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एनएमसी ने समलैंगिकता का ‘इलाज’ करने के लिए लिंग परिवर्तन थेरेपी को ग़लत बताया, लेकिन क्या इतना कहना काफ़ी है?

लिंग परिवर्तन चिकित्सा का दम्भ भरने वाले चिकित्सकों, जो समलैंगिकता का इलाज करने की एक बदनाम-चिकित्सा पद्धति है, को अब पेशेवर कदाचार माना जाएगा। हालांकि, यह मामला  कड़े उपायों करना का है जो एक सख्त निवारक के रूप में कार्य सके।
 LGBTQI
Image courtesy : The Indian Express

नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) की चौथी वर्षगांठ से कुछ दिन पहले, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को रद्द कर दिया था, जो समान-सेक्स वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराध मानती थी, अब राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ('एनएमसी'), जो भारत में चिकित्सा पेशेवरों का सर्वोच्च नियामक निकाय है, ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है, जिसमें लिंग परिवर्तन या उपचारात्मक चिकित्सा को (पेशेवर आचरण और नैतिकता) विनियम, 2002 के तहत पेशेवर कदाचार माना जाएगा और सभी राज्य चिकित्सा परिषदों को कहा है कि भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 के तहत (जिसे समलैंगिक इलाज चिकित्सा भी कहा जाता है) इसकी घोषणा करें।  

भेजे गए संदेश में कहा गया है कि, "यह आदेश 8 जुलाई, 2022 को नैतिकता और चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने दिया है कि लिंग परिवर्तन चिकित्सा, भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002 के तहत एक पेशेवर कदाचार माना जाएगा।" .

किसी व्यक्ति के सेक्सुयलिटी को कथित रूप से ठीक करने के लिए किसी किस्म का परिवर्तन करना या किसी भी प्रकार की चिकित्सा इस आधार पर की जाती है कि संबंधित व्यक्ति के भीतर किसी विशिष्ट किस्म का यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान एक बीमारी है।

यह निर्देश मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन आनंद वेंकटेश द्वारा एस सुषमा और अन्य बनाम पुलिस आयुक्त और अन्य (2021) के आदेश में पाया जाता है। इस मामले में, अदालत ने एनएमसी को लिंग परिवर्तन उपचार करने वाले चिकित्सकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का निर्देश दिया था।

अदालत ने यह भी बताया कि गैर-विषमलैंगिकों को उनके तथाकथित "सामान्य" साथियों की तरह "सुधार" करने के उद्देश्य से किए जाने वाले इन उपचारों के मामले में कानूनी एजेंसियों द्वारा सहायता मिलती है, जिसमें उन्हे कानून का कोई डर नहीं होता है। उच्च न्यायालय का निर्देश सही समय पर आया था क्योंकि भारत में अभी भी इन प्रथाओं पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाने वाला कोई कानून नहीं है।

लिंग परिवर्तन चिकित्सा में वैज्ञानिक प्रमाणों का अभाव है

किसी व्यक्ति की सेक्सुयलिटी को कथित रूप से ठीक करने के लिए लिंग परिवर्तन करना  या किसी भी प्रकार की दी जाने वाली चिकित्सा इस आधार पर आधारित है कि, एक खास किस्म का यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान एक बीमारी है। हालाँकि, इंडियन साइकियाट्रिस्ट सोसाइटी पहले ही घोषित कर चुकी है कि समलैंगिकता को अब एक मनोरोग विकार के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। वह यह भी कहती है कि, किसी व्यक्ति के यौन अभिविन्यास को बदलने का उपचार, एक गलत धारणा पर आधारित है। वास्तव में, वर्ल्ड साइकियाट्रिक एसोसिएशन ने घोषणा की कि ये उपचार बिना किसी वैज्ञानिक प्रमाण के हैं। इस संबंध में कोई भी परिवर्तन या अवतरण चिकित्सा अस्वीकृत है।

इन सबूतों के समर्थन में, अमेरिकन एकेडमी ऑफ चाइल्ड एंड अडोलेसेंट साइकियाट्री ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी "चिकित्सीय हस्तक्षेप" के आवेदन का समर्थन करने के लिए इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि एक खास किस्म का यौन अभिविन्यास, लिंग पहचान या लिंग अभिव्यक्ति रोगात्मक है या कोई बीमारी है। अकादमी ने नोट किया है कि, इसमें वैज्ञानिक विश्वसनीयता और नैदानिक उपयोगिता का अभाव है, और अक्सर युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने का खतरा बढ़ जाता है। 

LGBTQI समुदाय के अधिकारों पर मानक अंतरराष्ट्रीय अधिकार न्यायशास्त्र को 2006 योग्याकार्ता सिद्धांतों में संहिताबद्ध किया गया है। यौन परिवर्तन चिकित्सा का इस्तेमाल  चिकित्सा का दुरुपयोग करना है। सिद्धांत 18 कहता है, "इसके विपरीत किसी भी वर्गीकरण के बावजूद, किसी व्यक्ति की यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान, अपने आप में, चिकित्सा की स्थिति नहीं है और इसका इलाज, या उसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए।"

योग्यकर्ता सिद्धांत आत्मनिर्णय के अधिकार की भी रक्षा करते हैं, जो सरल शब्दों में, आत्म-पहचान का अधिकार है। यह अधिकार निजता के अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 में पाया गया है, और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति के एस पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के निर्णय (2017) निजता के मौलिक अधिकार के रूप में दोहराया गया है। 

यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के आधार पर हिंसा और भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र ('यूएन') के स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने इस साल की शुरुआत में पाया कि सुधारात्मक बलात्कार और परिवर्तन उपचारों में ट्रांसजेंडरों पर गहरा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात होता है। संयुक्त राष्ट्र तंत्र ने उन उपायों को यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के रूप में भी माना है।

उन्हें पेशेवर कदाचार घोषित करना पर्याप्त नहीं है। इसे स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, और इसे करने वाले चिकित्सकों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि अक्सर इन उपचारों की विफलता आत्महत्या की ओर ले जाती है।

भले ही भारत ने अत्याचार और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सजा के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन की पुष्टि नहीं की है, फिर भी संविधान का अनुच्छेद 21 उन कृत्यों को प्रतिबंधित करता है, जिनके परिणामस्वरूप यातना या अपमानजनक व्यवहार होता है।

ट्रांसजेंडर संरक्षण अधिनियम चिकित्सा प्रक्रियाओं को सर्वोपरि महत्व देता है, लेकिन नालसा दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है

हालाँकि, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020 न केवल ट्रांसजेंडर समुदाय के खिलाफ भेदभाव से निपटने के लिए थे, बल्कि उनके नागरिक और सामाजिक-आर्थिक अधिकार से जुड़े थे। वे नालसा बनाम भारत संघ (2014) में स्थापित सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों से मेल नहीं खाते हैं, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि किसी भी प्रकार की चिकित्सा प्रक्रिया को पहचान देना उसकी पूर्व शर्त नहीं होनी चाहिए।

नालसा के निर्णय ने तीसरे लिंग को कानूनी मान्यता दी, जिसका अर्थ यह भी था कि उस समुदाय के सदस्यों को स्वयं की पहचान के मामले में स्वतंत्र होना चाहिए। हालाँकि, 2019 अधिनियम न केवल इस अधिकार का उल्लंघन करता है क्योंकि यह न केवल एक व्यक्ति को 'ट्रांसजेंडर' के रूप में मान्यता देता है, बल्कि पहचान का प्रमाण पत्र देने के लिए चिकित्सा प्रक्रिया पर भी निर्भर करता है।

अधिनियम की धारा 7 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को आधिकारिक तौर पर लिंग बदलना है, तो उसे चिकित्सा अधीक्षक या मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना होगा जिसमें यह बताया गया हो कि उस व्यक्ति की सर्जरी हुई है। इसके अलावा, चिकित्सक की राय का महत्व सर्वोपरि है क्योंकि यदि वे प्रदान किए गए प्रमाण पत्र की शुद्धता की पुष्टि नहीं करते हैं, तो जिला मजिस्ट्रेट 2020 नियम के नियम 6 (8) के अनुसार पहचान प्रमाण पत्र जारी नहीं कर सकते हैं।

लिंग परिवर्तन चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य आघात

अब जब चिकित्सकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का आरोप लगाया जाएगा, तो एक सवाल यह पूछना चाहिए कि क्या यह उन मानसिक और शारीरिक नुकसान के अनुपात में है, जो इन छद्म चिकित्सा पद्धतियों के माध्यम से किया जाता है।

ये उपचार निजता और मानवीय गरिमा के अधिकारों के स्पष्ट उल्लंघन में हैं। उन्हें पेशेवर कदाचार घोषित करना पर्याप्त नहीं है। इसे स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, और ऐसा करने वाले चिकित्सकों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि अक्सर इन उपचारों की विफलता आत्महत्या की ओर ले जाती है।

2020 में, केरल की एक 21 वर्षीय महिला ने, खुद के माता-पिता द्वारा उसे गैर-विषमलैंगिक अभिविन्यास को 'ठीक' करने के लिए, कई नशामुक्ति केंद्रों में जबरदस्ती भेजा था जिससे दुखी होकर उसने आत्महत्या कर ली थी। महिला, जो अपने माता-पिता की नज़रों में बाइसेक्सुअल थी, वह पहले से ही अवसाद से पीड़ित थी, जब उसके माता-पिता ने उसे उसके यौन अभिविन्यास को 'ठीक' करने के लिए लिंग परिवर्तन चिकित्सा को मजबूर किया तो वह टूट गई। और पिछले साल, 28 वर्षीय ट्रांस एक्टिविस्ट ने केरल के एक निजी अस्पताल में सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी के बाद कथित चिकित्सीय जटिलताओं के बाद आत्महत्या कर ली थी। तीन दिन बाद उसकी साथी भी फांसी पर लटकी मिली थी।

ये प्रथाएं "सुधारात्मक बलात्कार" के रूप में जाने जाने वाली प्रथा को भी प्रोत्साहित करती हैं; एक शब्द जिसे दक्षिण अफ्रीका में गढ़ा गया था। 2015 में, टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया कि तेलंगाना में परिवार के सदस्य कथित तौर पर समलैंगिकता को 'ठीक' करने के लिए बलात्कारी बन रहे हैं।

भारत के एक कोविड-19 टीकाकरण केंद्र में एकमात्र ट्रांसजेंडर नोडल अधिकारी, डॉ. अक्सा शेख और नई दिल्ली में हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च के सामुदायिक चिकित्सा विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर ने लिंग परिवर्तन और अवतरण चिकित्सा पर निम्न टिप्पणी की है: "कई ट्रांसपर्सनस को पहचान में विकार माने जाने के परिणामस्वरूप लिंग परिवर्तन के लिए चिकित्सा का सामना करना पड़ता है। मद्रास उच्च न्यायालय बार-बार लिंग परिवर्तन चिकित्सा पर प्रतिबंध लगाने की बात की है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने एक हलफनामा दिया जिसमें कहा कि, इसकी अनुमति नहीं है और इसे भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 (व्यावसायिक आचरण और नैतिकता) विनियम, 2002 के तहत पेशेवर कदाचार माना जाएगा। हालांकि, अन्य चिकित्सा पद्धतियों के रूप में जैसे कि आयुष चिकित्सा प्रणाली, एक खामी है और हमारे पास बहुत से चिकित्सक हैं जो लिंग परिवर्तन चिकित्सा में लगे हुए हैं।" इन छद्म प्रथाओं का निरंतर अस्तित्व, एक प्रभावी नियामक व्यवस्था के बिना, केवल विषमता को बढ़ाएगा, जो बदले में, पितृसत्ता व्यासथा को मजबूत करता है।

सौजन्य: द लीफ़लेट

मूल रूप से अंग्रेज़ी प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

NMC Declares Conversion Therapy to ‘Cure’ Homosexuality as Professional Misconduct, But is That Enough?

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