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राष्ट्रीय बालिका दिवस : लड़कियों को अब मिल रहे हैं अधिकार, पर क्या सशक्त हुईं बेटियां?

हमारे समाज में आज भी लड़की को अपने ही घर में पराये घर की अमानत की तरह पाला जाता है, अब जब सुप्रीम कोर्ट ने पिता की प्रॉपर्टी में बेटियों का हक़ सुनिश्चित कर दिया है, तो क्या लड़कियां पराया धन की बजाय बेटी बन पाएंगी?
National Girl Child Day

भारत के इतिहास में 24 जनवरी का दिन महिला शक्ति और सशक्तिकरण के लिए याद किया जाता है। इस दिन साल 1966 में 24 जनवरी को इंदिरा गांधी ने देश की पहली महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। और आज ही के दिन साल 2009 में महिला बाल विकास मंत्रालय ने पहली बार देश में राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत की थी। लड़कियों को समर्पित ये दिन उनके उनके हक और हुकूक की आवाज़ को समझने का दिन भी है। लंबे समय से भारत में बेटियों के सम्पत्ति में अधिकार की लड़ाई सड़कों से लेकर कोर्ट तक लड़ी जा रही है। आखिरकार अब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने सभी किंतु, परंतु पर विश्राम लगाते हुए हिंदू पिता की प्रॉपर्टी में महिलाओं के हक़ को सुनिश्चित कर दिया है।

बता दें कि साल 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के पहले शादीशुदा महिलाओं को अपने पिता के घर कानूनी रूप से रहने का अधिकार तक नहीं था। यानी समाज की तरह ही क़ानून की नज़रों में भी महिलाओं का असल घर उनका ससुराल ही माना जाता था। साल 2005 में इस नियम को बदला गया और शादी के बाद भी बेटियों को अपने पिता की स्व-अर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक़ दिए गए। हालांकि इसमें भी कई अड़चनें थी, जिसे अब सर्वोच्च अदालत ने साफ कर दिया है।

“बेटी दिल में, बेटी विल में, न दहेज़ न महंगी शादी, बेटी को देंगे संपत्ति आधी”

कमला भसीन की ये पंक्तियां बीते कई सालों से बेटियों को जायदाद में हिस्सेदार बनाने के संघर्ष की आवाज़ है। चूँकि समाज की नज़रों में लड़कियों और औरतों की अपनी सम्पत्ति नहीं होती, इसलिए वे खुद औरों की संपत्ति बनकर रह जाती हैं। इस दिशा में बदलाव के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 20 जनवरी को एक फैसला सुनाते हुए कहा कि बिना वसीयत किए मर जाने वाले हिंदू पुरुष की बेटियां, पिता की स्व-अर्जित (खुद की कमाई) और बंटवारे में मिली दूसरी संपत्तियों को विरासत में पाने की हक़दार होंगी और उन्हें परिवार के दूसरे सदस्यों पर वरीयता हासिल होगी। इस दूरगामी फैसले के कई हासिल हैं, जो महिलाओं को पहले से कहीं अधिक सशक्त बनाएंगें।

सबसे पहले समझते हैं कि अब तक के कानून में बेटियों को क्या मिलता था। हिंदुओं की विरासत और प्रॉपर्टी के दावों का निपटारा करने वाले हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार, बेटियों का अपने पिता की स्व-अर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक़ है, और अगर पिता बिना वसीयत किए मर जाता है तो बेटी की वैवाहिक स्थिति का उसके प्रॉपर्टी के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हालांकि इसमें भी दावे के साल को लेकर पेंच था। वजह ये थी कि क़ानून पास होने के बाद कई स्तर पर ये सवाल खड़ा हुआ कि क्या ये क़ानून रेट्रोस्पेक्टिवली यानी बीते हुए समय से लागू होगा? यानी क्या इस क़ानून के तहत वो महिलाएं भी पैतृक संपत्ति की माँग कर सकती हैं जिनके पिता क़ानून संशोधन के वक़्त ज़िंदा नहीं थे।

इस सिलसिले में अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए साफ कर दिया की अगर किसी के पिता की मौत 9 सितंबर 2005 के पहले भी हुई हो तब भी बेटी का अपने पैतृक संपत्ति पर बेटों की तरह ही हक होगा। यानी 1956 में हिंदू कोड बनाए जाने के समय से ही बेटियों को पिता, दादा और परदादा की प्रॉपर्टी में बेटों की तरह ही विरासत का हक़ है।

अब आए फ़ैसले में नया क्या है?

कोर्ट का नया फैसला महिलाओं को 1956 के पहले की भी पिता की स्व-अर्जित या दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने का अधिकार देता है। इसका मतलब है कि ऐसी महिलाओं के कानूनी वारिस अब प्रॉपर्टी में अपने अधिकार को फिर से हासिल करने के लिए दीवानी मुकदमा दायर कर सकते हैं।

20 जनवरी को जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील पर सुनवाई करते हुए 51 पन्नों का फैसला सुनाया जिसमें प्राचीन हिंदू उत्तराधिकार कानूनों और तमाम अदालतों के पुराने फैसलों का ज़िक्र किया गया।

मालूम हो कि यह मामला तमिलनाडु के एक परिवार का है। यहां बेटी के पिता की मृत्यु साल 1949 में यानी हिंदू उत्तराधिकार क़ानून 1956 से पहले हो गई थी। उन्होंने अपनी स्वअर्जित (अपनी कमाई हुई) और बंटवारे में मिली संपत्ति की कोई वसीयत नहीं बनाई थी। मद्रास हाई कोर्ट ने पिता के संयुक्त परिवार में रहने के चलते उनकी संपत्ति पर उनके भाई के बेटों को अधिकार दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने पिता की इकलौती बेटी के पक्ष में फैसला दिया है। यह यह मुकदमा बेटी के वारिस लड़ रहे थे।

फैसला सुनाते हुए बेंच ने कहा, "हिंदू पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति या परिवार की संपत्ति के बंटवारे में हासिल हिस्सा पाने के एक विधवा या बेटी के अधिकार की न केवल पुराने परंपरागत हिंदू कानून के तहत बल्कि तमाम अदालती फैसलों में भी अच्छी तरह से पुष्टि की गई है।"

इस फ़ैसले की अहम बातें

इस फैसले के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि बिना वसीयत किए मरे हिंदू पुरुष की बेटियां, पिता द्वारा स्व-अर्जित और बंटवारे में हासिल दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने की हक़दार होंगी और उसे परिवार के दूसरे हिस्सेदार सदस्यों पर वरीयता मिलेगी। ये फ़ैसला संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज समुदाय पर लागू होगा।

हिंदू उत्तराधिकार क़ानून 1956 से पहले की प्रॉपर्टी की विरासत में बेटी का अधिकार भी शामिल होगा। और इसके अलावा अगर एक हिंदू महिला कोई संतान छोड़े बिना मर जाती है, तो उसके पिता या मां से विरासत में मिली संपत्ति उसके पिता के वारिसों चली जाएगी जबकि उसके पति या ससुर से विरासत में मिली संपत्ति पति के वारिसों को चली जाएगी।

गौरतलब है कि बेटियों को उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार न केवल उन्हें सशक्त करता है, बल्कि ये जेंडर समानता की दिशा में भी एक मज़बूत आधार है, जो सीधे तौर पर समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को चुनौती देता है। अगर बेटी का अपने परिवार की संपत्ति पर कोई अधिकार न हो, वो आत्मनिर्भर न हो तो वो समाज की कुरीतियों के खिलाफ कभी आवाज़ नहीं उठा पाएगी। उनमें आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, हिम्मत, हौंसला कभी नहीं पनप पाएगा। वो हमेशा दूसरों पर आश्रित रहेगी और किसी न किसी मर्द के सहारे को तलाशती रहेगी। जो औरत मर्दों के हुकुम बजाने को मजबूर होगी, वो कभी आज़ादी की सोच नहीं रख सकती।

मानसिकता बदलना ज़रूरी

किसी भी बदलाव के लिए समाज की मानसिकता बदलना ज़रूरी है और यह काम अकेले महिलाओं का नहीं है। भले ही भारत के संविधान ने महिलाओं को समानता का पूरा हक़ दिया है। लेकिन आज भी हमारे समाज में बेटियों को पराया धन ही समझा जाता है। उनकी शादी की तैयारी उनके जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है, बेटियों की शिक्षा, रोज़गार और विकास की बजाय परिवार में पैसों की बचत उनकी शादी के लिए की जाती है। और शायद यही वजह है कि उन्हें परिवार की संपत्ति का छोटा सा हिस्सा थमाकर पूरी संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है। जो पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को कमतर बनाने का सबसे आसान तरीका है।

वैसे ये भी हैरानी की बात है आज भी बेटी को अपने ही घर में पराये घर की अमानत की तरह पाला जाता है और जिस घर को उसे अपना मानने को कहा जाता है वहां उसे दूसरे घर से आई लड़की मानकर जीवन भर ताने दिए जाते हैं। ऐसे में शायद सम्पत्ति का अधिकार मिल भी जाए तो समाज में बेटियों की तस्वीर बदलने में लंबा समय लग सकता है। क्योंकि हमें अधिकारों, क़ानूनों और न्याय से ज़्यादा हमारे अपने सोच और तौर-तरीक़ों को बदलने की कोशिश करनी होगी। देश के संविधान और क़ानून ने तो हमें सालों पहले हमें समानता दे दी है, लेकिन क्या हम आज भी महिलाओं तो बराबर का जीवन दे पाए हैं ये हमें जरूर सोचना होगा।

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