी 26 अप्रैल है। उनके ख़िलाफ़ दायर सभी आरोपों से निर्दोष होने का दावा करते हुए उनके प्रशंसक रांची के बाहरी इलाक़े में स्थित उनके घर बगैचा में उनकी प्रतिमा स्थापित करेंगे। पिछले साल के 5 जुलाई को चर्च की ओर से चलाये जा रहे अस्पताल में उनकी मृत्यु के एक दिन बाद कोविड-19 प्रोटोकॉल के तहत उनका अंतिम संस्कार किया गया था। उनके अवशेष तो पहले से ही उस मिट्टी का एक हिस्सा हैं, जिससे वह बेइंतहा प्यार करते थे।
राष्ट्रीय राजधानी स्थित फ़ेडरेशन ऑफ़ एसोसिएशन ऑफ़ कैथलिक आर्कडाओसिस ऑफ़ डेल्ही ने फ़ादर स्टेन स्वामी के जीवनोत्सव समारोह मनाने के लिए एक स्मारक बैठक आयोजित की है।


बगैचा में रहते हुए ही उन्होंने अंग्रेज़ी और हिंदी में उन लोगों की दुर्दशा के बारे में लिखा था,जिन्होंने खनन से जुड़े ताक़तवर लोगों के हाथों अपनी ज़मीनें खो दी थीं,उन लोगों में निहित हैवानियत ने वहां के लोगों के जंगलों, पवित्र पहाड़ियों और पानी को लूट लिया था। स्वामी ने अपनी दलीलों को साबित करने के लिए आंकड़े और पुराने दस्तावेज़ पेश  किये थे।इसके ज़रिये उन्होंने सत्ता के ज़ुल्म और झूठ,दोनों का पर्दाफ़ाश किया था।
सरकार उनकी ज़मीर को तोड़ पाने में नाकाम रही थी। अगर सरकार और सत्ता के बूते में होता, तो वह उनकी स्मृति और उन संघर्षों की वैधता को भी नष्ट कर चुकी होती, जिनके स्वामी प्रेरक आत्मा थे।\


राष्ट्रीय जांच एजेंसी,यानी एनआईए की ओर से जतायी गयी आपत्तियों में इतना तो स्पष्ट था कि बॉम्बे हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने अपनी निजी व्यथा को व्यक्त करते हुए कहा था कि कैसे निचली अदालतों ने स्टेन की ओर से ज़मानत के लिए जेल से किये गये उनके कई आवेदनों को खारिज कर दिया। इस आवेदन में तेजी से बढ़ रहे उनके पार्किंसंस रोग और फिर कोविड-19 के शिकार होने  के बाद उनकी गिरती सेहत की ओर इशारा किया गया था।


अगर पूरी तरह उपहास नहीं,तो लांछन लगाते हुए हुए विशेष न्यायाधीश ने भारत के प्रधान मंत्री की ज़िंदगी को लेकर रची गयी एक ख़तरनाक साज़िश का हिस्सा होने के आरोप में गिरफ्तार किये गये उस पादरी पर लगाये गये आरोप के आधार पर उनके तमाम आवेदनों को खारिज कर दिया था। इसके बाद ज़मानत याचिका को बॉम्बे हाई कोर्ट में पेश किया गया था और अगले दिन उनकी दरख़्वास्त सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर ली गयी थी।


जब उनके वकील ने जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनजे जमादार की बेंच को बताया था कि कुछ घंटे पहले ही स्टेन स्वामी का निधन हो गया है, तो जस्टिस अवाक रह गये थे। बाद में न्यायमूर्ति शिंदे ने कहा था, "(हम) मेडिकल ज़मानत के आवेदनों पर फ़ैसला करते समय मानवीय विचारों को अलग नहीं रख सकते। उनके काम के लिए हमारे मन में सम्मान है। क़ानूनी तौर पर उनके ख़िलाफ़ जो कुछ भी था, वह (एक) अलग मामला है। उन्होंने समाज के लिए जिस तरह की सेवायें दी थीं, वह (अपने आप में) अद्भुत थीं। न्यायमूर्ति शिंदे ने कहा था कि उनके पास आमतौर पर टीवी देखने का समय नहीं होता, लेकिन उन्होंने स्टेन स्वामी के लिए समर्पित ऑनलाइन अंतिम संस्कार सेवा देखी है। "यह बहुत सम्मानजनक और सुंदर था। लोगों ने बहुत ही शालीनता और सम्मान के साथ इसे पूरा किया था।”
ये शब्द सरकार को रास नहीं आये। एनआईए ने इन शब्दों पर अपनी आपत्ति दर्ज करायी। जज को स्थापित नियमों या कार्रवाई के पूर्व निर्धारित व्यवस्था का पालन करना पड़ा और अपनी बात वापस लेनी पड़ी। अगर अदालती प्रक्रियाओं के चलते स्टेन के प्रति सम्मान की यह अनपेक्षित, बिल्कुल सहज अभिव्यक्ति अभूतपूर्व थी, तो उन इन क़ीमती वाक्यों को वापस लेना भी कम शानदार नहीं था। वह न्यायाधीश इस तथ्य के साथ सम्मानपूर्वक जी सकते हैं कि यह वही जज थे,जिन्होंने 28 मई को निर्देश दिया था कि बीमार फ़ादर स्टेन को जेल की अस्पताल से तुरंत बांद्रा के एक निजी अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया जाये।
फ़ादर स्टेन के वकील मिहिर देसाई ने अदालत से अनुरोध किया था कि सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व प्राचार्य जेसुइट फ़ादर फ़्रेज़र मस्कारेनहास को उनकी मौत की क़ानूनी रूप से अनिवार्य मजिस्ट्रेट जांच में भाग लेने की इजाज़त दी जाये, क्योंकि जिस संगठन से फ़ादर स्वामी जुड़े थे,उस संगठन ने उन्हें अपने "निकटतम परिजन" के रूप में मान्यता दिये जाने के लिए नामित किया था। तमिलनाडु में जन्मे फ़ादर स्टेन बतौर एक कैथोलिक पादरी कुंवारे थे।


फ़ादर फ़्रेज़र ने यह भी मांग की थी कि अदालत स्वामी की हिरासत में मौत की न्यायिक जांच की निगरानी करे। याचिका में कहा गया है कि अगर स्वामी जीवित होते, तो उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करने का अधिकार होता और ऐसे में मुकदमे के इंतज़ार में उसकी मौत हो जाने पर विचार करते हुए उन्हें अपना निकटतम परिजन की मान्यता पाने  का अधिकार दिया जाना चाहिए।
सरकार ने इस मामले को प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया है। तेलुगु कवि वरवर राव और वकील-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज मेडिकल ज़मानत पर बाहर हैं, जबकि गिरफ़्तार किये गये दूसरे लोगों को अब भी जेल में सबसे कठोर प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है।


स्टेन की मौत और क़ैद में रह रहे बाक़ी लोगों की ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज होने से भारतीय जेलों में सड़ रहे हज़ारों विचाराधीन क़ैदियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन सुर्खियों में बने रहे, जिनमें से कई क़ैदी तो राजनीतिक दबाव में पुलिस की ओर से आरोपित किये गये थे।


स्टेन "केज्ड बर्ड" कविता की कवि की पंक्तियों को दोहराते हुए कहा करते थे कि आज़ादी और खुले आसमान के तरानों को गाने के लिए अपनी आत्मा नहीं खोना है। उन्होंने जेल से एक मित्र को लिखे अपनी एक चिट्ठी में देश भर में कई लोगों को उनकी स्वतंत्रता के लिए चलाये जा रहे अभियान को प्रोत्साहित किया था,उन्हें संबल दिया था।
जिन समस्याओं का सामना इस समय आदिवासी और दलित कर रहे हैं,उन पर काम करने वाले लोग ही नहीं,बल्कि तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बंगलौर में अपने काम से जान फूंक देने वाले एक शिक्षक की भूमिका में इस बुज़ुर्ग जेसुइट के संयमित जीवन और निडर काम से साहस और संबल लिया है, और उन लोगों ने एक वृतांत लेखक और संचारक के रूप में वनों में बसे गांव की महिलाओं और नौजवानों को उनके अधिकारों के बारे में सशक्त करने और सिखाने का साहस किया है। इन मुद्दों पर शोध करने वाली उनकी संस्था का भारत में मानवाधिकार अध्ययन में अपने आप में एक अहम योगदान है।  
इसके अलावा, इस लेखक सहित कई लोग स्टैन के जीवन और उनके कार्यों से मिली सीख को संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण, शिक्षा के अधिकार, विकास परियोजनाओं की आड़ में कारपोरेट क्षेत्र को दी गयी भूमि का व्यापक हस्तांतरण, और सबसे बढ़कर राष्ट्रीय जीवन के सभी खांचों में एक संक्षारक और विभाजनकारी विचारधारा के प्रवेश जैसे कई समकालीन मुद्दों पर अन्य संघर्षों को प्रेरित करने वाली प्रेरणा के रूप में देखते हैं।
शांतिपूर्ण प्रतिरोध ही स्टेन के काम की आधारशिला थी।
मन में यह सवाल उठता है कि हिंदुत्व के समर्थकों की "बुलडोजर राजनीति" और उत्तर प्रदेश, दिल्ली और मध्य प्रदेश की सरकारों की ओर से बेबस मुसलमानों के घरों और अर्थव्यवस्थाओं को तबाह करने के लिए मशीनों के इस्तेमाल पर क्या उनकी किस तरह की प्रतिक्रिया होती ? स्टेन की रणनीति लोगों के संसाधनों के स्वामित्व की हिफ़ाज़त को लेकर समुदायों के बीच एकता और सहयोग के निर्माण की होती। वह आवास, भोजन और मानवाधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हुए एक ऐसे बंधन बनाते, जो राजनीतिक समूहों की ओर से प्रायोजित या राज्य के हस्तक्षेप से सहायता प्राप्त सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष में उपयोगी होते।
स्टेन का जीवन और उनकी मृत्यु,दोनों ही समुदाय और पवित्र जीवन जीने वालों, पादरियों और ननों के लिए एक प्रोत्साहन है। वह अपने समुदाय का सबसे पहचाना जाने वाला चेहरा हैं। सवाल है कि क्या वे लोग बुज़दिल हो सकते हैं,जो प्रार्थना करने वाले प्राणी होते हैं या जो लोगों के साथ जीवन का संवाद करते हैं, जिसका मतलब यह होता है कि उन्होंने ग़रीबों के सबसे ग़रीब लोगों के दुखों, कठिनाइयों और क्लेशों में ख़ुद को विसर्जित कर दिया हो, और जो सिर्फ़ एक कुलीन शैक्षणिक संस्थान का कर्मचारी भर नहीं हैं ? यही वह चुनौती है, जिसे आम लोगों का यह संत सभी के लिए धारण करते हैं।
लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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