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नगालैंड: फायरिंग मामले में सैन्यकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर, हत्या और ग़ैर इरादतन हत्या का मामला

बीते साल सेना की गोलीबारी में 14 नागरिकों की मौत के बाद राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शन हुए और नागरिक संस्थाओं, विभिन्न छात्र संगठनों, नेताओं, सरकार प्रमुखों, विचारकों और कार्यकर्ताओं ने एक सुर में आफस्पा को हटाने की मांग उठाई थी।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: HW

बीते साल दिसंबर 2021 में मोन ज़िले के ओटिंग और तिरु गांवों के बीच सेना की गोलीबारी में 14 नागरिकों की मौत हो गई थी। नगालैंड पुलिस ने मेजर रैंक के एक अधिकारी समेत 21 पैरा स्पेशल फोर्स के 30 जवानों के ख़िलाफ़ आरोपपत्र दायर करते हुए कहा कि उन्होंने मानक संचालन प्रक्रिया और नियमों का पालन नहीं किया था, न ही फायरिंग से पहले नागरिकों की पहचान सुनिश्चित की गई थी। हिंसा की ये घटना नगालैंड में हाल के सालों में हुई सबसे घातक वारदातों में से एक थी। नगालैंड लंबे समय से उग्रवाद और जातीय हिंसा से पीड़ित रहा है। ये पहली बार नहीं था जब भारतीय सुरक्षा बलों पर वहां के निर्दोष लोगों को ग़लत तरीक़े से निशाना बनाने के आरोप लगे।
बता दें कि इस घटना के चलते दिसंबर 2021 में राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शन हुए और नागरिक संस्थाओं, विभिन्न छात्र संगठनों, नेताओं, सरकार प्रमुखों, विचारकों और कार्यकर्ताओं ने एक सुर में आफस्पा को हटाने की मांग उठाई थी। इनका कहना था कि यह कानून सशस्त्र बलों को बेलगाम शक्तियां प्रदान करता है और यह मोन गांव में फायरिंग जैसी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है।

19 दिसंबर 2021 को नगालैंड विधानसभा ने केंद्र सरकार से पूर्वोत्तर, खासतौर से नगालैंड से आफस्पा हटाने की मांग को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया था। इसी दौरान, दिसंबर 2021 में ही केंद्र ने नगालैंड की स्थिति को अशांत और खतरनाक करार दिया तथा आफस्पा के तहत 30 दिसंबर से अगले छह महीने के लिए पूरे राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया था। जिसके बाद अब हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह ने बताया कि असम, मणिपुर व नागालैंड में अफस्पा के तहत आने वाले इलाके घटा दिए गए हैं।

आरोप पत्र में क्या है?

आरोपपत्र में सैनिकों की टीम पर हत्या और गैर इरादतन हत्या का आरोप लगाया गया है। चुमौकेदिमा पुलिस परिसर में शनिवार, 11 जून को संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए नगालैंड के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) टी. जॉन लोंगकुमर ने कहा कि तिजित पुलिस थाने का मामला दिसंबर 2021 की ओटिंग घटना से संबद्ध है, जिसमें सेना की गोलीबारी में 14 लोग गलत पहचान के चलते मारे गए थे।

राज्य अपराध पुलिस थाना ने पांच दिसंबर को सेना के अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302, 304 और 34 के तहत फिर से मामला दर्ज किया और जांच एक विशेष जांच दल (एसआईटी) को सौंप दी गई थी। डीजीपी के मुताबिक जांच पूरी हो गई है और आरोपपत्र जिला एवं सत्र न्यायालय, मोन को 30 मई, 2022 को सहायक लोक अभियोजक, मोन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था।

डीजीपी ने बताया कि इस मामले में ‘एसआईटी ने पेशेवर और गहन जांच की’, जिसमें विभिन्न अधिकारियों और स्रोतों से प्राप्त प्रासंगिक महत्वपूर्ण दस्तावेज, केंद्रीय फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (सीएफएसएल) गुवाहाटी, हैदराबाद और चंडीगढ़ से वैज्ञानिक राय और तकनीकी सहित विभिन्न सबूत शामिल हैं। जांच के दौरान राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान से साक्ष्य एकत्र किए गए।

उन्होंने आगे कहा कि एक मेजर, दो सूबेदार, आठ हवलदार, चार नायक, छह लांस नायक और नौ पैराट्रूपर्स सहित 21 पैरा स्पेशल फोर्स की अभियान टीम के 30 सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। इससे पहले अभियोजन की मंजूरी की मांग वाली अपराध जांच विभाग (सीआईडी) की रिपोर्ट इस साल अप्रैल के पहले सप्ताह में सैन्य मामलों के विभाग को भेजी गई थी और मई में फिर से पत्र भेजा गया था। उन्होंने कहा कि अभियोजन की मंजूरी का अभी इंतजार है। उन्होंने बताया कि इस बीच 30 आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी मिलने तक आरोपपत्र दाखिल कर दिया गया है।

सेना ने एसओपी का पालन नहीं किया

मालूम हो कि आरोपपत्र से पहले की जांच में पाया गया कि स्पेशल फोर्स की अभियान टीम ने मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) और अभियान के दौरान नियमों का पालन नहीं किया तथा अंधाधुंध गोलीबारी की, जिससे छह नागरिकों की तत्काल मौत हो गई और दो अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए थे।

एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, चार्जशीट दायर होने की जानकारी मिलने पर इस घटना में अपना इकलौता बेटा गंवाने वाले चेम्वांग कोन्याक ने कहा कि आरोपपत्र स्पष्ट दिखाता है कि सैनिकों की गलती थी। उन्होंने कहा कि इससे साबित होता है कि सेना के जवानों की गलती थी। लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि क्या उन्हें सजा मिलेगी? हम पीड़ा में हैं, व्यथित हैं। क्या हमें इंसाफ मिलेगा? हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि इस मामले की सुनवाई जल्द से जल्द होने दें ताकि हमें न्याय मिल सके।

रिपोर्ट के अनुसार, नगालैंड सरकार ने केंद्र से चार्जशीट में नामजद जवानों के खिलाफ कार्रवाई की इजाजत मांगी है। राज्य पुलिस ने भी रक्षा मंत्रालय को पत्र भेजकर कार्रवाई की मंजूरी देने का निवेदन किया है।

गौरतलब है कि राज्य का एक बड़ा हिस्सा सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफस्पा) के तहत आता है, जो सुरक्षा बलों को केंद्र की मंजूरी के बिना कानूनी कार्रवाई से बचाता है। सेना की एक अलग टीम, जो सेना की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का हिस्सा है, भी घटना की जांच कर रही है।

गृहमंत्री अमित शाह संसद में जता चुके हैं अफ़सोस

इस हत्याकांड को लेकर देश के गृहमंत्री अमित शाह पहले ही संसद में अफसोस जता चुके हैं। अमित शाह ने शीतकालीन सत्र के दौरान सदन में कहा था कि भारतीय सेना को नागालैंड के मोन जिले में उग्रवादियों की आवाजाही की सूचना मिली थी। इसके आधार पर सेना के 21 पैरा कमांडो के एक दस्ते ने 4 दिसंबर 2021 को संदिग्ध क्षेत्र में एम्बुश लगाया था। इस दौरान एक वाहन एम्बुश के स्थान के समीप पहुंचा जिसने रुकने का इशारा करने पर तेजी से निकलने की कोशिश की। आशंका के आधार पर वाहन पर गोलियां चलाई गई। इस दौरान 8 व्यक्तियों में से 6 की मौके पर मौत हो गई। बाद में यह गलत पहचान का मामला पाया गया।

शाह ने आगे कहा था कि इस घटना के बाद स्थानीय लोगों ने सेना की टुकड़ी को घेर लिया और वाहनों को जला दिया। सुरक्षाबलों ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलियां चलानी पड़ी। जिसकी वजह से 7 और लोगों की मौत हो गई तथा कुछ अन्य घायल हो गए। इस घटना में सुरक्षाबल के एक जवान की भी मौत हुई। विपक्षी दलों ने तब इस घटना को लेकर सदन में घोर आपत्ति जताते हुए हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज के देखरेख में जांच की मांग की थी।

सशस्त्र संघर्ष का लंबा दौर

ज्ञात हो कि नगालैंड में 1950 के दशक से सशस्त्र संघर्ष चल रहा है। इस आंदोलन की मुख्य मांग है कि नगा लोगों का अपना संप्रभु क्षेत्र हो। इसमें नगालैंड के अलावा उसके पड़ोसी राज्यों असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ म्यांमार के नगा-आबादी वाले सभी इलाक़े भी शामिल हों। 1975 में एक समझौते के बाद सबसे बड़े नगा विद्रोही गुट 'नगा नेशनल काउंसिल' ने आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन एक दूसरे गुट 'नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) ने उस समझौते की निंदा करते हुए लड़ते रहने का फ़ैसला किया। एनएससीएन में चीन से प्रशिक्षण और हथियार पाने वाले लड़ाके शामिल थे।

हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार1997 में टी. मुइवा के नेतृत्व वाले एनएससीएन के मुख्य गुट ने युद्धविराम पर सहमत होकर केंद्र सरकार के साथ बातचीत करनी शुरू कर दी थी। 2015 में दोनों पक्षों के दस्तख़त के बाद एक समझौते के ढांचे पर सहमति बनी, जिसने अंतिम समझौते का आधार रखा। हालांकि अलग झंडे और अलग संविधान की मांग के चलते ये बातचीत अभी अटकी हुई है, क्योंकि भारत सरकार इन मांगों को मानने को तैयार नहीं है। यहां एक ओर सेना बीते कई सालों से उग्रवाद की समस्या से जूझ रही है। तो वहीं लोग सेना पर अपने अभियानों में स्थानीय लोगों को निशाना बनाने का आरोप लगाते रहे हैं। ऐसे में सरकार की कोई भी मध्यस्थआ की रणनीति कामयाब होती नहीं दिखाई दे रही।

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